वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 850
From जैनकोष
दु:खमेव धनव्यालविषविध्वस्तचेतसां।
अर्जने रक्षणे नाशे पुंसां तस्य परिक्षये।।
धर्मसर्पविषदष्ट पुरुषों को अर्जन, रक्षण व नाश में सर्वत्र क्लेश- धनरूपी सर्प के विष से जिसका चित्त बिगड़ गया है उस पुरुष को सर्वत्र दु:ख ही दु:ख होता है। धन का उपार्जन करने में कितना क्लेश होता है? व्यापार करे, खेती करे या किसी चीज का उत्पादन करे या सेवा करे किसी भी कार्य को करे धनार्जन के लिए उसमें दु:ख मानते हैं और धनार्जन हो जाय तो उसकी रक्षा करने में दु:ख मानते हैं, कैसे रक्षा करें, कहाँ रखें, घर में रखें तो डाकू चारों का डर है, बैंक आदि में रखें तो वहाँ सरकार का डर है। अन्याय का धन रख नहीं सकते। न्याय से कमायी परिमित होती है अथवा न्याययुक्त भी कमाई हो तो सरकार के नये-नये कानून बनते हैं। कहाँ रखें यह धन कि रक्षित रहे? बहुत से डकैत लोग तो धनिक लोगों को पकड़कर अपने गिरोह में रखते हैं और उन धनिकों के यहाँ से मनमाना धन मंगा लेते हैं। तो प्रथम तो इस धन के अर्जन में क्लेश है और धन का अर्जन हो जाय तो फिर उसकी रक्षा करने में क्लेश है। और, सुरक्षित भी रहे पर अंत में उसका नाश होगा, वियोग होगा। तो वियोग के समय तो महान क्लेश होता है। परिग्रह का संबंध प्रारंभ से लेकर अंत तक केवल दु:ख ही दु:ख का कारण होता है।
परिग्रहसंबंध की अनर्थता- देखिये विचारिये- किनके लिए धन का अर्जन करना? जिनके सुखी रखने के लिए इतना श्रम किया जा रहा है वे आखिर हैं कौन? वे तो सब आपसे अत्यंत भिन्न जीव हैं, उनसे आपका कुछ भी नाता नहीं है। इस धन वैभव के कारण तो कहीं कहीं मृत्यु का भी सामना करना पड़ता है। धन के इच्छुक अनेक जन हैं, वे कोई ऐसी जाल रच देते हैं कि उस धनिक की मृत्यु कर देते हैं। तो परिग्रह का संबंध प्रारंभ से अंत तक केवल क्लेश ही क्लेश का कारण बनता है। धन की तीन दशायें बतायी हैं- या तो उस धन का भोग कर लो या दान परोपकार कर, या उसका विनाश हो जाय। दान, भोग, नाश ये तीन ही धन की गति होती हैं। जिसने दान नहीं किया अथवा अपने भोगोपभोग नहीं लगाया तो न लगाये, उसके हाथ की बात है। न दान करना चाहे न करे, न खाना पीना चाहे न खाये पिये, पर तीसरी दशा जो नाश है उससे तो बचने का उपाय नहीं चल सकता। जैसे कोई कंजूस यह सोचता है कि मैं इस धन को कुछ खर्च न करूँ और इसे बराबर बनाये रहूँ तो इस बात पर उसका कुछ बल भी चल जाता है। न करे खर्च एक जगह बनाये रहे, सोचे कि हम दान भी न करेंगे, अपने पास ही इसे बनाये रहेंगे तो दान न भी करे यह भी बात बन सकती है, पर यह सोचे कि मैं इस संपदा को नष्ट न होने दूँगा, इसे मैं अपने पास ही रखे रहूँगा, इसे बेकार न होने दूँगा तो इस पर तो वश न चल सकेगा। तीसरी गति याने इस धन का विनाश तो निश्चित ही है। अतएव यों ही नष्ट क्यों हो जाय उसे अपने भोग आराम में उपयोग कर लें या दान कर लें तो ठीक है। यहाँ यह बताया जा रहा है कि परिग्रह का संबंध क्षोभ का ही कारण होता है। परिग्रह के संबंध में मनुष्य आत्मा का ध्यान नहीं कर सकता। लोक में आत्मा की सुध लेना ही वास्तव में शरण है अन्य कुछ भी चमत्कार कर ले, झमेला बना ले, यह कुछ भी इसका शरण नहीं है।