वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 946
From जैनकोष
य: शम: प्राक्समभ्यस्तो विवेकज्ञानपूर्वक:।
तस्यैतेऽद्य परीक्षार्थं प्रत्यनीका: समुत्थिता:।।946।।
निंदक व पीड़कों के प्रति परीक्षकत्व की भावना― जो दुर्वचन कहने वाले में और बड़ा आदर सम्मान करने वाले में समता का परिणाम रखता है वह साधु है। कोई पुरुष यदि पीड़ा दे रहा है तो उसमें यह देखना होगा कि इस पुरुष का शांत परिणाम है या नहीं। ऐसा विचार करना किंतु क्रोधरूप न होना। किसी का कुछ भी आशय हो किंतु उसके बारे में ऐसे सच्चे ढंग से सोचो कि जिससे अपने को संक्लेश न आये। कोई हमें सता रहा है तो हम वहाँ ऐसा ध्यान बनायें कि यह हमारी परीक्षा कर रहा है। जिसकी जैसी दृष्टि होती है उसको उस ही प्रकार का अनुभवन मिलता है। तो कहीं कुछ भी होता हो हम सर्वत्र भला ही भला देखें। तो यह ज्ञानी विचार कर रहा है कि इसने जो दुर्वचन कहे या कुछ पीड़ा दिया तो यह तो मेरी परीक्षा कर रहा है। हमें भेदविज्ञान पूर्वक समता परिणाम से शांतभाव का आलंबन लेना चाहिए। यह इस निष्कषाय भाव के अभ्यास की परीक्षा लेने आया है ऐसा विचार तो करते हैं साधुजन, पर क्रोधरूप नहीं होते हैं। हम जिस चाहे स्थल में ऐसा विचार कर सकते हैं। यह मेरा बिगाड़ करने नहीं आया किंतु मेरी परीक्षा लेने आया है कि कितनी धीरता है, गंभीरता है। ऐसा विचार बनाकर ज्ञानी पुरुष अपने आपमें आकुलित नहीं हुआ करते हैं। आकुलता होती है परपदार्थों के संबंध से। तो पर का संबंध हम न मानें, सब बिखरे हुए हैं, न्यारे-न्यारे हैं, अपने सत्त्व स्वरूप हैं। हाँ उन सब सत्त्वों में जाति की अपेक्षा एक साधारण एकत्व का ज्ञान करना है, पर हैं ये सब जुदे ही जुदे। तो जिसकी जैसी कषाय है, जिसका जो परिणाम है वह अपनी वेदना को शांत करने के लिए उस प्रकार की चेष्टा करता है। मुझे क्रोध न करना चाहिए। ये सभी लोग मेरे क्रोध की शांति की परीक्षा करने आये हैं। मुझे शांत ही रहना योग्य है जिससे मैं अपने आपके भविष्य की सृष्टि उत्तम बना सकूँ। शोक करने के फल में भविष्य में शोक-शोक में बीतेगा। अत: रंज और शोक किसी स्थल में न करें, यथार्थ तत्त्व का ज्ञान करके मैं अपने आपमें ही संतुष्ट रहूँ, ऐसा जानकर ज्ञानी पुरुष दूसरों पर क्रोध नहीं करते।