वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 907
From जैनकोष
जानाति य: स्वयं स्वस्मिन्स्वस्वरूपं गतभ्रम:।
तदेव तस्य विज्ञानं तद्वृत्तं तच्च दर्शनम्।।
वास्तविक दर्शन ज्ञान चारित्र का अधिकारी- जो पुरुष अपने में अपने ही से अपने निजरूप को भ्रम छोड़कर जानता है वही उसका विशिष्ट ज्ञान है, वही सम्यक्चारित्र है और वही सम्यग्दर्शन है। जैसे छहढालो में भी कहा है- परद्रव्यनतै भिन्न आपमें रुचि सम्यक्त्व भलो है। परद्रव्यों से भिन्न निज आत्मतत्त्व में रुचि जगना सो सम्यग्दर्शन है और इस आत्मस्वरूप का ज्ञान होना सो सम्यग्ज्ञान है और इस आत्मस्वरूप में ही स्थिर होना सो सम्यक्चारित्र है। तीनों कुछ जुदे-जुदे नहीं हैं, किंतु जब हम व्यवहार के उपाय से जानना चाहते हैं तो यह भेद उत्पन्न होता है। इन तीन को हम अनेक शक्लों में निरख सकते हैं इस रत्नत्रय को हम उत्पादव्ययध्रौव्य के रूप में भी निरख सकते हैं। जैसे कि पुरुषार्थसिद्धि में कहा है कि विपरीत अभिप्राय को दूर करके अपने आत्मतत्त्व को भली प्रकार निश्चय करके आत्मा में स्थिर हो जाने का नाम है पुरुषार्थ की सिद्धि का उपाय। इसमें सम्यग्दर्शन को व्ययरूप में देखा है, सम्यग्ज्ञान को उत्पादन में देखा और सम्यक्चारित्र को ध्रौव्यरूप में देखा। विपरीत अभिप्राय के विनाश का नाम है सम्यग्दर्शन क्योंकि सम्यक्त्व के लक्षण में हम कुछ भी शब्द कहें तो वे उतने निर्दोष न बन पायेंगे कि जिससे सम्यग्दर्शन का ही बोध हो, और कुछ न आये। जैसे आत्मा का अनुभव करना लो यह तो ज्ञान बन गया। जितने भी अनुभवन हैं वे ज्ञान की पर्याय हैं। आत्मा की रुचि करना लो यह चारित्र बन गया, अनुराग करना, रुचि करना यह चारित्र का अंग है। आत्मा की प्रतीति, प्रत्यय, अवबोध ये सब एकार्थक है। तब विपरीत अभिप्राय के विनाश का नाम सम्यग्दर्शन है। इस लक्षण में अव्याप्ति अतिव्याप्ति जैसे दोष नहीं आ पाते। यद्यपि सम्यग्दर्शन के लक्षण रुचि, प्रतीति, अनुभूति इन शब्दों से भी कहे गए हैं और चूंकि सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र एक आत्मा के ही परिणमन हैं अत: सूक्ष्मतया अव्याप्ति अतिव्याप्ति पर दृष्टि न देना चाहिए। फिर भी आचार्य अमृतचंद्र सूरि एक सूझ की बात कह रहे हैं कि विपरीत अभिप्राय को निर्जन कर देने का नाम है सम्यग्दर्शन। अब विपरीत अभिप्रायरूप होने से क्या बात प्रकट होती है, उसको सम्यक्त्व शब्द से कह सकेंगे। सम्यक्त्व मायने स्वच्छता सम्यक् स्वच्छ ये एकार्थक शब्द हैं। सम्यग्दर्शन में क्या रहता है? एक स्वच्छ परिणति रहती है। सम्यग्ज्ञान आत्मतत्त्व का भली प्रकार निर्णय करके यह उत्पादरूप है और फिर उस ही आत्मतत्त्व में स्थिर हो जाना यही सम्यक्चारित्र है। तो ये तीनों के तीनों आत्मस्वरूप हैं। जो पुरुष अपने आपको अपने ही द्वारा भ्रमरहित होकर अपने में निरखता है, जानता है, रमता है वही रत्नत्रयमय है।