वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 849
From जैनकोष
विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दु:स्थितेऽपि वा।
सर्वत्राप्रतिबद्ध: स्यात्संयमी संगवर्जित:।।
नि:संग साधु की सर्वत्र अप्रतिबद्धता- जो परिग्रह के त्यागी हैं, संयमी हैं वे चाहे निर्जन वन में रहें, चाहे बस्ती में रहें, चाहे सुख से रहे, चाहे दु:ख से रहें सभी जगह निर्मोह रहते हैं। परिग्रह का तो अंतरंग मूर्छा से संबंध है। जिसमें मूर्छा है वह तो मोही है और जिसके मूर्छा नहीं वह निर्मोह है। निर्मोह रहने में निराकुलता है और मोह में आकुलता है। जितने भी जीव दु:खी हैं। किसी के भी दु:ख की कहानी सुन लो सब मोह के कारण दु:खी हैं। निर्मोह साधु किसी भी जगह हों, चाहे नगरी में रहें, चाहे जंगल में रहें पर उनके सम्यग्ज्ञान हैं, आत्मा का परिचय है, आत्मा की धुन है इस कारण वह सर्वत्र निर्मोह है। और जो निर्मोह है वह निराकुल है। जो निराकुल होगा वही आत्मा का ध्यान कर सकेगा, आत्मा का हित कर सकेगा।