वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 972
From जैनकोष
ज्ञानरत्नमपाकृत्य गृहणात्यज्ञानपन्नगम्।
गुरूनपि जनो मानी विमानयति गवर्त:।।972।।
मानकषायवशीभूत पुरुष द्वारा गुरुजनों का अपमान―मानी पुरुष ज्ञानरूपी रत्न को दूर करके अज्ञानरूपी सर्प का ग्रहण करता है। दृष्टांत दिया है एक ऐसी प्रसिद्धि हे कि किसी-किसी सर्प के मस्तक में रत्न होता है। मानो उसने अपने आप निकाल दिया, पास रख दिया, लेकिन रत्न को तो फेंक दे कोई व सर्प से प्यार करने लगे। ऐसे ही समझिये कि मानी पुरुष जब गर्व में आता है तो वह अपने गुरु को भी अपमानित कर देता है और कितने ही मानी तो गुरु का नाम तक कहने में लजाते हैं। जैसे किसी ने हारमोनियम सीखलिया और उससे कोई कहे कि भाई तुम तो बड़ी अच्छी हारमोनियम बजा लेते हो, तुमने किससे सीखा? तो वह कह देता हे अरे हमने तो यों ही अपने आप सीख लिया। तो उसने अपने गुरु का नाम छिपा लिया, इसलिए कि लोग समझें कि यह भाई तो बड़े बुद्धिमान हैं, स्वयं बुद्ध हैं। देखो इनमें इतनी बुद्धिमानी है कि बिना किसी के सिखाये ही स्वयं सीख लिया है। इस प्रकार की मानकषाय की पुष्टि उसके उन वचनों से होती है। और, फिर कभी समय पड़े तो वह अपने गुरु को अपमानित भी कर देता है। यह मानकषाय बहुत खोटा परिणाम है। उसकी बुद्धि में यह बात जहाँसमायी कि में कोई ऐसा प्रयत्न करूँ जिससे मैं अपने गुरु से भी ऊँचा जँचू, तो उसका प्रयत्न ऐसा ही होता है कि जिसमें गुरु अपमानित हो। तो ये सब पर्यायबुद्धि के परिणाम हैं। स्वभावदृष्टि अगर की हो तो ऐसी मान कषाय क्यों उत्पन्न हो? अपने को चाहिए कि हम स्वभावदृष्टि की उपासना में बहुत बढ़ें ताकि ये मान कषाय, ये ऐब सब स्वत: ही दूर हो जायें। एक ही अपना प्रोग्राम है। दृष्टि को निर्मल बनायें। दृष्टि में प्रभु के स्वरूप को रखना या आत्मस्वरूप की सुध लेना, इन दो कार्यों में अधिक समय व्यतीत हो तो इसमें हम आप सबकी भलाई है।