वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 877
From जैनकोष
विषयविपिनवीथीसंकटे पर्यटंतीझटिति घटितवृद्धि: क्वापि लब्धावकाशा।
अपि नियमिनरेंद्रानाकुलत्वं नयंतीछलयति खलु कं वा नेयमाशापिशाची।।
आशा पिशाची का उपद्रव- विषयरूपी वन की गलियों में फिरते हुए और तत्काल बढ़ते हुए जहाँ तक बेरोकटोक स्वच्छंद होकर विचरने वाले संयमी मुनियों को आकुलित करने वाली यह आशा किसी को नहीं छोड़ती है अर्थात् सभी मनुष्यों को यह आशा धोखा देती है। स्वप्न की तरह इन बाह्य पदार्थों की आशा लगायें, उनके प्रति चिंता करें तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। ऐसा विशुद्ध ज्ञान पाकर यदि इसका सदुपयोग न किया जा सका, अपने अंतस्तत्त्व की भावना न की जा सकी तो समझ लीजिए कि ये सब विकार, आशाएँ स्वच्छंद होकर बढ़ती चली जायेंगी और फिर इस विशाल संसार में जन्म मरण के चक्र और भी बढ़ते चले जायेंगे। इस आशा के वश हुआ प्राणी धोखा ही खाता है। जैसे बहुत-बहुत संग्रह किया, समागम किया, अंत में यह जीव पछताता हुआ जाता है। सब कुछ देखता हुआ मरण करता है, हाय मैंने इतनी कठिनाई से इतना वैभव कमाया और आज सब यों ही छूटा जा रहा हैं। मैं लाखों करोड़ों की संपदा का स्वामी था, मैं एक धनिक कहलाता था। मेरे दस्तखत मात्र से लाखों करोड़ों की बाकी निकालना, जमा करना सारी बातें रहती थी। अब यह मैं इतना विवश हो गया साथ में एक छदाम भी नहीं जा रहा। बड़ी पीड़ा मानता है वह मोही पुरुष जो आशा के वश होता है। इस आशा ने बड़े-बड़े संयत संतों को भी आकुलित कर रखा है। यह पिशाची किसी को नहीं छोड़ती। क्षण तो वह ही सफल है जिसमें सबसे विविक्त केवल ज्ञानमात्र अपने आपके सहजस्वरूप की दृष्टि बना दी जाती है और उसकी उपासना की जाती है और उसकी ओर अपना उपयोग रहता है, जितने क्षण यह बन सकता है वह क्षण सफल है और उतने ही क्षण भी बने तो उनमें यह सामर्थ्य है कि अवशिष्ट दिन रात की अनेक क्षणों में भी यह पुरुष विचलित रहा आया लेकिन कुछ क्षणों को यह आत्मध्यान उन सब अपराधों को शांत कर देता है। आत्मविजय का केवल एक यह ही साधन है। हमारी रात दिन की चर्यावों में जो क्षोभ जगा, मोह बना उन सब अपराधों के क्षय करने की सामर्थ्य इस क्षणमात्र के आत्मध्यान में पड़ी हुई है। जैसे लोग प्राय: कहते हैं कि यह मोह बड़ा बलवान है, इस मोह ने बड़े-बड़े मनुष्यों को भी सता रखा है, विवश कर रखा है, किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया है, बड़े-बड़े महापुरुष सेठसलाका पुरुष भी इस मोह के वश होकर कहीं से कहीं अपनी स्थिति बना डालते हैं। इस आशा ने किस किसको धोखा नहीं दिया अर्थात् आशा के वश होकर दु:खी होना मात्र हाथ रहता है। किसी बाह्य वस्तु से इस आत्मा को लाभ नहीं होता है। अतएव आशा के ऐसे विकट छलपूर्ण स्वरूप को जानकर इससे हटने का हमारा यत्न होना चाहिए।
अथ अष्टादश प्रकरणम्