वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 846
From जैनकोष
कर्म बध्नाति यज्जीवो धनाशाकश्मलीकृत:।
तस्य शांतिर्यदि क्लेशाद्बहुभिर्जन्मकोटिभि:।।
धनाशा से मलिन होने का परिणाम- यह जीव धन वैभव की आशा रखकर मलिन बनकर जितने कर्म बाँधता है उन कर्मों की शांति करोड़ों जन्मों में बड़े कष्ट से हो पाती है। एक जन्म का बांधा हुआ कर्म अनेक जन्मों से बड़े क्लेश भोगने पर ही छूटता है। देखिये गलती है एक सेकंड भर की, कोई पाप का विचार आ गया अब उस सेकंड भर की गलती में जितने कर्म बंधे वे कर्म सैकड़ों जन्मों में क्लेश देकर छूटेंगे। और, अपराधों में मुख्य अपराध है परपदार्थों की आशा बनाये रखना। वैभव की चिंता में जो आशा बन रही है उससे यह चित्त निज परमात्मस्वरूप से विमुख रहा करता है। जहाँ बाहर-बाहर ही यह उपयोग रहा तो वही तो पाप है। अपने को न समझना, परमात्मस्वरूप पर दृष्टि न रहना और बाह्यपदार्थों की ओर आकर्षण रहना यही तो पाप है, इसमें जो कर्म बंधते हैं वे अनेक जन्मों में बड़े-बड़े क्लेश भोगकर मुश्किल से छूटते हैं। जिस परिग्रह के लिए मोहीजन इतना व्यग्र रहा करते हैं यह भी मिले वह भी मिले, कभी उनकी तृष्णा का अंत नहीं रहता उस परिग्रह का यह फल है। और, तृष्णा का अंत तब तक नहीं हो सकता जब तक ज्ञान का अभ्युदय न हो। मैं केवलज्ञान मात्र हूँ, मेरा किसी अन्य पदार्थ में कुछ कर्तव्य नहीं है, किसी परपदार्थ की परिणति से मेरे में कुछ सुधार बिगाड़ नहीं। प्रत्येक पदार्थ स्वतंत्र है। किसी पर की तृष्णा से मेरी महिमा नहीं, मेरा महत्त्व तो मेरे ज्ञान और आनंद के विकास रहने में है। ऐसा निर्णय जब तक नहीं हो पाता तब तक परपदार्थों की आशा बनी रहा करती है। इन परपदार्थों की आशा बनी रहने से जो कर्मबंध होता है वे कर्मबंध भव-भव के दु:ख के कारण बनते हैं। फिर देखा होगा उसमें जो कर्म बंध गया वह अनेक जन्मों के लिए बंध गया, इस तरह अज्ञानवश जीव में जन्ममरण की और उनके भोगने की परंपरा बनी रहती है। इन सब विपत्तियों का तांता जोड़ना हो तो केवल एक ही काम करें। निज को निज समझ लें। मैं मात्र ज्ञानज्योति स्वरूप हूँ मेरा कर्तव्य इस ज्ञान का जो परिणमन है उतना ही मात्र है। मेरा भोग उपभोग मेरे ज्ञान में जो अनुभव बनता है उतना ही मात्र है। इससे बाहर किसी अन्य पदार्थ का न मैं कर्ता हूँ और न भोक्ता हूँ। मैं सबसे न्यारा परमात्मस्वरूप हूँ ऐसा अपना अंत:ज्ञान बने तो ऐसा पापकर्म दूर हो और आत्मा का उद्धार हो।