वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 882
From जैनकोष
वाक्कायचित्तजानेकसावद्यप्रतिषेधकं।
त्रियोगरोधनं वा स्याद्यत्तद्गुप्तित्रयं मतम्।।
साधुत्वसाधना में गुप्तियों का स्थान- मन, वचन, काय से उत्पन्न अनेक पापोंसहित जो परिणतियां हैं उन परिणतियों का जो प्रतिषेध करें अथवा मन, वचन, काय को रोके सो वे तीन गुप्तियां कहलाती हैं। गुप्ति का अर्थ छुपाना, दबाना यह अर्थ करते हैं, पर गुपू रक्षणे धातु से गुपू शब्द बना है जिसका अर्थ है रक्षा करना। जैसे कि रक्षा छुपने से ही होती है अतएव गुप्त शब्द का रक्षा करने में तो व्यवहार नहीं रहा और छुपाने में व्यवहार हो चला। कोई चीज यदि स्वरक्षित रखाई जाय तो किन उपायों से रखते हैं- संदूक में रख दें, पेटी में बंद कर दें तो चीज की रक्षा होती है, अर्थात् अन्य कोई विरोधी पुरुष इसे न उठा ले जाय अथवा न नष्ट कर दे ऐसे उपाय का नाम है गुप्त करना। मन, वचन, काय को गुप्त करना अर्थात् इसका निरोध करके जिससे कि आत्मा स्वरक्षित रह सके उन सब प्रवर्तनों का नाम है तीन गुप्तियां। इन ही पाँच समितियों का और आगे चलकर तीन गुप्तियों का वर्णन किया जायगा। जिनमें इस समय ईर्यासमिति का वर्णन कर रहे हैं।