वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 905
From जैनकोष
दृग्बोधचरणान्याहु: स्वमेवाध्यात्मवेदिन:।
यतस्तन्मय एवासौ शरीरी वस्तुत: स्थित:।।
आत्मा की दर्शनज्ञानचारित्रात्मकता- जो अध्यात्मतत्त्व के जानने वाले हैं वे सत्य ज्ञान और चारित्र को एक ही आत्मरूप देखते हैं। जैसे यह दीपक की ज्योति जल रही है तो इसमें कई तत्त्व नजर आ रहे हैं, यह गर्म है, यह प्रकाशरूप है, यह दाहकतारूप है। पर ये तीनों क्या इस दीपक में अलग-अलग पड़े हैं? ये तो एक ही रूप हैं। तो जैसे व्यवहार में भेद करके हम इसे तीन रूपों में निहारते हैं ऐसे ही यह आत्मा तो जिस रूप है उस ही रूप है। पर इसे पहिचानने के लिए हम कहते हैं कि इसमें श्रद्धान है, ज्ञान है और चारित्र है, पर श्रद्धान, ज्ञान और चारित्र ये अलग-अलग वस्तु नहीं हैं, क्योंकि परमार्थदृष्टि से देखा जाय तो यह आत्मा उन तीनों में तन्मय है, न श्रद्धान से अलग, न ज्ञान से अलग, न चारित्र से अलग। तीनों मय यह ही मैं आत्मा हूँ, यद्यपि भाव और भावना के भेद से भेद है फिर भी वास्तव में एक है। में एक आत्मा हूँ और मेरा भाव है श्रद्धा करना, आचरण करना, ये तीनों मुझसे अलग कुछ नहीं है। मेरे में तो एक परिणति होती रहती है, उस एक परिणति को ही समझाने के लिए हम तीन रूप में बताते हैं। मैं क्या करता हूँ? किसी न किसी रूप में विश्वास बनाये रहता हूँ। मैं क्या करता हूँ? अपना और परपदार्थ का ज्ञान किया करता हूँ, और, क्या किया करता हूँ? किसी न किसी तत्त्व में चाहे पर में, चाहे स्व में अपने को रमाये रहता हूँ, लगाये रहता हूँ, ऐसी हममें तीन कला हैं। जब ये तीन तत्त्व मेरे आत्मा के लिए ही लग जायें अर्थात् मैं अपने स्वरूप का श्रद्धान करूँ, अपने ही स्वरूप का ज्ञान करूँ और अपने ही स्वरूप में रम जाऊँ, जब मैं ऐसा यत्न करूँगा तो एक निर्विकल्प दशा बनेगी, उससे कर्म कटेंगे, मुक्ति प्राप्त होगी। तो सर्वसंकटों से छूटने का उपाय है सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र। इसके ही प्रताप से आत्मा का वह उत्कृष्ट ध्यान बनता है जिस ध्यान से मुक्ति की प्राप्ति होती है। ऐसा जानकर एक निर्णयपूर्वक हमें यह उद्यम करना चाहिए कि हमारा श्रद्धान, ज्ञान और आचरण सही बने। मेरा चारित्र रहेगा तो मेरा सब कुछ है, मैं अपने स्वरूप से गिर जाऊँगा तो मेरे लिए जगत में कुछ भी हित रूप नहीं है। ऐसा अनुभव करने के लिए और कुछ विशेष साधना न बने तो थोड़ा बहुत ज्ञान तो यह है ही कि मैं सबसे न्यारा हूँ, तो ऐसा ही ज्ञान करके परपदार्थों का उपयोग छोड़ दें और अपने में विश्राम पायें तो यों स्वयं अपने में अपनी ज्योति की झलक बन जायगी।