वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 935
From जैनकोष
आकृष्टोऽहं हतो नैव हतो वा न द्विधाकृत:।
मारितो न हतो धर्मो मदीयोऽनेन बंधुना।।935।।
निंदक के प्रति अनपकारिता की भावना― कोई पुरुष अपने को दुर्वचन कह रहा हे तो उस समय ज्ञानी पुरुष ऐसा विचार करते हैं कि इसने दुर्वचन ही तो कहा, मुझे पीटा तो नहीं। मेरा घात तो नहीं किया। और, कदाचित् वह मारे लाठी वगैरह से तो उसने केवल लाठी ही तो मारी, मुझे काटकर मेरे खंड तो नहीं किये। और, कदाचित कोर्इ काटने ही लगे तो मुनि महाराज विचारते हैं कि यह मेरे शरीर के खंड ही तो कर रहा है, मेरे धर्म को तो नष्ट नहीं कर रहा। मेरा धर्म तो सदा मेरे ही साथ रहेगा। अथवा वह ऐसा विचार करता है कि यह मेरा बड़ा हितैषी है, क्योंकि मैं चैतन्यस्वरूप शुद्ध आत्मा इस शरीररूपी कारागार में कैद हूँ और यह शरीर को तोड़कर मुझे कैद से छुटा रहा है। अत: यह तो मेरा उपकारी है। देखिये यह बात केवल कहने भर की नहीं है, किंतु जिसे अपने आत्मस्वभाव से प्रीति जगी है और एक विशुद्ध आत्म कल्याण की वांछा है उसका ऐसा भाव होता ही है। दोषवादी पर अथवा अपने पर उपद्रव करने वाले पुरुष पर क्रोध न आये ऐसी महिमा ज्ञानी संतों के होती है। और, यह विचार अपने आपको शांति में ले जाने वाला है। यह तो मुनि साधुसंत है, इसमें तो दूसरी बात कुछ हो ही नहीं सकती कि कोई मारे, गाली दे तो उस पर आक्रमण करने लगे। मुनि के तो चारों प्रकार की हिंसाओं का त्याग है। तो ऐसी स्थिति में यदि वह मुनि मन ही मन जलता रहे तो अपना बिगाड़ करता है। तो ऐसा तत्त्वज्ञान जगाये कि मन-मन में भी क्रोधभाव न जगे और उसी सिलसिले में यह विचार है, किसी ने गाली दे दी, चोर है, बदमाश है आदिक अनेक प्रकार के ऐब लगाये, बहुत से लोग होते हैं जो कह देते हैं कि यह तो निर्लज्ज है, ऐसे वचन भी यदि कोई मुनि को बोल दे तो वह मुनि विचारता है कि आखिर इसने वचन ही तो बोला, इसने मेरे ऊपर लाठी का प्रहार तो नहीं किया। इतनी बात तो गृहस्थ भी विचार सकते हैं। इतनी बात गृहस्थ भी कर लेते हैं। और, कोई परिस्थिति ऐसी हो कि उसका जवाब देना पड़े, किसी भी एक ढंग से कोई परिस्थिति आ जाय तो गृहस्थ इस बंधन में नहीं है कि वह दुर्वचन सहता ही रहे। जहाँ तक स्थिति है सह लिया, नहीं सह सकता तो उसका मुकाबला कर लिया, उसमें कोई उसके प्रतिज्ञाभंग का दोष नहीं है, पर साधु पुरुष के तो प्रतिज्ञाभंग का दोष लगेगा। गाली का जवाब गाली से मुनि नहीं दे सकता। और, फिर वैसे ही बिना किसी के सताये, बिना बोले ही अपने अहंकार से अटपट बोलने लगे तो वहाँ मुनित्व है ही नहीं। भला सोचिये कि मुनि का दर्जा गृहस्थ से कितना ऊँचा है जिसकी उपासना करके गृहस्थ अपने धर्म का पालन करता है। और, बताया है कि उपासना न करे वह गृहस्थ क्या? तो जो ऐसे परमेष्ठी पद को मान जाते हैं उनका व्यवहार, उनका बोलचाल, उनकी चर्या, क्रिया कितनी पवित्र और गृहस्थों के लिए आदर्शरूप होना चाहिए। और, इतनी भी सभ्यता न हो जितनी गृहस्थ रखता हो, किसी की गाली का जवाब गाली से देने लगे तो वहाँ मुनित्व कहाँ रहा? शत्रु और मित्र समान दिख जाना चाहिए, कोई इस शरीर को छेद-भेद रहा हो, छील रहा हो तिस पर भी जिन मुनिराज को उन पर द्वेष न आना चाहिए, समता परिणाम रखना चाहिए यह कितना ऊँचा तपश्चरण है। इतनी ऊँची वृत्ति जिन परमेष्ठियों में है समझ लेना चाहिए कि वे कितने आदर्श वाले हैं। तो मुनिराज विचार रहे हैं कि जिसने मुझे दुर्वचन कहे तो वचन ही तो कहा, उसने लाठी आदिक का प्रहार तो नहीं किया। और, कदाचित् लाठी से प्रहार भी कर दे तो क्या वह लौटकर लाठी से जवाब देने लगेगा ! ऐसे-ऐसे महाबली सेनापति राजा महाराजा आदि जिनमें कोटि-कोटि समूहों का बल था ऐसे बलिष्ट वे राजा महाराजा अब साधु हुए हैं तो अब इस स्थिति में यदि कोई पशु-पक्षी भी चोंट रहा हो शरीर को तो ऐसा बलि होकर भी उस पशु-पक्षी का निवारण नहीं करते और अपने आत्मध्यान की ओर विशेषतया लग जाते हैं। क्या उनमें इतना बल न था कि वे भगा देते? अरे जोर से श्वास खींचकर बाहर निकाल देते तो इतने मात्र से डरकर वे पशु-पक्षी वहाँ से डरकर भग जाते, लेकिन इतना भी विकल्प ध्यानाभिलाषी संतों को नहीं रुचता है। यह कितनी ऊँची स्थिति होती होगी। आत्मध्यान के समय कदाचित् कोर्इ लाठी आदिक का प्रहार करे तो मुनिराज सोचते हैं कि इसने मेरे शरीर के खंड-खंड तो नहीं किया और कदाचित् शरीर के भी खंड-खंड कर दे तो उससे मेरा धर्म भी कहीं नहीं गया। मेरा धर्म मेरी दृष्टि में है। मेरा धर्म मेरे ही स्वरूप में है। इसे कौन मिटा सकता है? मैं ही अपना उपयोग बदल लूँ और अनाप-सनाप चिंतन करने लगूँ तो अपने धर्म को में ही मिटा देता हूँ। इसने तो मेरा धर्म ही नहीं मिटाया और यह इस शरीर कारागार से मुझे छुट्टी दे रहा है। वे सब बातें सुनने के साथ यह न सोचना कि ये तो केवल बातें ही कर रहे हैं किंतु जिनके आत्महित की रुचि रहती है उनके ऐसे-ऐसे विचार होते ही हैं।