वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 969
From जैनकोष
मानग्रंथिर्मनस्युच्चैयविदास्ते दृढस्तदा।
तावद्विेवेकमाणिक्यं प्राप्तमप्यसर्पति।।969।।
मदाधारभूत कुल जाति आदि से रहित आत्मस्वभाव के आलंबन से मान कषाय का प्रक्षय―जब तक मन में मान की गंध दृढता से लगी रहती है तब तक विवेक रूपी रत्न प्राप्त हुआ भी नष्ट हो जाता है। कितने ही गुण हों उन गुणों के होने पर भी यदि कोई मान कषाय की प्रवृत्ति करता है। मान बढ़ाई जैसी बात करता है तो लोगों की दृष्टि में उसके गुण गौण हो जाते हैं और उसके दोष सामने खड़े हो जाते हैं। और, तो सब कुछ है लेकिन इसमें यह बड़े दोष की बात है कि अपने ही मुख से अपनी बढ़ाई करता है, ऐसी मान प्रवृत्ति करता है, दूसरों को तुच्छ समझा जाता है। तो जब तक यह मान कषाय है भीतर तब तक वह यदि विवेक भी थोड़ा करता हो, लोकनीति के आधार पर और दुनिया को यह बताने की चेष्टा करता हो कि मैं बहुत नम्र हूँ मान मुझमें बिल्कुल नहीं है। लेकिन मान की बात तो आ गयी।बड़े नम्र शब्द बोलकर भी मान करते हैं तो जाहिर हो जाता है क्योंकि वह मान की गाँठ भीतर पड़ी है तो कोई जान बूझकर व्यवहार में सम्हल कर भी रहे तो कितना सम्हलकर रहेगा? कोई इस तरह की पद्धति आ ही जायगी जिससे लोग समझते हों कि यह तो मानीहै। तो जब तक हृदय में मान की गंध रहती है, तब तक भीतर का विवेक तो रहताही नहीं है। मान कब होता? जब पर्याय पर दृष्टि रहती है और पर्याय अपनाने का भाव रहता है मानकषाय तब ही होता है। अनुभव करके निरख लेना― यदि मैं अपने उस सहज अनादि सिद्ध शुद्ध अंत: प्रकाशमान ज्ञानस्वभावमात्र हूँ, ऐसी दृष्टि करने वाले को मान कषाय क्या जगेगी? मान कषाय के आधार तो ये कुल जाति आदिक हैं। तो ये क्या स्वभाव में पड़े हुए हैं? आत्मा के स्वरूप में कुल, जाति, धन, बल, ऐश्वर्य आदिक जिन-जिनके कारण मद होता है, क्या ये कुल पड़े हुए हैं? इनका संबंध पर्याय से है और इनके मदों के आधार से मान बना है तो निर्णय करना चाहिए कि जिस जीव का मान कषाय प्रबल होता है उसको पर्याय में आत्मबुद्धि है, पर्याय दृष्टि है।
पर्यायदृष्टि व मानकषाय की विपदा व विडंबना― जीव को पर्यायदृष्टि ही एक बड़ी विपत्ति है। देह में आत्मबुद्धि करना, धन वैभव में ममकार बनाना, उन सबको अपनाना यह तो बड़ी भारी विपत्ति है। लोग सोचते हैं कि हम बड़ी समता में हैं। हम बड़े सुख में हैं, इतना धन जोड़ लिया है। इसको नष्ट न होने देंगे, हम बड़े आराम में हैं। अरे वह तो साक्षात् बड़ी विपत्ति में पडा हुआ है। विपत्ति है यहाँ विभावों की। भीतर तो देखो यह बेहोश है। उसकी कोई तो सावधानी नहीं है यह अपने आपमें इस तरह बेसुध पड़ा हुआ है।कर्मबंध होते, दुर्गतियों में जन्म लेता, इस विपदा को तो देखते नहीं, बाहरी बातों में विपदा का हिसाब लगाकर विरोध बढ़ाया जा रहा है। मानकषाय यह भी एक विपदा है। मानग्रंथि दूर करने से ही आत्मशांति का मार्ग मिल सकेगा। जब-जब मान का अभाव होगा तब-तब हेय और उपादेय की दृष्टि न रहेगी। बड़े-बड़े मिनिस्टर लोग या बड़ेऊँचे अधिकारी जन अपना मान रखने के लिए दूसरों पर कितना बड़ा अन्याय कर लेते हैं कि चाहे दूसरों की जान भी चली जाय। जैसे आजकल भी पाकिस्तान के युद्ध में लाखों बंगालियों का संहार हो रहा। तो वह किसी एक व्यक्ति के मान कषाय का ही तो फल चल रहा है। मान के साथ क्रोध जुड़ा हुआ है। ये दोनों लंगोटिया यार हैं। मान और क्रोध में जहाँ मान है वहाँक्रोध आना प्राकृतिक बात है। मान की पुष्टि न हुई तो क्रोध आया। तो बड़े से बड़े अन्याय कर दिये जाते हैं। दूसरे जीवों को कुछ नहीं सोचते। ऐसा मान कषाय में भयंकर अन्याय हो जाता है। तो हेय और उपादेय का विवेक कहाँ रहा?