वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 950
From जैनकोष
अपारयन् वोधयितुं पुथग्जनानसत्प्रवृत्तेष्वपि नाऽसदाचरेत्।
अशक्नुवन् पीतविषं चिकित्सितुं पिवेद्विषं क: स्वयमप्श्वालिश:।।950।।
पीड़कों के प्रति रोष न करने का विवेक― खोटे कार्यों में लगने वाले अन्य पुरुषों को उपदेश करके रोकने को असमर्थ हुआ तो क्या वे पंडित पुरुष भी खोटे कार्यों को करने लग जायेंगे। कोई पुरुष दूसरे को खोटे कार्यों को छोड़ने का उपदेश नहीं कर सकता, अथवा खोटा काम छुड़ाने का यत्न नहीं बना पाता तो इसका क्या यह अर्थ है कि वह भी खोटे कार्य करने लगे? यह तो अर्थ नहीं है। जैसे कोर्इ पुरुष विष पी जाय और उस विष पीने वाले की चिकित्सा करने में वैद्य असमर्थ हो जाय तो फिर वह वैद्य भी क्या ऐसा कर ले कि विष पी ले? ऐसा तो न करेगा। यदि ऐसा करे तो वह अज्ञानी है, मूर्ख है। इसी तरह मुनि विचार करता है कि किसी पुरुष ने यदि मेरा बिगाड़ करना चाहा और मैं उसे उपदेश न दे सका, निवारण न कर सका तो क्या उसका यह अर्थ है कि मैं अपने परिणाम बिगाड़कर उसी के समान बन जाऊँ। जैसे कभी धर्म की, तत्त्व की चर्चा होती है तो जब मान लो उसे नहीं समझा पाते तो क्रुद्ध होकर रोष भरी बातें कहने लगते हैं। वह इसी के समान तो है बात कि कोई विष पीने वाला है उसका इलाज हमसे न हो सके तो क्या हम भी विष पी लें? इसी तरह की बात वहाँ है। कोई पुरुष यदि मुझ पर दुर्वचन कहे, तिरस्कार करे तो वह मेरा कुछ नहीं करता। उसने तो अपने ही परिणाम बिगाड़ लिया। ज्ञान में बड़ा बल है। वे पुरुष धीर होते हैं जिन्होंने सबसे न्यारे ज्ञानस्वभावमात्र अपने आत्मा में प्रतीति किया है। इस बाह्य जगत में कुछ मिले, कुछ गिरे, कुछ नष्ट हो जाय, कुछ प्राप्त हो जाय जो उसका कुछ भी महत्त्व नहीं आंकता, आया तो आया, गया तो गया, रहा तो रहा, नष्ट हुआ तो नष्ट हुआ, उसका मुझसे क्या संबंध है? मैं स्वतंत्र एक आत्मा हूँ, अपने में ही सब कुछ अपना बनाता रहता हूँ जिसको ऐसी प्रतीति है वह पुरुष दूसरों के द्वारा उपसर्ग और दुर्वचन होने पर भी अपने परिणम नहीं बिगाड़ता।