वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 936
From जैनकोष
संभवंति महाविघ्ना इह नि:श्रेयसार्थिताम्।
ते चेत्किल समायाता: समत्वं संश्रयाम्यत:।।936।।
ज्ञानी का समत्वसंश्रयण का यत्न― जो मोक्षाभिलाषी जीव हैं उनको इस लोक में बड़े-बड़े विघ्न होने संभव हैं। यह बात बहुत प्रसिद्ध है कि अच्छे कामों में विघ्न आया करते हैं। जो कल्याण के कार्य होते हैं वे बहुत विघ्नसंपन्न होते हैं। मेरे इस मोक्षमार्ग में चलते हुए मार्ग में विघ्न यदि आ जाय तो इसमें आश्चर्य क्या है? और, साथ ही यह भी विचार लेना कि हमारे कोई विघ्न आ रहे हैं तो मालूम होता है कि मैं बहुत अच्छे रास्ते पर चल रहा हूँ क्योंकि श्रेय कार्यों में विघ्न आते हैं। और, विघ्न आ रहे हैं तो हमें यह सब भले की निशानी मालूम पड़ रही है। ऐसा विचार करके मुनिजन क्रोध नहीं करते वे समता भाव का आश्रय करते हैं और उनके किसी पर भी राग और द्वेष नहीं होता।