वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 869
From जैनकोष
निराशतासुधापूरैर्यस्य चेत: पवित्रितम्।
तमालिंगति सात्कंठं शमश्रीर्बद्धसौहृदा।।
नैराश्यसुधायुत जीव के शांति का लाभ- जिसका चित्त निराशतारूपी अमृत के प्रवाह से पवित्र हो गया है उस पुरुष को शांतिरूपी लक्ष्मी उत्कंठापूर्वक मिलती है। आशा से मलिन चित्त में शांतभाव नहीं आ सकता। खुद ही तो यह प्रभु है, खुद ही जानता है, खुद ही संसार में डूबता है, कैसा विचित्र समन्वय है, कैसा विलक्षण संगम है कि यही तो निर्णेता है और यही अपराधी है। अपराध हमारा कोई दूसरा नहीं करता। हम ही अपना अपराध करते हैं और हम ही अपने अपराध का फल भोगते हैं। अपने सुख दु:ख का फैसला भी हम ही करते हैं। ऐसा विलक्षण संगम है, अब विवेक की आवश्यकता है। अपराध हमारा न बने अर्थात् आत्मदृष्टि हमारी भंग न हो और उस प्रयोग के फल में हमारा शुद्ध विकास बने, यों निरपराध बनें; यों निर्णेता बनें। ऐसा पुरुष आशा का अभाव करके नैराश्यरूपी अमृत के प्रवाह से पवित्र होता है उस ही पुरुष को उपशमभावरूपी लक्ष्मी बड़ी उत्सुकतापूर्वक मिलती है।
श्लोक- 870
न मज्जति मनो येषामाशांभसि दुरुत्तरे।
तेषामेव जगत्यस्मिन्फलितो ज्ञानपादप:।।
आशानद में न डूबे हुए जीव के ज्ञान की फलिरूपता- जिनका मन दुस्तर आशारूपी जल में नहीं डूबता है उनका ही ज्ञानवृक्ष फलित होता है। जैसे कोई वृक्ष जल में डूब जाय तो वह फल नहीं देता है इसी प्रकार जिनका मन आशारूपी जल में डूब जाता है उनका ज्ञान फलित नहीं होता है, विकसित नहीं होता है। जिस मन में आशा भरी है उस मन में ज्ञान का विकास कैसे हो सकता है? अत: ज्ञानविकास की चाह करने वाले पुरुषों का कर्तव्य है कि वस्तु स्वरूप का यथार्थ बोध करके विशुद्ध भेदविज्ञान के विशुद्ध प्रयोग से आशा विकार का विलय करे और अपने ज्ञान स्वरूप में प्रवेश करके अनंत ज्ञान विकास और अनंत आनंद विकास के अनुभव का मार्ग प्राप्त करे।