वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 97
From जैनकोष
न सो कोऽप्यस्ति दुर्बुद्धे शरीरी भुवनत्रये।
यस्य कंठे कृतांतस्य न पाश: प्रसरिष्यति।।97।।
संसारी जीवों की अशरणता― अनित्य भावना के बाद अशरण भावना का वर्णन आता है। हे मूढ दुर्बुद्धे ! तू किसकी शरण चाहता है? इन तीनों लोकों में कोई भी जीव ऐसे नहीं है जिनके गले में काल की फाँसी न पड़ी हो। तू जिसको शरण समझकर उस शरण में जा रहा है वह खुद का अशरण है। खूब छान लो, जगत् में जितने भी जीव हैं ये सब काल के गले में पड़े हुए हैं, काल के मुख में पड़े हुए हैं। जो स्वयं अरक्षित हैं उनसे रक्षा की कोई आशा की जा सकती है क्या? जो स्वयं अशरण हैं उनसे अपने शरण की कोई आशा न रखनी चाहिये। जो स्वयं को शरणभूत हैं वे भी अन्य को शरणभूत नहीं हो सकते। बाह्य में कहीं भी शरण मत ढूंढ़ो। अपने आपमें अपने आपका ही सहजस्वरूप शरण है, उस स्वरूप के शरण को प्राप्त हो।
अरहंत शरण― चत्तारिदंडक में पढ़ते हैं, चत्तारि शरणं पव्वज्जामि। मैं चार की शरण को प्राप्त होता हूँ। वे चार शरण कौन हैं, जिनको यह भक्त प्राप्त करना चाहता है? प्रथम कहा गया है अरहंते शरणं पव्वज्जामि। मैं अरहंतों की शरण को प्राप्त होता हूँ। अरहंत परमात्मा वीतराग सर्वज्ञदेव हैं। वे देह सहित हैं। परमौदारिक पावन उनका देह है, उनकी दिव्य ध्वनि होती है, लोगों को उनका दर्शन मिलता है। जो सर्वश्रेष्ठ समागम भव्य जीवों को प्राप्त हो सके वह सर्वश्रेष्ठ समागम अरहंत भगवान का दर्शन है। सिद्धभगवान का तो समागम होता नहीं, वे लोक के अंत में विराजे हैं और शरीररहित हैं, योगरहित हैं। ये अरहंतदेव विहार भी करते है उनकी दिव्यध्वनि भी होती है, उनकी शांतमुद्रा के दर्शन होते हैं। जो वीतराग है केवलज्ञानी है ऐसा आत्मा जिस देह में विराजमान् है उस भगवान् के साक्षात् दर्शन हो सकते हैं। तो बाह्य शरणों में उत्कृष्ट शरण जो हमें प्राप्त हो सके, वह है अरहंत भगवान का शरण। उस अरहंत भगवान की शरण को मैं प्राप्त होता हूँ।
प्रभुस्मरण का प्रभाव― कैसे ही कोई उपद्रव से ग्रस्त हो, यदि वास्तविक दृष्टि से अरहंत के स्वरूप में अपना उपयोग लगाया तो उस स्वरूप के उपयोग से ये सैकड़ों बाधायें दूर हो जाती हैं। अरहंत भगवान् परद्रव्य हैं और पर के शरण की बात यहाँ कही जा रही है। यद्यपि इस जीव को परमार्थ दृष्टि से कोई भी परमार्थ शरण नहीं होता, लेकिन अरहंत भगवान का स्वरूप, इस आराधना करने वाले जीव का स्वरूप स्वभावदृष्टि से दोनों समान हैं और उपासक जब अरहंत भगवान् के स्वरूप पर दृष्टि देता है तो इसे अपने आपके स्वरूप का स्पर्श होता है। भगवान् के स्वरूप पर दृष्टि दे कौन सकता है? किसी भी परपदार्थ के स्वरूप पर दृष्टि कौन दे सकता है? प्रत्येक प्राणी जो कुछ परिणमन करता है वह अपने ही प्रदेशों में परिणमन करता है। अपने आपके प्रदेशों में ही रहकर जो हमारी ज्ञानवृत्ति बनी उस ज्ञानवृत्ति का आश्रय अर्थात् विषय हुआ अरहंत का स्वरूप। अत: यों कहा जाता है कि हमने अरहंत के स्वरूप पर दृष्टि दी। वस्तुत: वहाँ भी हमने अपने आपके स्वरूप में ही ऐसा कोई परिणमन किया है, वही शरण बन रहा है, उस शरण में परपदार्थ विषय है अतएव पर के शरण की बात कही गई है।
सिद्ध शरण― अरहंतों के शरण की भावना के पश्चात् फिर कहते हैं सिद्धे शरणं पव्वज्जामि। मैं सिद्ध भगवान् के शरण को प्राप्त होता हूँ, यद्यपि सिद्ध भगवान् अरहंत भगवान से भी उत्कृष्ट पद में हैं, अंतरंग दृष्टि से तो अरहंत और सिद्ध दोनों समान हैं, केवलज्ञानी, वीतराग, अनंत, आनंदमय, जो कुछ भी गुणरूप स्वरूप है उस दृष्टि से तो अरहंत और सिद्ध में समानता है, किंतु वे और नटखट जो इस प्रभु की प्रभुता से पहिले थे वे नटखट, शरीर के बंधन, कर्मों के बंधन अब बने हुये हैं, वे भी दूर हो जायें तो उन्हें सिद्ध भगवान कहते हैं अर्थात् वीतराग व सर्वज्ञ तो वे अरहंत पद में ही थे, अब बाह्यमलरहितता, निर्लेपता भी सिद्ध भगवान के हो जाती है, फिर भी यद्यपि सिद्ध का उत्कृष्ट स्वरूप है, किंतु अरहंत के बाद सिद्ध के शरण की बात यों कही गई है कि आखिर सिद्ध का पता भी हमें अरहंतों की परंपरा से चला है। उपदेश देने वाले मूल में अरहंत भगवान हैं, उनके प्रणीत आगम से हमें सिद्ध का परिचय मिला है। खैर यह दृष्टि भी न करें तो भी चूँकि अरहंत सिद्ध एक ही स्वरूप हैं, कुछ भी कह दो प्रभु के शरण को प्राप्त होता हूँ, इस भावना में भव्य ने एक वीतराग ज्ञायकस्वरूप की उपासना की है।
साधु शरण― इसके पश्चात् यह भव्य पुरुष कहता है कि ‘साहूसरणं पव्वज्जामि, मैं साधुवों की शरण को प्राप्त होता हूँ।’ मुमुक्षु पुरुषों का साधुवों के साथ एक अनूठा संबंध हुआ करता है, जिस संबंध की होड़ जिस संबंध की दशा, जिस संबंध की उपमा किसी भी संबंध में नहीं मिलती है। मोक्षमार्ग का नाता रखकर साधुवों का और उपासक का जो संबंध होता है उस संबंध से बढ़कर इस दुनिया में और कुछ नहीं है। कैसा निष्कपट, मोक्षमार्ग लिये सदा को संकट दूर हो जायें, इस भावना को लिये हुये गुरुवों का संबंध होता है। अरहंत वीतराग हैं पूर्ण रूप से। वे हमसे बोलते भी नहीं हैं, यद्यपि उनका विहार है, तो भी वे निरीह हैं। उनका उत्कृष्ट शरण है लेकिन सीधा तुरंत जिसमें इतना काम चले वह तो साधु पुरुष हैं।
सुगम लब्ध व्यवहारशरण― जैसे इस गृहस्थावस्था में यद्यपि व्यापार के संबंध में कोई एक बड़ा पुरुष जो बहुत दूर रहता हो और सबके लिये एकसी दृष्टि रखता हो यद्यपि वह बड़ा है लेकिन रोज-रोज काम जिससे पड़े उसके लिये तो वह ही महत्त्व के लिये है। साधुजन प्राय: करके मिलते ही रहते हैं और हम ही जैसे वे हैं और विरक्ति पाकर जो इतना शांत और ज्ञानी हैं, आनंदरत है तो उनकी इस प्रवृत्ति को छोड़कर हम पर ज्यादा असर पहुँचता है। जैसे कि पुराणों में अनेक उदाहरण हैं। सुकुमाल ने यों त्यागा, सुकौशल ने यों त्यागा, ऋषभदेव ने यों त्याग किया, ठीक हैं वे सब लोग। आपके ही नगर में यदि कोई ज्ञानी गृहस्थ ऐसा दिखे कि जो बहुत उदार हो, वैभव में अनासक्त हो, जरा-जरा से प्रसंगों में मुक्तहस्त से दान दे और अपने सदाचार की पूर्ति में विषयों का त्याग कर दे, ऐसा विरक्त ज्ञानी गृहस्थ हो तो तत्काल उसका प्रभाव पड़ने लगता है। ऐसे ही अरहंत और सिद्ध भगवान का यद्यपि उत्कृष्ट स्वरूप है और अंत में उनका ही ध्यान योगीजन भी करते हैं, हमें भी करना होता है लेकिन हमें तुरंत कोर्इ शरण मिले, समागम मिले, कुछ अपने दिल की बात सह सकें, कुछ उनसे सुन सकें ऐसा सुगम उपाय मोक्षमार्ग का विधान बन सके ऐसा तो साधुवों में संभव है। तब यह भव्यपुरुष साधुवों का शरणवाद करता है― ‘साहू शरणं पव्वज्जामि, मैं साधुवों की शरण को प्राप्त होता हूँ।’
धर्म शरण― यहाँ तक देव और गुरु के शरण पाने की भावना और कोशिश करके अब यह भव्य जीव तब भी अपने आपमें हो रहे परिणमन की शरण ही पा रहा था, अब व्यक्तरूप से माना कि ये सब पर ही है। परमार्थ से मैं किसकी शरण को प्राप्त होऊँ? जो सुगम हो, स्वाधीन हो, अपने आपमें हो― ऐसी शरण है क्या? उसको चतुर्थ नंबर पर कह रहे हैं। केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि। केवली भगवान के द्वारा निर्देश किया गया जो धर्म है उसकी शरण को मैं प्राप्त होता हूँ। धर्म कहीं व्यक्तिरूप स्वरूप सत्ता वाला कोर्इ पदार्थ नहीं है, किंतु जितने भी आत्मा हैं उन आत्मावों में जो उनका स्वभाव पाया जाता है वही स्वभाव धर्म है। मेरा स्वभाव है प्रतिभास चैतन्य। उसका प्रयोग है ज्ञाताद्रष्टा रहना। हम केवल जाननहार रहें, यह है, यह यों है, समस्त वैभव परिजन मित्रजन अन्य-अन्य जन जो-जो कुछ भी प्रयोग में आयें उनका जैसा स्वरूप है, ढंग है, उसका मात्र जाननहार रहे, ऐसी ज्ञाताद्रष्टापन की स्थिति का नाम है धर्म। मैं इस ज्ञायकस्वभावरूप, शुद्ध ज्ञानविकासरूप धर्म की शरण को प्राप्त होता हूँ।
सुगम स्वाधीन स्वयं वास्तविक शरण― तो देखो भैया ! वास्तविक शरण अपना अपने आपमें मिला और व्यवहार से जो धर्ममूर्ति है वह देव और गुरु शरण है, इसके अतिरिक्त अन्य कोई तो शरण कभी हो ही नहीं सकता है। ये संसारीजन स्वयं घबड़ाये हुए हैं, स्वयं अशरण हैं, इनका में क्या शरण ढुँढू। हे मुमुक्षु ! सभी संसारी जीव काल के मुख में हैं ऐसा जानकर किसी भी जीव का तू शरण मत ढूँढ़। अपने आपमें ही अपने शरण की प्राप्ति कर।