वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 96
From जैनकोष
गगननगरकल्पं संगमं वल्लभानाम्, जलदपटलतुल्यं यौवनं वा धनं वा।
सुजनसुतशरीरादीनि विद्युच्चलानि क्षणिकमिति समस्त विद्धि संसारवृत्तम्।।96।।
प्रियजनों के समागम की आकाशनगरवत् क्षण भंगुरता― संसार का यह वृत्त क्षणिक है। देखो प्रिय स्त्रीजनों का अथवा परिजनों का समागम कोई इंद्रादिक माया से आकाश में बने हुए नगर की तरह है। जैसे आकाश में कोई मायामयी नगर बना हो तो उसकी सता क्या, एक थोड़ी ही देर की अथवा दिखावामात्र है वह नष्ट ही होगा, ठहरेगा नहीं। इसी प्रकार यह परिजनों का समागम ठहरने का नहीं है। यह तो नष्ट ही होगा। जैसे रास्तागीर लोग चलते-चलते किसी चौहट्टे पर इकट्ठे हो जायें अथवा किसी रास्ते में मिल जायें तो वे कितनी देर तक ठहरते हैं? थोड़ी देर को। जितनी देर वे जुहार भेंट करें अथवा कोई बीड़ी, चिलम पीने लगें या कोई अपने इष्ट स्थान का रास्ता पूछने लगें, तो इतने में जितना समय लगता है उतने समय तक का वह मिलाप है। फिर बिछुड़ जाते हैं, ऐसे ही अनेक गतियों से आए हुये ये परिजन कुछ लोग किसी एक जगह मिल गए हैं तो यह कितने क्षण का मिलाप है? इस अनंतकाल के समक्ष 50-60 वर्ष क्या गिनती रखते हैं? इस वर्तमान जीवन में कुछ कल्पनाएँ कर डालें और कुछ अपने को वैभववान्, ऐश्वर्यवान्, महान् समझकर एक मौज माने तो यह कितने दिनों का खेल है? यह सब नष्ट होगा।
वैभव की विद्युत की तरह क्षणस्थायिता― यह समस्त समागम आकाशनगर की तरह शीघ्र ही विनष्ट हो जाने वाला है। यह यौवन और यह धन मेघ बिजली की तरह विलीन हो जाने वाला है। धन का तो यह काम ही है। वह एक जगह तो रहता ही नहीं है, यहाँ से वहाँ गया, वहाँ से यहाँ गया, चलता फिरता रहता है। इसका नाम है चंचला। जो अतिशय से चलता ही रहे उसे चंचला कहते हैं। यह यौवन भी चंचल है, कुछ शरीर पुष्ट हुआ, कुछ शक्तिमान् हुआ तो यह स्थिति कितनी देर के लिये है? भले ही जब जवानी है तो उन जवानों को इस ओर ख्याल नहीं आता कि यह कितने दिनों का जीवन है? यदि उन्हें ख्याल रहे कि यह यौवन अवस्था भी शीघ्र विलीन होगी तो उनके मन में यह स्वच्छंदता न रहेगी। जैसे जवानी के जोश में जो मन में आता है स्वच्छंद होकर पापकार्य कर डालते हैं, फिर इससे ऐसी स्वच्छंद वृत्ति नहीं हो सकती।
यौवन की मेघपटलवत् क्षणनश्वरता― यह जवानी मेघपटल के समान है। जैसे छत पर बैठा हुआ कोई बादलों के सौंदर्य को देख रहा हो, देखा कि यह तो बादलों का सुंदर दृश्य है, इसका चित्र खींचना चाहिये। चित्र खींचने के लिये कागज पेन्सिल लेने नीचे आया और कागज, पेंसिल लेकर ऊपर पहुँचा, इतने में देखता है कि बादलों का वह सारा समूह विलीन हो गया है। तो जैसे वे बादल देखते-देखते ही विलीन हो जाते हैं ऐसी ही यह जवानी देखते-देखते ही विलीन हो जाती है। जब वृद्ध अवस्था आती है तब तो खूब समझ में बैठ जाता है कि यह जवानी अति चंचल है, क्षण में ही नष्ट हो जाती है। जवानी के समय भी जवानी की अनित्यता ध्यान में रहे यह है पुष्पज्ञानी की धारणा।
क्षणस्थायित्व का तात्पर्य― यह यौवन और धन मेघ व बिजली की तरह लुप्त हो जाने वाले हैं। परिजन, मित्रजन, पुत्र, स्त्री आदिक ये बिजली की तरह चंचल हैं। बिजली कितनी देर ठहरती है? कुछ भी समय नहीं। ऐसे ही इस अत्यंत काल के सामने यह कितना सा समय है जितने वर्ष ठहर जाय। बल्कि इतनी जिंदगी के इन 60-70-80 वर्षों के सामने जो एक सेकेंड को बिजली चमकी वह समय तो नाप में गिनती में आ जायेगा, पर अनंतकाल के सामने ये 100 वर्ष भी क्या, करोड़ वर्ष भी गिनती में न आयेंगे। यहाँ के वे सर्व समागम कितनी देर को हैं, इन सबको क्षणिक समझिये। ऐसी अनित्य अवस्था जानकर इनसे अनुराग मत करो। इनमें नित्यता की बुद्धि मत रक्खो।
पर्यायदृष्टि से अनित्य देखने का प्रयोजन द्रव्यदृष्टि से नित्यत्व का अवलोकन― इस ग्रंथ में यहाँ अनित्यभावना समाप्त हो रही है। अनित्य भावना के इस प्रसंग में सारभूत तात्पर्य इतना जानना कि यह लोक षट्द्रव्यमय है। 6 प्रकार के द्रव्य, चेतन अचेतन पदार्थों का समूह यह लोक है। इसको द्रव्यदृष्टि से देखा जाय तो यह नित्य है परंतु पर्यायदृष्टि से देखा जाय तो वह उत्पन्न होता है और नष्ट होता है। अनित्य भावना में इस बात पर दृष्टि दिलायी गयी है कि तुम इन सब पदार्थों को पर्यायदृष्टि से अनित्य देखो। मोहीजन पर्यायदृष्टि ही तो रखते हैं पर उस ही दृष्टि से रखते हुये वे नित्य मान रहे हैं। मोहियों को यह पता नहीं कि हम पर्यायदृष्टि से देख रहे हैं, वे तो पर्याय को ही सर्वस्व मानते हैं और इस ही पर्याय को नित्य श्रद्धा में लाये हुये हैं। इन संसारी जीवों को द्रव्य के शाश्वत वास्तविक स्वरूप का तो ज्ञान है ही नहीं, वे तो पर्याय को ही वस्तुस्वरूप मानकर उसमें नित्यपने की बुद्धि रखते हैं और इसी अज्ञानवश ममता राग और द्वेष किया करते हैं। उन रागद्वेषों से आकुलताएँ होती हैं। उन आकुलतावों को दूर करना चाहिये, इस ही भाव को यहाँ बताते हैं कि भाई पर्यायबुद्धि एकांत त्यागकर द्रव्यदृष्टि से अपने स्वरूप को नित्य मानकर और इस अविनाशी चैतन्यस्वरूप का ध्यान करके इस ही स्वरूप में लय होने का यत्न करो और वीतराग विज्ञान की दशा को प्राप्त होवो।
*अशरण भावना*