वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 917
From जैनकोष
या निशा सर्वभूतेषु तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:।।
अज्ञानी और मुनि की निशा की विभिन्नता- सर्वप्राणियों में जो रात्रि मानी जाती है उसमें तो संयमी पुरुष जागता है और जिसमें समस्त प्राणी जागते रहते हैं वह मुनि के लिए निशा है, अंधकार है, रात्रि है। प्राणी किसमें सोते रहते हैं? प्राणी किसमें रात्रि मानते हैं? अपने स्वरूप का उन्हें प्रतिभास नहीं है इस कारण उनको यह अज्ञान बना रहता है, यही रात्रि है अर्थात् उनके लिए आत्मस्वरूप अंधेरे में पड़ा हुआ है। इसमें संयमी मुनि जागते रहते हैं। सच्चा शरण आत्मा को अपने आत्मस्वरूप का मिलता है, और वह आत्मा पवित्र है, महान है, सुख का पात्र है, सच्चा है जिसे अपने आत्मस्वरूप की धुन है और अपना यथार्थस्वरूप समझता और उसके ही निकट बसे रहने का यत्न करता है। तो जो तत्त्व मोही जीवों के लिए रात्रि की तरह है उसमें संयमी मुनि जागृत रहते हैं, और जिसमें संसार के प्राणी जागृत होते हैं वह मुनि के लिए निशा की तरह है। जगत के प्राणी किसमें जागते है? अज्ञान में जागते हैं। अज्ञान मुनि के लिए रात्रि है अर्थात् मुनियों के अज्ञान होता ही नहीं है। धन कन कंचन राजसुख ये सब लौकिक वैभव हैं, ये सब सुलभ हैं अर्थात् उनका कुछ महत्त्व नहीं है, लेकिन अपने आपके यथार्थ स्वरूप का बोध हो जाना यह बड़े महत्त्व की चीज है।
बड़े बड़े अधिकारी भी हों, राजा महाराजा भी हों, बड़े ऊँचे नेता हों, करोड़ों का धन हो, सब तरह से लोकवैभव में बढ़े चढ़े हों और एक अपने आपके आत्मस्वरूप का परिचय न हो तब सोच लीजिए कि उनकी दृष्टि किस तरह रहा करती होगी? कुछ लौकिक वैभव पाकर थोड़ा मौज भी मान लिया उसमें भी उन्हें क्षोभ लगा रहता है, शांति नहीं मिलती। शांति का जो स्थान है सहज ज्ञायकस्वरूप उसका उन्हें परिचय ही नहीं है। शांति कहाँ से मिले? जिसे लोग (वैभववान) शांति समझते हैं वह शांति नहीं है, किंतु एक काल्पनिक मौज है अथवा यों कहो कि बड़ा क्लेश नहीं रहा ऐसी स्थिति पायी तो उसे वे शांति समझ लेते हैं। जैसे किसी को 100 डिग्री बुखार है उतरकर 98 डिग्री रह गया तो जब कोई पूछता है कि कहो भाई अब तबीयत कैसी है? तो वह कहता है कि ठीक है। अरे कहाँ ठीक है, अभी तो दो डिग्री बुखार है। लेकिन बहुत बड़ा बुखार था अब कुछ कम हो गया तो उसको अच्छा मानते हैं, उसमें राजी होते रहते हैं, ऐसे ही जगत में अनेक कष्ट हैं, वे कष्ट कुछ कम हो जायें तो यह जीव राजी होता है, अपने को सुखी मानता है, अब मुझे शांति मिली है ऐसा समझता है। अरे शांति कहाँ मिली, उसमें भी परपदार्थों की कल्पनाएँ हैं तो क्षोभ वहाँ भी पड़ा हुआ है और थोड़ी देर बाद शांति सब गायब हो जाती है, मानो वह शांति कुछ थी ही नहीं, फिर एकदम आकुलित हो जाते हैं।
आत्मस्वरूप के परिचय बिना शांति की असंभवता- इस आत्मस्वरूप का परिचय मिले बिना शांति हो ही नहीं सकती है। तो सर्वप्राणी चाहे वे बड़े पुण्यवान हों, बड़ा बड़ा वैभव भी हो लेकिन आत्मस्वरूप का परिचय नहीं है, इस ओर से बेहोश हो रहे हैं तो उनका जीवन कोई जीवन नहीं है। और एक संयमी मुनि जो अपने निकट निरंतर रहा करते हैं वे निकट काल में ही कर्मों का विनाश करके परमात्मस्वरूप पा लेंगे। सबसे बड़ा काम है यह कि अपना ज्ञान अपने ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व के निकट बना रहे। कितनी पवित्र स्थिति है यह, और सत्य आनंद ही यहाँ से झरता है। इतनी बात यदि कोई कर सकेगा तो समझ लीजिये कि जीवन सफल हो गया। अनादिकाल से जो रुलते चले आ रहे थे, जन्म मरण करते चले आ रहे थे और इस शरीर संबंध के कारण अनेक प्रकार के कष्ट सहते रहते थे उन सबका विनाश हो सकता है तो एक तत्त्वज्ञान के उपाय से हो सकता है। वैभव का क्या, आज है कल रहे अथवा न रहे, जितने समय साथ है उतने समय भी उस वैभव के कारण शांति कहाँ मिलती है? सभी की स्थितियाँ देख लो जिसे जो कुछ मिला है वह उसे न कुछ समझता है, उससे अधिक की चाह करता है, तो मिले हुए का भी सुख उसे नहीं मिलता है। सभी धनिकों की ओर देख लो, सबकी यही स्थिति है, सुख से खा नहीं सकते, सुख से रह नहीं सकते, सत्संग में, धर्मध्यान में, ज्ञानार्जन में समय नहीं दे सकते वह जिंदगी क्या जिंदगी है? जिसका धर्म में और ज्ञानार्जन में समय न लगे, रुचि न जगे, प्रयत्न न बने तो वह जीवन क्या जीवन है? यों तो सभी की जिंदगी गुजरती है। एक ने मान लो कुछ लौकिक जनों में अपना प्रभाव डालते हुए जिंदगी गुजारा तो भी उससे क्या होगा। यह तो संसार मायारूप है, किसे क्या दिखाना है। क्या कोई यहाँ मेरा प्रभु है जिसे कि यहाँ दिखा दूँ कि मैं कितना महान हूँ, कितना सुंदर हूँ, कैसी कला वाला हूँ, किसे दिखायें। और, जितना ज्ञान की ओर रहे, यहाँ आत्मा का रमण बना रहे तो यही है आंतरिक सच्चा तपश्चरण। इसके प्रभाव से इस लोक में भी सुख शांति के साधन मिलते रहेंगे। मोही पुरुषों में और ज्ञानी साधु संतजनों में एक बहुत बड़ा अंतर है। एक का मुख है वैभव की ओर और एक का मुख है आत्मतत्त्व की ओर। यों ही समझ लीजिए कि दोनों के मुख बिल्कुल विपरीत दिशा में हैं। जो पुरुष आत्मतत्त्व के निकट है, रत्नत्रय की साधना में है वे पुरुष तो आत्मध्यान प्राप्त कर लेंगे। और संसार के संकटों से सदा के लिए छूट जायेंगे। और, जो इन विषयों के निकट है उनका उपयोग गंदा रहेगा। जिसके कारण उन्हें इस संसार में जन्म मरण करते रहना पड़ेगा। तो विवेक इसमें है कि हम अपनी ऐसी सद्बुद्धि बनायें कि हमारी विषयकषायों में आसक्ति प्रवृत्ति न हो और मैं अधिकाधिक अपने ज्ञानस्वरूप अंतस्तत्त्व की ओर रहा करूँ, ऐसी भावना और कोशिश होना चाहिए।