वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 898
From जैनकोष
स्थिरीकृतशरीरस्य पर्यंकसंस्थितस्य वा।
परीषहप्रपातेऽपि कायगुप्तिर्मता मुने:।।
साधुत्वसाधना में कायगुप्ति का स्थान- काय गुप्ति है शरीर को स्थिर रखना। जिन्होंने शरीर को स्थिर किया है, जिन पर कोई परिग्रह आ जाय तो भी अपने आसन से न डिगे ऐसे मुनियों के कायगुप्ति होती है। काय को वश करना सो कायगुप्ति है। यहाँ तक कि एक बार एक मुनि श्मशानभूमि में ध्यानमग्न था और लेटे हुए ही ध्यान कर रहा था, निश्चल दशा में था। वहाँ कोई व्यक्ति अपना मंत्र सिद्ध करने की इच्छा से आया तो उसका खोपड़ियों पर कुछ भोजन बनाकर खाने का विधान था। सो एक आदमी की खोपड़ी उस मुनि की खोपड़ी के पास रखा और दोनों खोपड़ियों के बीच के स्थान को चूल्हा जैसा बनाकर उसमें आग जलाया और उसमें खिचड़ी पकाना शुरू किया। कुछ देर तक तो वह मुनि उस परीषह को सहता रहा पर, अंत में जब न सहा गया तो उस मुनि का मस्तक हिल गया फिर तो सारा खेल ही समाप्त हो गया, वह मुनि उठकर बैठ गया और वह मंत्र सिद्ध करने वाला पुरुष भग गया। तो वह मुनि भी थे उस चेलना के पड़गाहने के समय जबकि चेलना ने कहा था हे त्रिगुप्तिधारी स्वामिन् ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ। तो उन मुनि ने बताया था कि मेरे कायगुप्ति न थी जिससे मैं पड़गाहने में न गया था। तो ऐसी ही स्थितियाँ आ जायें कि लोग मुर्दा की खोपड़ी समझकर उस पर आग जलायें या घसीटे तब भी शरीर वश में रहे, शरीर में तरंग न उठे सो यह कायगुप्ति है। मन को वश करना सो मनोगुप्ति है, वचन को वश करना सो वचनगुप्ति है, काय को वश करना सो कायगुप्ति है। यों 5 समिति और तीन गुप्ति इन 8 नियमों को अष्टप्रवचनमालिका कहते हैं। कोई साध अधिक पढ़ा लिखा भी नहीं है, कोई भेदभाव भी विशेष नहीं जानता, लेकिन पाँच समिति 3 गुप्ति यदि भली प्रकार निभ रही है, इनका ज्ञान है तो इतने ही ध्यान के द्वारा वह साधु अपने मोक्षमार्ग को बना लेता है और निर्वाण प्राप्त कर लेता है। यों सम्यक्चारित्र में तेरह प्रकार का चारित्र बताया है, ऐसे चारित्रधारी ऋषि संत आत्मध्यान के पात्र होते हैं, जिस आत्मध्यान के प्रसाद से निर्वाण प्राप्त होता है।