वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 847
From जैनकोष
सर्वसंगविनिर्मुक्त: संवृताक्ष: स्थिराशय:।
धत्ते ध्यानधुरां धीर: संयमी वीरवर्णितां।।
नि:संगता और इंद्रियविजयता के बल से ध्यानधुरा के धारण की क्षमता- जो पुरुष समस्त परिग्रहों से रहित हो और जिसने इंद्रिय का सम्हाल कर लिया हो अर्थात् इंद्रियविषयों में अपने मन को नहीं लगाया ऐसी जिसके स्थिरता जगी हो ऐसी स्थिरता चित्त संयमी पुरुष ही वीर पुरुष के द्वारा कहे हुए ध्यान की धुरा को धारण करने में समर्थ हो सकता है। ध्यान में एकाग्र चित्त उसका ही तो रहेगा जिसका किसी पर में चित्त नहीं रहता, पर की चिंता नहीं रहती। पर की चिंता न रहने देने के लिए पर का त्याग करना होगा। तो जो परिग्रह से रहित है वही ध्यान में सफल हो सकता है। जिसे इंद्रियविषयों में आसक्ति नहीं है वही ध्यान में सफल हो सकता है। आत्मध्यान कर लेना यह कोई कठिन बात नहीं है। आत्मा तो यह स्वयं ही है। स्वयं यह अपने आपको न जान सके, स्वयं अपने आपके निकट न ठहर सके, यह तो एक अचरज की बात है। बस जो गलती कर रहे हैं उस गलती को छोड़ दें। गलती यही है कि इंद्रिय के विषयों में प्रेम जग गया है, स्पर्शनइंद्रिय के विषय कामसेवन, रसनाइंद्रिय का विषय रसीले स्वादिष्ट भोजन, घ्राणेंद्रिय का विषय इत्र फुलेल सुगंधित पदार्थों का रखना, उनका गंध लेना, चक्षुइंद्रिय का विषय जो रूप सुंदर लगे, मन को सुहावना लगे उसे निरखते रहना, रागभरी बातों के सुनने में प्रीति जगना यही सब है अपराध। इन अपराधों के करते हुए में आत्मध्यान होना तो अशक्य है। अपराध भर न करे फिर किसी भी प्रकार की विपत्ति नहीं है। आत्मध्यान आपका आपके ही पास है।
गृहस्थावस्था में भी विवेक होने से ध्यान की एकदेश सिद्धि- गृहस्थावस्था में यद्यपि कुटुंबीजन अनेक हैं पर क्या तुम्हें उनके कर्मों पर विश्वास नहीं है। उनके साथ भी कर्म लगे हैं या नहीं? बल्कि आपसे भी अच्छे कर्म हैं उनके। पुण्य विशेष है जो उनके आराम के लिए बड़े-बड़े श्रम करके चिंता करके विषय भोगकर क्लेश उठाकर उनका पालन पोषण करते हैं। तो सबके भाग्य का विश्वास रखो, चिंता की क्या बात? जिसका जैसा भाग्य है, होनहार है उसके अनुकूल अनायास जरा से श्रम में ही व्यवस्था बन जायगी, और फिर कर्तव्य आपका काम है, उसमें भाग्यानुसार सब बातें होती हैं। हाँ कर्तव्य कुछ न करें, आलस्य में आकर पड़ा रहे, उल्टा उल्टा ही चले और फिर दु:खी हो तो वह जरा मूर्खता की बात होगी, फिर अपने सदाचार से रहें, कर्तव्य का पालन करें तिस पर भी नहीं उदय ठीक आता है तो उसमें समतापरिणाम रखें तो यही एक बड़ा तपश्चरण हो गया। कर्मों की निर्जरा होगी। है क्या? यहाँ संसार में कोई चीज विश्वास के योग्य नहीं है, आज तो छोटा है वह सदा छोटा ही रहे ऐसी बात नहीं है अथवा जो आज बड़ा है वह बड़ा ही रहे ऐसी भी बात नहीं है। यहाँ के ऊँच नीच का, छोटे बड़े का क्या विश्वास करना, और क्या उसका अनुभव रखना। ये सब समय-समय की परिणतियाँ हैं। आत्मा तो सदाकाल रहने वाला है, अमर है, स्वरक्षित है। वह तो जो है सो है। वहाँ कोई बाधा नहीं है, विपत्ति नहीं है। उस ज्ञानप्रकाश से चिगे और बाहर के इस झूठे उजेले में जो कि वास्तव में अंधकार है उसकी ओर भागे कि सारी विपदायें सिर पर मंडरा जाती हैं, जो इंद्रिय के विषयों में प्रेम न करें और निर्विषय ज्ञानमात्र अपने आपकी प्रतीति रखे, सबसे निराला हूँ मैं, मेरी दुनिया सबसे निराली है, अलौकिक विलक्षण शांतरस से भरपूर मेरा सर्वस्व मुझमें है, इस तरह की प्रतीति करे तो उसको कहाँ क्लेश है। रही बाहर की बातें, कुटुंब है, वैभव है, कुछ है अपना? व्यवस्था के समय की बात अलग है। और, जहाँ आत्मचिंतन, आत्मधर्मपालन का काम किया जा रहा है उस समय की बात तो सबसे विलक्षण होना चाहिए। ठीक उसी भाँति है ये घर के लोग जिस भाँति दुनिया के सभी जीव हैं। जैसे ये मुझसे भिन्न हैं इसी प्रकार ये सभी सृजन मुझसे अत्यंत भिन्न हैं। ऐसा सबसे निराला ज्ञानज्योतिमात्र अपने आपको जो निरखता है और इसी ज्ञान के कारण इंद्रिय के विषयों में आसक्त नहीं होता है उसका चित्त आत्महित के लिए स्थिर होगा और संयमी साधु भगवान के द्वारा प्रणीत ध्यान की धुरा को धारण करने में समर्थ है। तात्पर्य यह है कि परिग्रह के त्यागे बिना और इंद्रियविषयों का परिहार किये बिना आत्मध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती। यह बात मुनिजन तो पूर्णरूप से करते हैं, पर गृहस्थ भी तो उसे कहते हैं जो मुनिधर्म की उपासना करे। आंतरिक मोक्षमार्ग जो मुनि निभा रहे हैं उसे गृहस्थ भी तो अपनी शक्ति के अनुसार निभायें, ऐसा करने के लिए सम्यग्ज्ञान बनाना चाहिए कि मैं स्वरूप से निष्परिग्रह हूँ, परिग्रह में ममता न रहे तो मैं अपने स्वरूपप्रकाश को अपने ज्ञान में अनुभव सकता हूँ और इस ही ज्ञानानुभव में संसार के संकटों का विनाश करने की सामर्थ्य है और यही मेरे लिए वास्तविक शरणभूत है।