वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 857
From जैनकोष
बाह्यांतर्भूतनि:शेषसंगसंन्याससिद्धये।
आशां सद्भिर्निराकृत्य नैराश्यमवलंब्यते।।
कल्याणार्थी पुरुषों द्वारा आशा का निराकरण करके नैराश्य का आश्रयण- आत्मा का वास्तविक आनंद अपने आत्मा में है। जब किसी भी परपदार्थ की ओर दृष्टि नहीं रहती, किसी पर के विकल्प नहीं जगते तो ऐसे परम विश्राम के समय जो आत्मा का मिलन होता है वह ही एक शरणभूत चीज है, इसके अतिरिक्त बाह्य में जितने भी धंधे हैं, संसर्ग हैं, स्नेह हैं वे सब क्लेश के कारण हैं। इसी कारण ज्ञानी संत पुरुष आत्मध्यान के लिए ही सारा प्रयत्न करते हैं। आत्मध्यान में सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि परिग्रहों का त्याग करें। जो परिग्रह संसर्ग में है उसका विकल्प अवश्य होगा और विकल्प रहते हुए की स्थिति में आत्मा का ध्यान नहीं बनता। अतएव जिन्हें आत्मध्यान चाहिए उन्हें परिग्रह का त्याग प्रथम करना होगा और परिग्रह के त्याग की बराबर सिद्धि तब बनेगी जब आशा को छोड़कर निराशता का अवलंबन किया जाय। आशा के परित्याग से ही आशा छूटे और वैराग्यभाव का आदर बने तो परिग्रह का त्याग निभ सकता है। निराशा के आलंबन का अर्थ यह है कि चित्त में यह निर्णय हो कि हे प्रभो ! मुझे तो ऐसी स्थिति चाहिए जिस स्थिति में किसी परपदार्थ की आशा न रखनी पड़े। जब ज्ञान और विवेक जगता है तो उस ज्ञान की अंतरंग में एक वांछा रहती है कि हे नाथ ! मेरे किसी तरह की वांछा इच्छा आशा न जगे और मैं अपने परमात्मस्वरूप को निहारकर ही स्वाधीन रहूँ, प्रसन्न रहूँ, यही एक मात्र चाह रहती है, इसी का नाम है निराशता का आलंबन। जो सत्पुरुष हैं वे बहिरंग और अंतरंग समस्त परिग्रहों के त्याग की सिद्धि के लिए प्रथम ही प्रथम यह उपाय करते हैं कि आशा को छोड़कर निराशता का आलंबन करना है। आशा एक जाल है और व्यर्थ का जाल है, किसी परपदार्थ से अपने आत्मा का क्या संबंध है? पर है, भिन्न है, आज साथ है, कल न रहेगा। उससे मेरे आत्मा का कोई संबंध नहीं है, फिर भी उन परपदार्थों के प्रति आशा का परिणाम बनाये रखे तो वह एक महाविकट जाल है, इस आशा के जाल में सारा संसार दु:खी है। और, एक दूसरे को मूर्ख क्यों नहीं नजर आते? जो पर की आशा रखते हैं वे तो मूढ़ हैं पर यहाँ एक दूसरे को मूर्ख क्यों नहीं मानते? यों नहीं मानते कि सभी मूढ़ है, परपदार्थों के मोह में सभी पड़े हुए हैं, इस कारण इन मोही पुरुषों के चित्त में इस परिग्रह की कीमत बनी रहती है, इसका महत्त्व बना रहता है इस कारण सबको ठीक सा जंचता है, मूर्खता नहीं मालूम होती है, किंतु यह मूढ़भाव इतना घोर विपत्ति का साधन है कि आज मनुष्य है, मनुष्य देह छूटेगी फिर अन्य जन्म लेगा, यों जन्म और मरण की परंपरा में लगता रहेगा, यह सब आशा का कारण है।