वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 916
From जैनकोष
यस्यां निशि जगत्सुप्तं तस्यां जागर्ति संयमी।
निष्पन्नं कल्पनातीतं स वेत्तयात्मानमात्मनि।।
रत्नत्रयसंपन्नता से ही आत्मा का वास्तविक जागरण- जिस रात्रि में सारा संसार सोता है, मनुष्यजन सोते हैं, उसमें संयमी मुनि जागते हैं और अपने आत्मा में ही अपने को निष्पन्न स्वयं सिद्ध कल्पनारहित जानते हैं। यहाँ रात्रि से मतलब रात से नहीं है। अज्ञान का नाम रात्रि है और संयम का नाम जागरण है। मोही जन अज्ञानरूपी निशा में सोते रहते हैं और संयमी जन ज्ञानपूर्वक संयमसहित अपने आचरण में सावधान रहते हैं। जो रत्नत्रय में सावधान हो वह पुरुष तो जागता समझिये और जो रत्नत्रय से विमुख है, मिथ्यात्व, अज्ञान और मिथ्याचरण में रत है वह मनुष्य सोया हुआ समझिये। जैसे सोया हुआ पुरुष बेहोश रहता है इसी प्रकार उस मोह में सोया हुआ पुरुष बेहोश रहता है। अपना कुछ पता ही नहीं है। यदि आत्मपरिचय हो तो यह कहीं भी न असहाय है, न आकुलित है, झट अपने आपके परमात्मस्वरूप के निकट पहुँचे और वहाँ आनंद का अनुभव करे। आकुलताएँ सब दूर हो जाती हैं। अपना जो वास्तविक सहाय है वह मिल जाता है। लोक में तो बाहर कोई सहाय भी बने और निश्चल भी सहाय बने तब भी वह परमार्थ से सहाय नहीं है, उसका यह सहाय होना एक विनश्वर है, कुछ समय के लिए है। सदा तो संयोग होता ही नहीं है, पर अपने आपके प्रभुस्वरूप के निकट पहुँचे यही है वास्तविक सहाय होना। जो मुनि अपने आत्मा का यथार्थ श्रद्धान रखता है उस ही आत्मा की जानकारी बनाये रखता है, उस ही आत्मतत्त्व में लीन रहा करता है वह मुनि निराकुल है, प्रभुवत् है, जिनेश्वर का लघुनंदन है। ऐसा ही पुरुष आत्मा का ध्यान करता है जिसके प्रसाद से परमनिर्वाण की प्राप्ति होती है।