वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 953
From जैनकोष
हंतुर्हानिर्ममात्मार्थसिद्धि: स्यान्नात्र संशय:।
हतो यदि न रुष्यामि रोषश्वेद् व्यत्यय: सदा।।953।।
पीड़क के प्रति रोग न करने से हुए आत्मलाभ व पीड़कहानि का कथन― अपने प्राणों का नाश होने पर भी उपसर्ग करने वाले पर क्षमाभाव करना ही सत्पुरुषों का काम माना है। कोई दुष्ट पुरुष गाली दे रहा हो, तो उस शत्रु का अच्छा इलाज क्या है। अच्छा इलाज है उपेक्षा करना, स्वच्छचित्त हो जाना। यह आत्मसिद्धि का कारणभूत है। जैसे किसी बड़े हाल में कोई खड़े होकर गाली के शब्द बोले तो वहाँ वे ही शब्द वापिस आ जाते हैं। जैसे कोई कहे कि तू मूर्ख है तो वहाँ वही शब्द वापिस होकर आयेंगे तू मूर्ख है। ऐसे ही यहाँ भी जिसको जो शब्द बोलें उसकी तरफ से भी वैसा ही उत्तर मिलता है। किसी को खोटे वचन कहकर उसकी ओर से मधुर वचनों की आशा करना अज्ञानता है। जब अचेतन पदार्थों में भी जैसा बोलो वैसे ही वचन वापिस आते हैं तो ये तो चेतन हैं। इनको खोटे वचन बोलकर उनसे मधुर वचन बोलने की आशा करना व्यर्थ है। कोई कितना ही उपसर्ग कर रहा हो, कितना ही मेरा बिगाड़ कर रहा हो पर क्षमाभाव से उसे समतापूर्वक सहज करें। किसी क्रोधी के प्रति, प्रतिपक्षी के प्रति रोष करना समीचीन बात नहीं है। कोई गाली दे और अपन कुछ उत्तर न दें तो बतलावो गाली लगी कहाँ? उसने तो अपना ही भाव बिगाड़ा और यहाँ यह है स्वस्थ चित्त, तो यों समझिये कि वह देता है गाली तो दे, हम यदि न लें तो फिर वह गाली उसी के पास ही तो चली जायगी। उसने मेरा क्या किया? संतपुरुष दुष्टपुरुषों के दुर्व्यवहार का इलाज उपेक्षाभाव समझते हैं। सब जीवों में मित्रता का भाव रखना, जो गुणी जीव हैं उनमें प्रमोद का भाव रखना रत्नत्रयधारी संत पुरुष ज्ञानी कोर्इ मिले तो उनको देखकर हर्ष करना और ऐसा हर्ष करना कि अपने बच्चों से भी अधिक। और, जो विपरीत वृत्ति वाले हैं उन दुष्ट जीवों में समता परिणाम रखना, रागद्वेष न करना, बोलना ही नहीं, शांत हो जाना। तो जो दुष्ट पुरुष हैं उनका इलाज उपेक्षा कर देना ही है। यदि उससे लड़ते हैं तो लाभ नहीं, उससे विवाद ही बढ़ेगा, और यदि राग करते हैं तो वह और सिर पर चढ़ेगा। तब राग और द्वेष दोनों ही बातें हानि के लिए होंगी, उपेक्षा करने में ही लाभ है।