वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 879
From जैनकोष
आचरितानि महद्भिर्यच्च महांतं प्रसाधयंत्यर्थम्।
स्वयमपि महांति यस्मान्महाव्रतानीत्यतस्यानि।।
महाव्रतों का महत्त्व- यह ग्रंथ आत्मध्यान का है। इसमें आत्मध्यान के सब उपायों को बताया जायेगा। चूँकि ध्यान का वर्णन बहुत विस्तार और स्पष्ट रीति से इस ग्रंथ में किया गया है। तो बहुत-बहुत विचार तो इसी में लग रहा है कि आखिर आत्मध्यान का पात्र कौन हो सकता है, अभी आत्मध्यान की बात नहीं आयी है। कुछ समय बाद यह प्रकरण आयेगा। अब तक तो यह बताया जा रहा है कि जिस पुरुष को आत्मध्यान करने की रुचि जगी हो उसे अपना जीवन, अपनी चर्या परिणति कैसी रखना चाहिए और उस पात्रता के वर्णन में मुख्य तीन बातें बताई हैं। प्रथम तो इस जीव को सम्यग्दृष्टि होना चाहिए। यथार्थ श्रद्धान हो। यह आत्मा वास्तविक ज्ञानानंदस्वरूप है और इस ही से विशुद्ध पूर्ण विकास कल्याण है, ऐसी मेरी दृढ़ श्रद्धा होना चाहिए और फिर इस आत्मतत्त्व के बारे में हमारे सम्यग्ज्ञान रहना चाहिए। और, तीसरा बताया सम्यक्चारित्र। हमारी चर्या 5 पापों के त्यागरूप होना चाहिए। तब इस आत्मा में आत्मध्यान करने की पात्रता जगती हैं। हम आचरण तो करते रहे विपरीत, पापों से संबंध रखते हुए और आशा रखें कि हमें आत्मध्यान बने, मोक्षमार्ग हमारा चले तो यह बात कैसे बन सकती है? हमारी चर्या निष्पाप हो तो हम मोक्षमार्ग में आगे बढ़ सकते हैं, जो पुरुष क्रोधी रहता है, परजीवों के विरोध में, विघात में ही जिसका संकल्प बना रहता है उसे निज विशुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान कैसे बनेगा? जो पुरुष असत्य बर्ताव करता है, असत्य संभाषण करता है, आत्मा के प्रतिकूल वचनों में बना रहता है ऐसे परोपकारी परसमय मिथ्यादृष्टि जीव के आत्मध्यान कहाँ से जग सकेगा ! चोरी, कुशील, पापों में जिनकी आसक्ति रहती है उन पुरुषों को आत्मध्यान की बात कहो तो व्यर्थ जैसी है। वह इसका पात्र नहीं है और परिग्रह का जो अपने चित्त में आकर्षण बना रहता है, परिग्रह संचय की कोशिश करते हैं यह भावना भी परिग्रह का संबंध रखते हैं ऐसे पुरुषों को भी आत्मा के ध्यान की पात्रता कहाँ हो सकती है? अतएव इस सत्पुरुष को जो आत्मध्यान का अभिलाषी है, पंचपापों का परित्याग कर देना चाहिए। दो बातें एक साथ कैसे संभव हैं, एक तो लोकेषणा की बात बनी रहे और एक आत्मध्यान की बात जगे इन दो बातों में तो परस्पर विरोधी जानवरों जैसा विरोध है। जैसे सर्प और नेवला, मूसक और बिलाव, ये जन्मजात विरोधी हैं, इनका एक साथ संबंध कैसे बनेगा? इसी तरह लोकेषणा के कार्यों में लोक के भावों का और ज्ञानमात्र आत्मपरिणमन का कैसे सहयोग बन सकता है? पंचपापों का परित्याग करना आत्मध्यानाभिलाषी को अत्यंत आवश्यक है।
महाव्रत नाम की सार्थकता- उन ही 5 महाव्रतों के संबंध में इन छंदों में यह बतला रहे हैं कि उनका नाम महाव्रत क्यों रखा? यद्यपि झूठ, चोरी, कुशील, और परिग्रह इन 5 पापों के सर्वथा त्याग का नाम बताया है, तो इसका नाम महाव्रत क्यों रखा? उसके उत्तर में कह रहे हैं कि इसके तीन कारण हैं- प्रथम तो यह महाव्रत महत्त्व के कारण है। महाव्रत का पालन करने से जीव का महत्त्व बढ़ता है, इसी से सर्वकल्याणार्थी पुरुष इस महाव्रत का आश्रय लेते हैं। यह व्रत स्वयं महान है, पवित्र है, पापों से दूर है। ये पंच महाव्रत अहिंसामहाव्रत, सत्यमहाव्रत, अचौर्यमहाव्रत, ब्रह्मचर्यमहाव्रत और परिग्रहत्यागमहाव्रत ये पंच महाव्रत स्वयं महान हैं। देवतावों ने भी इन महाव्रतों को नमस्कार किया है, इनकी पूजा की है। रत्नत्रय पूजा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की पूजा है ना। तो सम्यक्चारित्र की पूजा तेरह अंगरूप भी है। उन अंगों में प्रथम 5 महाव्रत कहे गए हैं, तो ये महाव्रत स्वयं महान हैं, इस कारण इन्हें महाव्रत कहते हैं और, तीसरा कारण यह है कि ये महाव्रत महान अतींद्रिय सुख और ज्ञान के साधन हैं, अर्थात् महाव्रत के पालन करने वाले साधु संत पुरुष आत्मध्यान में बढ़कर ऐसी निर्विकल्प स्थिति प्राप्त कर लेते हैं कि जिसके प्रसाद से अतींद्रिय सुख और अतींद्रिय ज्ञान उत्पन्न होता है, अर्थात् केवलज्ञान और अनंत आनंद की प्राप्ति होती है। तो ये महाव्रत महान अतींद्रिय सुख और ज्ञान के कारण हैं, इस कारण संतपुरुषों ने इन महाव्रतों को माना है।