वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 880
From जैनकोष
महाव्रतविशुद्धयर्थं भावना: पंचविंशति:।
परमासाद्य निर्वेदपदवीं भव्य भावय।।
महाव्रतसाधना के लिये भावनायें- आचार्य महाराज कहते हैं कि हे भव्य जीव ! पंच महाव्रतों की विशुद्धि के लिए 25 भावनाओं को अंगीकार करो और अपने वैराग्य को उत्तरोत्तर बढ़ावो। भावनाओं में बड़ा बल है, भावना से ही यह संसार बना है और भावना से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। इस जीव को अपने आपके अंतरंग में इस ही ज्ञान की तो भावना करना है कि यह मैं ज्ञानस्वरूप आत्मा जगत के समस्त पदार्थों से और उन पदार्थों के संबंध से उत्पन्न हुए भावों से, कर्मों से भी अत्यंत पृथक् हूँ, स्वतंत्र हूँ, ऐसा पार्थक्य केवल रूप अपने आपकी भावना भर ही तो करना है जिसके प्रसाद से परम निर्वाण की प्राप्ति होती है। धर्म करना है ऐसी अभिलाषा हो तो अंतरंग भावों पर जोर देना चाहिए। विषय कषायों के भाव उत्पन्न न हो यही तो धर्मपालन की स्थिति है। और, चूँकि चिरकाल से यह चित्त विषय साधनों की ओर लगा रहता था तो इसका उपयोग बदलने के लिए शारीरिक शुभ प्रवृत्तियों का एक आश्रय भर लेना है। प्रभुपूजा करें, सत्संग निवास करें, और और भी ज्ञानार्जन आदिक साधन बनायें, ये सब प्रवृत्तियाँ इसलिए हैं कि जो विषय कषायों की वासना संस्कार प्रवृत्तियाँ चली आयी थी उनका मूल से विनाश हो जाय उसके लिए उपयोग बदला है और वह उपयोग बदला है इस ढंग से कि जिसमें इस ज्ञानभावना की पात्रता बनी रहे। तो भावना ही यह पुरुष करता है, भावना से ही इसके भवितव्य का निर्णय है।
पंच महाव्रतों की भावनायें- पंच महाव्रत जो बताये हैं उनमें प्रथम व्रत है अहिंसा महाव्रत। अहिंसा महाव्रत के निर्दोष पालन के लिए हमें इन 5 भावनाओं को धारण करना चाहिए- सत्यव्रत की भावना में बताया है क्रोध का त्याग करना। यह भावना बनी रहना चाहिए कि मेरे क्रोध न बसे, क्योंकि क्रोध में यह जीव असत्य भी बोल देता है। जो बात सही नहीं है केवल दूसरे का अहित करने की वासना जगी है, क्रोध बना है अतएव असत्य भी बोलेगा। तो क्रोधरहित अपनी परिणति बने यह भावना होना चाहिए। लोभवश भी असत्य बोला जाता है। तो इस लोभ का भी त्याग करें उसके सत्यव्रत का धारण कहलाता है। भयशील होकर भी यह पुरुष कुछ से कुछ बोल जाता है। जिसे शुद्ध महाव्रतों की रक्षा करना हो उसे इस भीरत्व का भी त्याग करना होगा। हँसी मजाक अधिक बोलचाल ये भी सत्य महाव्रत के घातक हैं। आगम विरुद्ध कुछ भी बोलना यह भी सत्य महाव्रत का घातक है। ऐसी 5 भावनाएँ रहें तो सत्यमहाव्रत की साधना रहती है।
अचौर्यमहाव्रत में सूने घर रहना, एकांत घर निवास होना, जहाँ कुछ चीज ही न पड़ी हो। कोई भी वहाँ न रहता हो, निर्जन स्थान में मेरा निवास हो ऐसी भावना करना जो किसी के स्वामित्व में नहीं है, छूटा हुआ घर है वहाँ निवास करने की भावना हो जहाँ स्वयं रहते हो वहाँ दूसरे को मैं न रोकूँ, जो चाहे रहे ऐसी बुद्धि बने क्योंकि दूसरे को कोई रोके तो उसमें किसी न किसी प्रकार की चोरी की बात होगी। तो इस चोरी संबंधी बात भी न करेंगे ऐसी भावना हो। एक ऐसी भावना हो कि विधिवत आगम के अनुकूल मेरे आहार की शुद्धि रहे, साधर्मीजनों से विवाद न करें क्योंकि थोड़ा विवाद हो और वह विवाद बढ़ चला तो उस विवाद में फिर यह भावना बनने लगती कि मैं इसको कैसे नुकसान पहुँचा दूँ? और, किसी नुकसान पहुँचाने की भावना से चोरी करने तक की नौबत आ सकती है। ब्रह्मचर्यमहाव्रत की साधना के लिए ये 5 भावनाएँ होनी चाहिए- स्त्री में राग पहुँचे ऐसी कहानी कथनों का परित्याग होना, उनके मनोहर अंगों को न निरखना, पूर्व में भोगे हुए भोगों का स्मरण न करना, स्वादिष्ट रसीले उत्तेजक, बलबर्द्धक पदार्थ न खाना, अपने शरीर का संस्कार न करना, ऐसी भावना बनी रहे तो इससे ब्रह्मचर्यमहाव्रत की भली-भाँति साधना होती है। परिग्रहत्यागमहाव्रत की साधना के लिए यह संकल्प बना रहे कि इष्ट विषयों को मैं प्रीतिपूर्वक न देखूँ, इष्ट विषयों में राग न करूँ और जो अनिष्ट विषय हों उनमें मैं द्वेष न करूँ ऐसी भावना रहे तो परिग्रहत्याग महाव्रत की साधना बनती है।
भावनाओं का प्रभाव- भावना से परिणामों में निर्मलता जगती है, और जो व्रत धारण किया है उस व्रत में कदाचित् भी दोष न आये, इसके लिए हमें उसके साधक की भी भावना करना है और उससे बढ़कर भावों की भी भावना करना है। इन भावनाओं को साधुजन करते हैं और श्रावकजन भी करते हैं। भावना की ही तो बात है। वैसे तो वह श्रावक श्रावक ही नहीं है जो अपने आपमें मुनि होने की वांछा न रखता हो। अपने अंतरंग में जब श्रद्धा में यह बात आये कि अत्यंत नि:संगता से ही हमारा उद्धार होगा तो क्या उसे नि:संग होने की चाह नहीं है? भले ही चाहे इस भव में निष्परिग्रह न बन सके, उमंग तो सत्य धर्मधारण करने की होनी ही चाहिए। तो जो नि:संग धर्मधारण करने के उद्यमी हैं वे पुरुष धर्म को भली-भाँति पाल लेते हैं। ऐसे ही इन पंच महाव्रतों की इस भावनाओं के भाते रहने से ये महाव्रत निर्दोष रीति से विशुद्ध पालने में आते हैं। और जहाँ ऐसी निष्पाप अपनी जीवन वृत्ति रहती हो वहाँ आत्मा को ध्यान में लेते रहने की पात्रता बनी रहती है। सब जगह ढूँढ़ लो, अपने मन के द्वारा सब पदार्थों का संसर्ग बनाकर देख लो आखिर सब छलपूर्ण घटनाएँ मिलेंगी। आत्मा को शरणभूत वास्तविक आनंदप्रद कोई साधन है तो वह है केवल अपने आपके सहजस्वरूप का ध्यान। मैं सबसे न्यारा ज्ञानमात्र हूँ। इस भावना से वे समस्त गुण प्रकट होते हैं जिन गुणों में आनंद बढ़ा करता है।