वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 945
From जैनकोष
विचित्रैर्बधवंधादिप्रयोगैर्न चिकित्स्यति।
यद्यसौ मां तदा क्व स्यात्संचितासातनिष्क्रिय:।।945।।
पीड़क पुरुष के प्रति चिकित्सकत्व की भावना― जो कोर्इ मेरे अनेक प्रकार के बध बंधन आदिक प्रयोगों से इलाज नहीं करता है उसके पूर्व संचित कर्मरूपी रोग का कैसे नाश हो? ज्ञानी पुरुष विपदा में यों प्रसन्न रहा करते कि विपदा न आये तो मेरे जो पूर्व कर्म बंधे हुए हैं उनका विनाश कैसे हो? पूर्व कर्मों का विनाश तो विपदायें मिलें, कष्ट मिले उसमें होता है। और वहाँ यदि समता धारण कर ली तो उसे मुक्ति का मार्ग भी मिल जाता है। किसी ने दुर्वचन बोल दिया तो ज्ञानी पुरुष विचार करता है कि यह तो मेरा उपकारी है क्योंकि इसके निमित्त से मेरे पूर्वबद्ध कर्म दूर हो रहे हैं। ज्ञानी संत पुरुष वे कहलाते हैं जिनके शत्रु और मित्र में एक समान परिणाम हो। शत्रु को अनिष्ट और मित्र को इष्ट मान ले तो वहाँ साधुता नहीं रहती। साधु के लिए शत्रु और मित्र एक समान हैं। ऐसे गंभीर धीर वीर साधु संतजन ऐसा विचार करते हैं कि कोई मुझे पीड़ा दे रहा है तो वह मेरे कर्मरूपी रोग को नष्ट कर रहा है। उसका तो उपकार ही मानना योग्य है, उसमें क्रोध क्यों करना?