वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 868
From जैनकोष
यावदाशनलश्चिते जाज्वलीति विश्पृंखल:।
तावत्तव महादु:खदाहशांति: कुतस्तनी।।
आशाग्निज्वलित चित्त में दु:खदाहशांति की असंभवता- हे आत्मन् ! जब तक तेरे चित्त में आशारूपी अग्नि नितांत प्रज्ज्वलित हो रही है, स्वच्छंदता से बढ़ रही है तब तक तेरे मोह दु:खरूपी दाह की शांति कहाँ से हो? जैसे जब अग्नि स्वच्छंदता से निरंतर जलती बढ़ती रहती है तो वहाँ दाह की शांति की आशा नहीं है। इसी प्रकार चित्त में आशारूपी अग्नि बढ़ती रहे, स्वच्छंद जलती रहे तो दु:खदाहों की शांति अशक्य है। दु:ख सुख कोई बाहर की बात नहीं है। अपने आपके आत्मा के अंदर की कल्पना और वृत्ति का फल है। सर्वपदार्थ स्वतंत्र हैं, मैं भी स्वतंत्र हूँ, किसी का किसी से कोर्इ संबंध नहीं है, अधीनता नहीं है किंतु इस आशा का परिणाम करके परवस्तु के अधीन बन जाते हैं। आशा जिनके हैं उनके दु:ख की दाह अवश्य है। जो भी महापुरुष भगवंत हुए हैं उन्होंने आशा का अभाव करके ही वह भगवत्ता प्राप्त की है। अन्य उपाय नहीं है पवित्र होने का। आशा के अभाव के लिए निज के परिचय की प्रथम आवश्यकता है। समस्त पदार्थों से इस महत्त्वशाली तत्त्व का परिचय करना जरूरी हो जाता है। वह उत्तम तत्त्व है निज सहज ज्ञानस्वभाव। इस ओर दृष्टि दी जाय और पर की आशा समाप्त की जाय। आशा कहो, राग कहो, दोनों एक ही प्रकार के कषायों के प्रतिफल हैं। यह राग आग संसार के जीवों को जला रही है, यह दाह तभी मिट सकती है जब समतारूपी अमृत का सेवन किया जाय। संपत्ति विपत्ति, हित अहित सब कुछ अपने आत्मा में पड़े हुए हैं। ये सब एक ज्ञान की कला पर निर्भर है। हम किस पद्धति से अपना ज्ञान करें कि आनंद मिले और किस पद्धति से ज्ञान करें कि क्लेश मिलें, ये सभी बातें अपने ज्ञान की कला पर निर्भर है। तो आप समझिये कि इतना उत्कृष्ट लाभ, इतना सस्ता उपाय और कुछ भी हो सकता है क्या? जब ही पर से मुख मोड़कर स्व के उन्मुख बनते हैं तो सर्वसंकट टल जाते हैं। इतनी कला जिसके आ गई उसने सब कुछ पा लिया, जीवन का सार भी पा लिया। जब तक चित्त में आशारूपी अग्नि स्वतंत्रता से जलती है तब तक दु:खदाहों की शांति नहीं हो सकती है।