वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 859
From जैनकोष
अनिरुद्धा सती शश्वदाशा विश्वं प्रसर्पति।
ततो निबद्धमूलाऽसौ पुनच्छेत्तुं न शक्यते।।
निरोध की ओर उपयोग न होने से आशा का विश्वप्रसर्पण- यदि इस आशा को न रोका जाय तो यह आशा कहाँ तक फैलेगी? समस्त लोक पर्यंत फैल जायगी। जैसे कोई बेल होती है, उस बेल को न रोका जाय, उसे रास्ता मिलता जाय तो वह फैलती चली जायेगी, उसकी सीमा है मगर एक दृष्टांत दिया कि यह बेल बढ़ती चली जायेगी लेकिन आशा तो ऐसी बुरी बेल है कि इसे न रोका जाय तो समस्त लोक पर्यंत बढ़ती चली जायेगी। अर्थात् मनुष्य पहिले थोड़ी आशा करता है, क्योंकि उसकी बुद्धि अभी थोड़ी चल रही है। अधिक धन भी कुछ होता है इसकी उसे पहिचान ही नहीं है। जब मनचाहा धन मिल जाता है तब यह पहिचान होती है कि इसमें भी अधिक वैभव हुआ करता है, फिर उसकी आशा करता है। यों आशा कहाँ तक करते जाते कि सारा लौकिक वैभव मुझे मिल जाय यहाँ तक आशा कर डालता है, तो इस आशा की बेल को यदि रोका न जाय तो लोकपर्यंत यह फैल जाती है, और फैल ही जाय इतनी ही बात नहीं किंतु उससे इसका मूल और दृढ़ होता जाता है। बेल जब ताजी है तो उसकी जड़ उतनी गहरी नहीं होती। ज्यों ज्यों बेल फैलती जायेंगी त्यों त्यों उस बेल की जड़ दृढ़ बनती जायेगी। जब आशा की जड़ मजबूत बन जाती है फिर इसकी गाँठ कठिन होती जाती है, अतएव आशा जमे तो तत्काल यथाशीघ्र उसको रोकने का, काटने का, नष्ट करने का, ध्यान रखना चाहिए, आशा फैल जायेगी, आशा की जड़ मजबूत हो जायेगी तो फिर इसका निवारण करना कठिन है। देख ही तो रहे हैं, घर-घर में अनेक लोग दु:खी हैं। उन सबके दु:खी होने का कारण है स्त्री पुत्रादिक में मोह भाव का होना है। कभी बड़ा क्लेश मिलने पर सोचते तो हैं कि मैं इन सबको छोड़कर चला जाऊँ लेकिन ऐसा कर नहीं पाते हैं। हाँ ज्ञान और वैराग्य इतना उत्कृष्ट जगा हो और फिर उसके परित्याग की वांछा बनें तो त्याग कर सकते हैं, मगर कषायवश रूसकर, ईर्ष्यावश, वेदनावश चाहें कि मैं इन सबको छोड़ दूँ तो छोड़ नहीं सकते। और, छोड़ देंगे तो उससे भी बहुत कष्ट पायेंगे। तो जब तक ज्ञान और वैराग्य दृढ़ नहीं बनता तब तक परिग्रह को कोई छोड़ नहीं सकता। ऊब कर छोड़ना छोड़ना नहीं कहलाता उसमें फिर क्लेश होगा। तो यह आशा ज्ञानशस्त्र से काटी जा सकती है। क्या आशा करते हो? किस पदार्थ की आशा करते हो? ये सभी पदार्थ भिन्न हैं। इनके संग रहने से इनका परिग्रह रहने से कुछ आत्मा में आनंद प्रकट नहीं हो जाता। आनंद तो आत्मा का अपने आपके आत्मा में बसा है। जहाँ लोकेषणा जगी, लोग मुझे अच्छा जान लें, इस प्रकार की जहाँ वासना उत्पन्न हुई कि लो अब कष्ट आने लगे। तो कष्टों को लोग जानबूझकर बुलाया करते हैं अज्ञानवश।
ज्ञानार्जन व सत्संग के उपाय से आत्मोद्धार के यत्न का अनुरोध- शांति के अर्थ यह अवसर चाहिये कि ज्ञान बराबर अपना ठीक बना रहे और वह बना रह सकता है सत्संग से। सत्संग में निरंतर बना रहे, और फिर ज्ञान सही बना रहे तो फिर उसे कोई कष्ट नहीं है। सम्यग्ज्ञान उत्पन्न करें और आशा का अंकुर न उगने दें, इस उत्पन्न होने वाली आशा को शीघ्र नष्ट कर दें, इस उपाय से आत्मा का कल्याण बन सकता है। इसके लिए चाहिए खूब ज्ञान का अर्जन और सज्जनों का सत्संग। लोग चाहते हैं कि मेरा कल्याण हो पर कल्याण के सुगम उपाय ये दो हैं- खूब ज्ञान का अर्जन किया जाय, स्वाध्याय करके अपने से अधिक पढ़े लिखे पुरुषों को गुरु मानकर उनसे अध्ययन करें और सत्संग बनाये रहें। संग का बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है। संसार के जीवों को ये पाप के व्यसन तो अपने आप रुच ही रहे हैं। अनादिकाल से व्यसन और पापों की ओर इस जीव की दृष्टि लग रही है और फिर मिल जाय कुसंग, ऐसे ही व्यसनी पापी खोटे पुरुषों का संग तो फिर पतन में क्या विलंब रहता है? बहुत बड़ा वैभव यही है कि अपन को सत्संग मिलता रहे, संतपुरुषों का समागम मिलते रहने से उसमें बुद्धि व्यवस्थित रहेगी और जहाँ बुद्धि ठिकाने रही तो अपने आप सभी पदार्थ इस तरह लगने लगेंगे कि जिससे इस लोक में भी कष्ट न होगा और भविष्य में भी कष्ट न होगा। हमें करना चाहिए सत्संग और ज्ञानार्जन। इन दोनों उपायों से आशा को नष्ट करें और अपने आपमें सत्य विश्राम पाकर आत्मध्यान द्वारा आत्ममग्न होकर अपनी सच्ची प्रसन्नता पायें।