वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 952
From जैनकोष
परपरितोषनिमित्तं त्यजंति केचिद्धनं शरीरं वा।
दुर्वचनबंधनाद्यैर्वयं रुषंतो न लज्जाम:।।952।।
पीड़क के प्रति परितोष की भावना― किसी पुरुष ने मुझे मारा और मैं रोष न करूँ तो इसमें मारने वाले को तो हानि हुई, पर मेरे आत्मा की सिद्धि हुई। मारने वाले की हानि क्या हुई कि एक तो उसी समय उसने संक्लेश परिणाम किया और फिर हुआ पाप का बंध, तो उसका यह लोक भी बिगड़ा और परलोक भी बिगड़ा। तो उपसर्ग करने वाला यदि उपसर्ग करे और मैं उसमें रोष न करूँ तो इससे तो मेरे कर्मों की निर्जरा हो गई। कदाचित् रोष उपज जाय तो उससे तो दुगुनी हानि है। एक तो मेरे पाप का बंध हुआ और दूसरे पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा नहीं हुई। और, भी अनेक पापों का बंध कर डाला। अतएव किसी भी उपसर्ग करने वाले दुष्ट पुरुष के प्रति हमें क्रोध भाव न लाना ही श्रेयस्कर है।