वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 944
From जैनकोष
यदि वाकंटकैविद्धो नावलंबे क्षमामहम्।
ममाप्याक्रोशकादस्मात्को विशेषस्तदा भवेत्।।944।।
वचन कंटकों से विद्ध भी ज्ञानी के क्षमा का अवलंबन― यह क्रोध कषाय जीतने के लिए विचार बताया जा रहा है कि मैं कैसे क्रोधरहित शांतचित्त बनाकर रहूँ। ज्ञानी संत पुरुष चिंतन करते हैं कि दुर्वचन कहने वाले पुरुषों ने मुझे वचन रूपी काँटों से पीड़ित किया है। अब यदि मैं क्षमा धारण न करूँगा तो मेरे में और दुर्वचन कहने वाले में विशेषता क्या होगी? इसने गाली दी और हम इसे क्षमा न कर सके, हम भी गाली देने लगें तो अब दुनिया में बड़ा कौन रहा? विशेषता किसकी रही? किसी की नहीं। दोनों समान हो गए। मैं यदि दुर्वचन कहूँगा तो मैं भी इसके ही समान हो जाऊँगा इस कारण क्षमा करना ही उचित है, ऐसा ज्ञानी संत पुरुष विचार कर रहे हैं। यदि अपना जितना जो कुछ सर्वस्व है, स्वरूप है वह अपनी निगाह में रहता है तो कोई संकट नहीं है। जैसे कोर्इ समर्थ पहलवान छोटे-छोटे बालकों को कुश्ती लड़ना सिखाता है तो सिखाते हुए में कभी-कभी वह स्वयं गिर जाता है। हँसी-हँसी में ही उन बालकों को कुश्ती सिखाता रहता है। वह समझता है कि इसमें मेरा क्या बिगड़ता है। तो क्या उसमें सामर्थ्य नहीं है? जब चाहे तब उन बालकों को उठा उठाकर फेंक दे, ऐसी शक्ति बन गयी है अतएव वह चिंतन करता है। ऐसे ही ज्ञानी पुरुष की ऐसी अद्भुत शक्ति बन गयी है कि उस पर कोई संकट हावी नहीं बन सकता है। जब संकट आता है तो वह ज्ञानी पुरुष अधीर नहीं होता है। यदि किसी ने दुर्वचन बोल दिया तो ज्ञानी पुरुष ऐसा विचारता है कि मैं उस दुर्वचन बोलने वाले को यदि खोटा बोल दूँ तो मैं भी उसके ही समान हो गया। और, फिर गाली देने वाले को कोई शांति प्राप्त नहीं होती। जैसे कोई बड़े गुम्मज के भीतर कुछ शब्द बोलता है तो उसकी झाई में वही शब्द लौटकर आते हैं ऐसे ही गाली देने वाला कितनी ही गालियाँ मुझे दे दे और मैं उन्हें न स्वीकार करूँ तो वे गालियाँ लौटकर उसे ही लग जाती हैं। दुर्वचन बोलने वाला मेरा कुछ नहीं बिगाड़ रहा वह तो अपना ही विनाश कर रहा है। ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष अपने सत्पथ से विचलित नहीं होते हैं।