वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 949
From जैनकोष
ममापि चेद्रोहमुपैति मानसं परेषु सद्य: प्रतिकुलवर्तिषु।
अपारसंसारपरायणात्मनां किमस्ति तेषां मम षा विशेषणम्।।949।।
द्रोहियों के प्रति द्रोह न करने की विशेषता― जो प्रतिकूल चलने वाले व्यक्ति हैं अथवा उपसर्ग करने वाले शत्रु हैं उनमें मेरा मन तत्काल जो द्रोह को प्राप्त होता है तो उन शत्रुवों में और मुझमें फिर भेद क्या रहा? जो उपसर्ग कर रहे हैं उनका मन तो द्रोह में है और मैं भी अगर उन पर रोष करने लगूँ तो मुझमें और उनमें अंतर क्या रहा? उपसर्ग करने वाले व्यक्ति कोई मुनि तो हैं नहीं वे तो सद्गृहस्थ भी नहीं हैं वे तो खोटे गृहस्थ हैं, दुष्ट पुरुष हैं। उन दुष्ट पुरुषों की ही तरह यदि मैं भी दुष्टता करने लगा तो उनमें और मुझमें अंतर ही क्या रहा? मैं तो मोक्षार्थी हूँ, मैंने तो अपना प्रोग्राम, अपना भेष, अपनी चर्या मुनि की बनायी है, मोक्षमार्ग की बनायी है सो यदि हम शांति में नहीं रहते और उपसर्ग करने वालों पर क्रोध करते हैं तो उनमें और मुझमें फिर अंतर ही क्या रहा? जैसे वे संसार में घूमेंगे इसी प्रकार में भी घूमूँगा। ज्ञानी संत जो ऐसा विचार करते हैं कि इन दुष्ट पुरुषों पर जो कि उपसर्ग कर रहे हैं इनमें मैं यदि क्रोध करने लगा तो मैं उन्हीं के समान कहलाऊँगा। इसका तात्पर्य यह है कि मैं इसी संसार में घूमूँगा। कहीं सम्मान अपमान भरा तात्पर्य न लेना कि मैं मुनि हूँ, यह दुष्ट पुरुष है। मैं इस पर रोष करूँगा तो मैं दुष्ट कहलाऊँगा, ऐसा ध्यान में नहीं है किंतु यह ध्यान में हे कि मैं भी यदि क्रोध करूँ तो जैसे ये संसार में घूमेंगे वैसे ही मैं भी संसार में घूमूँगा, अतएव मुझे क्रोध न करना चाहिए।