वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 937
From जैनकोष
चेन्मामुद्दिश्य भ्रश्यंति शीलशैलात्तपस्विन:।
अमी अतोऽत्र मज्जन्म परक्लेशाय केवलम्।।937।।
क्रोधापहार के यत्न में ज्ञानी का चिंतन― ज्ञानी संत ऐसा भी विचार करते हैं कि यदि मैं क्रोध करूँ तो मुझे निरखकर अन्य-अन्य तपस्वी मुनि भी अपने शील शांत स्वभाव से च्युत हो जायेंगे तब फिर मेरा जन्म दूसरों के अपकार के लिए हुआ, धर्म की अप्रभावना के लिए हुआ। इस कारण मुझे क्रोध करना किसी भी प्रकार उचित नहीं है। जो पुरुष जैन कुल में उत्पन्न हुए और समाज में बड़े माने जाते हैं, समाज के लोग भी महान समझकर जिसके हुक्म में भी रहना चाहते हैं ऐसे वे समाज के बड़े प्रमुख यदि धर्म के विरुद्ध चलते हैं या धर्मकार्य में अपना कुछ भी सहयोग नहीं देते, उन पुरुषों के द्वारा धर्म की अप्रभावना है और लोगों का कल्याण भी हो रहा है, क्योंकि साधारणजन तो उस बड़े पुरुष की चर्या निरखकर अनुकरण करेंगे और जिन नगरों में समाज के प्रमुख धनिक विद्वान धर्ममार्ग में चलते हैं वे धर्म में अपने लिए भी प्रभावना करते हैं और लोगों का उपकार भी करते हैं। तो यहाँ मुनिराज विचार कर रहे कि यदि मैं क्रोध करूँ तो मुझे देखकर और-और तपस्वीजन अपने शुद्ध स्वभाव से भ्रष्ट हो जायेंगे, तो मैंने कितना अनर्थ किया, कितना हमने उन संतों का अपकार किया। उसका जन्म व्यर्थ है जो दूसरों के अपकार के लिए अथवा क्लेश के लिए बने।