वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 947
From जैनकोष
यदि प्रशममर्यादां भित्त्वा रुष्यामि शत्रवे।
उपयोग: कदास्य स्यात्तदा मे ज्ञानचक्षुष:।।947।।
शत्रु के प्रति रोष न करके सज्ज्ञाननेत्र के सदुपयोग का फल― यदि मैं शांति की मर्यादा का उल्लंघन करके बध बंधन आदिक करने वाले शत्रु से क्रोध करूँगा तो उससे इस ज्ञानरूपी नेत्र का उपयोग फिर किस समय में होगा? ज्ञानी पुरुष यह विचारता है। मैंने जो ज्ञानोपयोग पाया है, जो स्थिति पायी है वह अनंत जीवों से भी विलक्षण है, इतना सुंदर क्षयोपशम सद्बुद्धि, उत्तम जीवन और विचारशक्ति मिलना ये सब इतने उत्तम मिलने पर भी यदि इनका सही उपयोग न कर सके, क्रोध में, रोष में चलते रहे तो फिर मेरे ज्ञान का उपयोग किस समय के लिए होगा। जो कुछ मैंने ज्ञान पाया है वह तो ऐसे ही समय के लिए था। जब कि कोई सता रहा हो, क्रोध कर रहा हो वहाँ पर हम समता से रह सकें, शांतभाव हमारा बना रह सके इसके लिए ही तो ज्ञानाभ्यास था। यदि हम उस ज्ञान को ऐसे समयों में नहीं करते तो फिर ज्ञान पाने से लाभ क्या? जैसे कोई पुरुष अपनी सेना पर बहुत बड़ा खर्च उठाये और कोई शत्रु आक्रमण कर दे देश पर, तब सेना को छुट्टी दे दे तो वह तो राजा का अविवेक है। ऐसे ही ज्ञानाभ्यास तो किया, पर भले-भले समय में तो उस ज्ञान की बड़ी कलायें खेली, सुखी हुए, यश हुआ, प्रशंसा की बातें भी सुनने को मिली, ऐसे समयों में तो बड़ी शांति की मुद्रा बनायी, बहुत-बहुत कलायें खेली। और, कदाचित् ऐसा समय आये कि जब विपदा आयी हो, कोई दुर्वचन बोलता हो ऐसे समय में हम उस ज्ञान की छुट्टी कर दें अथवा उस ज्ञान का उपयोग न करें तो भला बतलावो वह विवेक तो नहीं है। ज्ञानी संत इस प्रकार विचार करते हैं और इस विचार के प्रसाद से फिर भी कोई क्रोध कराये ऐसा निमित्त बने, उस प्रसंग में भी विचलित नहीं होते।