वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 922
From जैनकोष
संयमोत्तमपीयूषं सर्वाभिमतसिद्धिदम्।
कषायविषसेकोऽयं नि:सारीकुरुते क्षणात्।।922।।
कषायविषसिंचन से सर्वाभिमतसिद्धिप्रद संयमोत्तमपीयूष का नि:सारीकरण― कषायरूपी विष का सिंचन संयमरूपी अमृत को भी क्षणमात्र में नि:सार कर देता है। जैसे अमृत का भरा हुआ घड़ा है और उसमें थोड़ा सा विष सींच दे तो सारा अमृत खराब हो जाता है ऐसे ही बहुत तपश्चरण है, संयम है, ऐसे अमृत के पुंज बन रहे हैं साधु-संत जन, किंतु कषायरूपी विष का सिंचन हो जाय अर्थात् क्रोध या अन्य कषाय प्रकट हो जाय तो वह अमृत जो मनोवांछित सिद्धि को देने वाला है तत्क्षण नि:सार हो जाता है। जैसे कोई चींटी भींत पर चढ़ती है, बहुत ऊँचे तक भी चढ़ गयी और वहाँ से गिर जाय तो उसकी सारी चढ़ाई समाप्ति हो जाती है ऐसे ही बड़े संयम शांति से अपने आत्मा की उन्नति की, किंतु कभी तीव्र क्रोध आ जाय तो वह उन्नति खराब हो जाती है। भले ही फिर उस क्रोध को, उसके संस्कार को दूर करके शीघ्र ही उस परिस्थिति को प्राप्त कर ले, क्योंकि पहिले संयम का अच्छा अभ्यास था, ठीक ही है, मगर तत्क्षण की बात देखिये जब क्रोध आता हो तो यह सब संयमरूपी अमृत नि:सार हो जाता है।