वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 91
From जैनकोष
फेनपुंजेऽथवा रंभास्तंभे सार: प्रतीयते।
शरीरे न मनुष्याणां दुर्बुद्धे विद्धि वस्तुत:।।91।।
शरीर में सार का नितांत अभाव― हे अज्ञानी पुरुष ! अज्ञान में ही दौड़ मत लगा। कुछ थम और कुछ परख। देख फेन के पुंज को नि:सार बताया गया है। उसमें भी सार प्रतीत होता है, किंतु देह में कुछ सार नहीं है। तालाब के किनारे पर पानी के फेन का जो ढेर इकट्ठा हो जाता है वह पुंज नि:सार माना जाता है। यों समझ लो― जैसे जब दूध को बहुत उछालते हैं एक गिलास से दूसरे गिलास में तो आधा गिलास ऊपर फेन का उठ जाता है, उसको जब खायें पियें तो मुँह में क्या रहता है, फिर भी वह दूध फेन हैं, खाने से कुछ तो उसका स्वाद आयेगा लेकिन पानी का फेन जो तालाब और नदी के किनारे पर इकट्ठा हो जाता है उस फेनपुंज में क्या सार बात है? कुछ नहीं। कदाचित् फेनपुंज में भी कुछ सार निकल सकता है, किंतु इस शरीर में कुछ भी सार नहीं है। फेनपुंज तो बाजार में बिकता भी है, वजन में बड़ा हल्का होता है, वह औषधियों के काम आता है, तो फेन में चाहे कुछ सार मिल जाय, लेकिन मनुष्य के शरीर में तो कहीं भी कुछ भी सार नहीं है। चाम, पसीना, खून, हड्डी और ऐसा बन गया ढाँचा जिसमें ज्ञानी पुरुष तो मुग्ध नहीं होते, पर अज्ञानी को ऐसा लगता कि यह बहुत सारभूत और सुंदर वस्तु है। कदाचित् सोने की भी कोई मूर्ति बना दी जाय मनुष्य के बराबर, किंतु इस विषयव्यामुग्ध प्राणी को इस स्वर्णमूर्ति से अधिक सारवान सुंदर दिखाई देने वाली चीज यह देह प्रतीत होगी कैसा व्यामोह है?
रंभास्तंभवत् शरीर की असारता― लोग कहते हैं, कुछ देखा भी जाता है कि केले के पेड़ में सार कुछ नहीं है, पत्तों-पत्तों का जो समूह है वही केले का तना है। उन पत्तों को छीलते जाइये तो वहाँ अंत में कुछ न मिलेगा। अथवा उस केले के थंभ में भी कुछ पतला सा डंडा मिल जाय अथवा वहाँ भी कुछ सार नजर आये, सूख जाय, राख बन जाय, पापड़ों के काम आये उसमें भी कुछ बात बनेगी, कुछ सार की बात निकल सकती है जो कि नि:सार है, पत्तों को अलग करते जाइये फिर वहाँ रहता कुछ नहीं है। ऐसे असार केले के थंभ में भी कुछ सारभूत बात प्रतीत होगी, पर इस मनुष्य शरीर में तो कुछ भी सारभूत बात नहीं है। लेकिन यह व्यामोही जीव इस शरीर को ही सर्वस्व सारभूत मानता है। न जीते हुए में सार है और मरने के बाद तो इसमें कुछ सार ही नहीं नजर आता। सारा खून पानी हो जाता है। यह शरीर भस्म कर दिया जाता है, वहाँ फिर शेष कुछ नहीं रहता, ऐसा है यह नि:सार शरीर।
शरीर में भारपने, असारपने व रम्यपने की प्रतीति― करीब-करीब सभी लोग अपने-अपने शरीर को कुछ भार जैसा प्रतीत करते होंगे, लेकिन व्यामोह इतना है कि इसे परशरीर सार और रम्य जंचने लगता है। यह मोही प्राणी इस शरीर को वृथा ही सारभूत मानता है। शिक्षा यहाँ यह दी गयी कि यह देह रमण करने के योग्य नहीं है। हे आत्मन् ! तू इस शरीर से अत्यंत न्यारा अमूर्त ज्ञान और आनंद का पुंज अपने स्वरूप में अवस्थित सनातन तू अछेद्य, अभेद्य, अजेय है, अविनाशी है, तू अपने इस स्वरूप की दृष्टि कर जिसकी दृष्टि के प्रताप से तू अनाकूल रहेगा सदा के लिए पर उपाधियों का विछोह होगा और तू अकेले का ही अकेला रहकर अनंत आनंद का भोक्ता होगा। जो जीव केवल नहीं हैं, अकेवल हैं, परपदार्थों के संबंध में बँधे हैं वे ही जीव दु:खी हुआ करते हैं। केवल तो सिद्ध भगवान हैं, अब काहे का दु:ख? हे मुमुक्षु आत्मन् ! तू इस शरीर में मुग्ध मत हो। शरीर से न्यारा केवल तेरा जो निजस्वरूप है उस स्वरूप में ही रत रह, संतुष्ट रह और अपना सहज वास्तविक जो आनंद है उसका भोगने वाला रह। तेरी निधि तो अमूल्य है, तू अपनी निधि का सदुपयोग कर। इस प्रकार इन विषयों को नि:सार और क्षणिक बताकर इस जीव को सारभूत अविनाशी निजस्वरूप की दृष्टि में लगाया गया है।