वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 858
From जैनकोष
यावद्यावच्छरीराशा धनाशा वा विसर्पति।
तावत्तावन्मनुष्याणां मोहग्रंथिर्दृढीभवेत्।।
शरीराशा व देहबुद्धि में मोह गांठ की दृढ़ता- मनुष्यों के जैसे जैसे शरीर में और धन में आशा का फैलाव होता है वैसे ही वैसे जड़ मोहकर्म की गांठ और दृढ़ होती जाती है। हम भगवत् जिनेंद्रदेव की क्यों इतनी महिमा गाते हैं, उनमें कौनसा प्रधान गुण है? वह गुण है कि उनके आशा का अभाव हो गया है। अब भविष्य में कभी भी उनमें आशा न जग सकेगी केवलज्ञान हो गया है, जैसा विशुद्ध आत्मा है केवल अपने स्वरूप से वैसा प्रकट हो गया है। भगवान का और स्वरूप क्या है? अपने आपमें अपने प्रति ऐसा भाव बनायें कि मैं तो मैं ही हूँ, शरीर मैं नहीं, मैं तो ज्ञानस्वरूप हूँ, रागद्वेष मैं नहीं, केवल जो रागद्वेष है, जानकारी प्रकाश जो ज्ञान बनता है वही मात्र मैं हूँ ऐसा अपने को केवल ज्ञानस्वरूपमात्र अनुभव करते जाइये और इस धुन से अनुभव करिये कि शरीर का भान तक भी न रहे, यह भी ज्ञात न रहे कि किस जगह बैठा हूँ, क्या टाइम है इस समय? न काल का भान रहे, न क्षेत्र का भान रहे, न पिंडों का ध्यान रहे, क्या क्या वस्तुवें हैं इस जगह? यहाँ तक कि अपने शरीर का भी भान न रहे, केवल ज्ञानमात्र अनुभव रहे तो यह ज्ञानानुभव मोह ग्रंथि को तोड़ देगा। इसके विरुद्ध जहाँ पर की ओर दृष्टि जगती है, आशा जगती है तो यह मोह की गाँठ और और कठिन दृढ़ होती चली जाती है। जैसे लोग सोचते है कि हम करीब 10-15 वर्ष में एकदम स्वतंत्र और बेफिक्र हो जायेंगे। हमारा जो बालक है वह पढ़ रहा है, कुछ दिनों में उसका काम चल जायगा, हमसे फिर कुछ मतलब न रहेगा। उसे योग्य बना दें, फिर वह सारा काम सम्हाल लेगा, मुझे कोई चिंता ही नहीं रहेगी, बेफिक्र हो जायेंगे, मगर कुछ समय के बाद फिर आशा जगती है। अब बालक के भी बालक हो गया, इसे भी पढ़ा लिखा दें और जितना मोह पुत्र से पिता का नहीं होता, उतना मोह बाबा का हो जाता है। दादा का मोह पोते पर अधिक होता है। और, कानून में भी यह बात है कि दादा की जायदाद का अधिकारी पोता होता है, लड़का नहीं। तो इससे ही अंदाज कर लो कि दादा का पोते पर अधिक मोह होता है। लो अब मोह बना तो उस मोह का फंसाव बढ़ने लगा। पोता बड़ा हुआ, उसकी शादी हुई, पोते के सुख के लिए अनेक प्रकार की चिंताएँ करते। यों जिंदगी में कभी विराम नहीं मिल पाता। कोई विरला ही ज्ञानी पुरुष ऐसा होता है कि स्वजन की कैसी भी परिस्थिति हो, पर उनमें मोहभाव नहीं लाता। विरला ही ज्ञानी संत पुरुष ऐसा कर पाता है, अन्यथा एक के बाद एक आशा बढ़ती जाती है, उसे कहीं विराम नहीं मिलता।
धनादि की आशा में मोह और आकुलता की दृढ़ता- धन की भी आशा बड़ी बुरी होती है। अब इतना धन हो गया, अब इतना हो गया, अब इतना और होना चाहिए, यों आशावश संतोष कहाँ जगता है? तो धन की आशा का भी बड़ा फैलाव होता है और धन की आशा का फैलाव होता है त्यों त्यों मोह की गांठ और भी दृढ़ होती चली जाती है, शरीर वृद्ध हो जाता है। तो वृद्ध शरीर के होने का अर्थ तो यही है कि अब शरीर जलाने योग्य होगा इसका मरण होगा, मगर कितना भी जीर्ण शीर्ण शरीर हो जाय, शरीर की आशा, शरीर का आराम हर एक कोर्इ चाहता है। तो जब तक यह आशा फैलती रहती है तब तक मोह की गाँठ भी दृढ़ हो जाती है। दुनिया में केवल मोह का ही तो दु:ख हैं, और कोई दु:ख हो तो बतावो। सब अकेले-अकेले हैं, अपने-अपने स्वरूप के धनी हैं, किसी का किसी पर से कोई संबंध नहीं है। प्रत्येक पदार्थ है जैसे वैसे ही यह आत्मा भी है, सत् है। जो चीज सत् है उसका कभी विनाश नहीं होता, वह सदैव रक्षित है, कोई भी चीज अरक्षित नहीं है। चीज है, सदा रहेगी, चाहे किसी रूप रहे, अरक्षा तो हमारी यह है कि जो हम विकारभाव की ओर लगते हैं, विकल्प में बहते हैं यह है हमारी अरक्षा। स्वरूप से तो हम मिटेंगे नहीं, हम दु:ख बनाते रहते हैं, आकुलित रहते हैं यह हमारी अरक्षा है, दु:ख दूर हो जायें, आकुलता नष्ट हो जाय फिर हम स्वरक्षित ही हैं। स्वरूप से स्वरक्षित तो हम सदैव से है, कभी मेरा विनाश नहीं हो सकता, बस हम चाहते यही कि मुझे आकुलताएँ न उत्पन्न हों। मोह भाव मिटे तो आकुलता दूर हो।
मोह मिटे बिना शांति की असंभवता- पशु, पक्षी, मनुष्य सभी इस मोहवश दु:खी हैं। सभी जीवों का दु:ख एक ही ढंग का है। भले ही उनके विषय में फर्क है, मनुष्य मनुष्य के बच्चे से प्रेम करता, मकान महल की चिंता है, धन वैभव जोड़ने की चिंता है, मनुष्य का मोह मनुष्य के ढंग का है, पक्षियों का मोह पक्षियों के ढंग का है, पक्षी भी अपना घोसला बनाते और अपने बच्चों से प्यार करते। तो पक्षी भी मोह करते हैं, मनुष्य भी मोह करते हैं। तो सभी जीवों के दु:ख का कारण यह मोह है। मोह मिटे तो फिर कोई क्लेश ही नहीं है। अपने आपमें अंदाज लगाकर देख लो, जब अपना ऐसा अनुभव चले कि जगत में मेरा कोई कुछ नहीं है, अन्य किसी से सुख नहीं होता, बल्कि अन्य पदार्थ में स्नेह जगाने का फल केवल क्लेश है। भले ही कल्पनावश हम थोड़ा मौज मान लें, किसी से स्नेह करने का परिणाम केवल क्लेश ही निकलता है और खुद अनुभव कर लेते हैं कि स्नेह के फल में अंत में क्लेश ही तो मिला। खूब अपनी घटनाओं का स्मरण कर लो तो जब सम्यग्ज्ञान बने और परपदार्थों की आशा मिटे, मोह दूर हो तो आत्मा को शांति मिल सकती है। यही सीखने के लिए हम प्रभु के दरबार में आते हैं, प्रभु की पूजा करते हैं, गुणगान करते हैं, साधुजनों की संगति करते हैं ताकि मुझमें भी वही गुण प्रकट हो जायें। तो इन गुणों के विकास रोकने वाला है मोहभाव। यह मोह मिटे तो परिग्रह की ममता दूर होगी, इस ममता के दूर होने से यह जीव सुखी हो जायगा।