वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 876
From जैनकोष
न स्याद्विक्षिप्तचित्तानां स्वेष्टसिद्धि: क्वचिन्नृणाम्।
कथं प्रक्षीणविक्षेपा भवंत्याशाग्रहक्षता:।।
आशापिशाचपीडित पुरुषों के स्वेष्टसिद्धि का अभाव- जो आशारूपी पिशाच से पीड़ित हैं वे पुरुष विक्षिप्त चित्त हैं और जिनका चित्त विक्षिप्त है उनको इष्टसिद्धि कहीं नहीं है। इष्टसिद्धि है जगत के किसी पदार्थ को इष्ट न माना जाय और परमइष्ट जो अंत:स्वरूप है उसमें अनुभव जगे वही वास्तविक इष्टसिद्धि है, ऐसी इष्टसिद्धि को वे कायर लोग कैसे प्राप्त कर सकते हैं जो आशारूपी पिशाच से पीड़ित हैं? आशा का परिणाम होने से मन चंचल होता है, और मन की स्थिरता न रहने से परमशरणभूत जो निज अंतस्तत्त्व है उसकी दृष्टि नहीं बनती। अत: सर्व कल्याण चाहने के लिए आशा का अभाव करना एक प्रथम कर्तव्य है और आशा के अभाव के लिए सर्वप्रथम कर्तव्य भेदविज्ञान की भावना है, मैं सबसे निराला ज्ञानमात्र हूँ, मैं अनेक भौतिक पदार्थों का संचय भी कर लूँ तो भी उससे होता क्या है? यह मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, सो प्रत्येक पदार्थ अपने स्वभावमात्र रहा करते हैं। यह मैं अपने स्वभावमात्र ही रहूँगा। यहाँ हूँ तो स्वभावमात्र हूँ और इस भव को छोड़कर कहीं भी जाऊँगा तो वहाँ भी अपने स्वभावमात्र रहूँगा। समस्त विभावों से भिन्न अपने आपको निरखने वाले संत पुरुष आत्मध्यान करते हैं। आत्मध्यान के प्रकरण में पंचपापों के निषेध की बात चलती रहती है। जो पुरुष आत्मध्यान करना चाहता है उसकी चर्या कैसी हो जिससे कि वह आत्मध्यान का पात्र रह सके? उसके वर्णन में 5 महाव्रत बताये गए कि 5 पापों का सर्वथा त्याग होना चाहिए और परिग्रहत्याग महाव्रत में अपनी प्रगति और वृत्ति करने के लिए अपने आपको निष्परिग्रह अनुभव करते रहने के लिए कर्तव्य है कि इस आशा का विनाश करें।