वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 881
From जैनकोष
ईर्या भाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गसंज्ञका:।
सद्भि: समितय: पंच निर्दिष्टा: संयतात्मभि:।।
साधुत्वसाधना में पंच समितियों का स्थान- लोक में अपने आत्मा के सहज विशुद्ध स्वरूप का ध्यान करना ही शरण है। उस आत्मध्यान की पात्रता के लिए मनुष्य को किस आचरण से रहना चाहिए, उसका यह वर्णन चल रहा है। वही मनुष्य आत्मध्यान का पात्र होता है जो अपनी जीवनचर्या ऐसी विशुद्ध रखता हो कि जिनमें अन्य तत्त्वों में इसकी वासना न रहे। वह चर्या है उत्कृष्ट 5 महाव्रत, 5 समिति और 3 गुप्तिरूप। साधु संतजन जिन्हें न किसी जीव को सताने से प्रयोजन है, न कहीं असत्य संभाषण से प्रयोजन है और न खाने पीने की ऐसी आसक्ति है कि जैसा चाहे विधि अविधि न्याय अन्याय का भी भोजन कर सकें और न ऐसी असावधानी है जिससे कि उनके व्यवहार में किसी वस्तु के धरने उठाने में कभी अचौर्यव्रत का भंग हो और वे परम अंतस्तत्त्व ब्रह्म में आचरण करने का निरंतर ध्यान रखते हैं। परिग्रह का कुछ प्रयोजन ही नहीं है, ऐसी 5 महाव्रतों के पालनहारे योगीश्वरों की यदि परिणति बने तो किस प्रकार परिणति बने, उसका वर्णन 5 समितियों के रूप में कहा जा रहा है। समिति शब्द का अर्थ है जो सम कहो भली प्रकार और इति कहो गमन कराना। वे परिणति जो अपने आत्मतत्त्व की ओर गमन करायें उनका नाम है समिति। वे समितियां 5 हैं- ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और उत्सर्ग समिति। इन 5 समितियों के साथ 3 गुप्ति और जोड़ने से यह 8 प्रवचनमालिका कहलाने लगता है। इसका वर्णन आगे आयगा। तीन गुप्तियां क्या हैं, इसका वर्णन अब अगले छंद में कर रहे हैं।