वर्णीजी-प्रवचन:ज्ञानार्णव - श्लोक 971
From जैनकोष
लुप्यते मानत: पुंसां विवेकामललोचनम्।
प्रच्यवंते तत: शीघ्रं शीलशैलाग्रसंक्रमात्।।971।।
मानकषाय से विवेकचक्षु का नाश तथा शीलशैल से प्रच्यवन― मान कषाय के कारण प्राणियों का भेदविज्ञान रूपी निर्मल नेत्र अंधा हो जाता है। मानकषाय वाले को भेद विज्ञान की दृष्टि नहीं रहती, जिस कारण से वह शीघ्र ही शीलरूपी पर्वत के शिखर से गिर जाता है याने शील से भी च्युत हो जाता है। जब विवेक न रहा तो शील कहाँ रहा? जब मान कषाय बन गया तो विवेक कहाँ रहा? और, लोक व्यवहार भी भला बन सकें, ऐसा विवेक नहीं रहता मानी के, भीतर अपने अस्तित्व का स्वाद ले सकें ऐसा भी ज्ञान नहीं रहता। यदि अंतस्तत्त्व के स्वाद ले सकने की पात्रता व्यक्त होती तो यह इतना तीव्र मान में क्यों आया? एक गुरु शिष्य थे। गुरु ने शिष्य को शस्त्र विद्या खूब भली प्रकार सिखा दी अब उस शिष्य को मान हो गया कि मैं तो इतना अभ्यस्त हो गया कि मैं तो अपने गुरु को भी हरा सकता हूँ। एक दिन कहा गुरुजी हम तो आपसे लड़ाई करेंगे। इतनी बात सुनकर गुरु अवाक रह गया। गुरु ने समझ लिया कि इस शिष्य को अभिमान हो गया है। गुरु बोला―अच्छा तुम किस चीज से लड़ाई लड़ोंगे?...जिस तरह से चाहो।...अच्छा हम लाठी से लड़ाई लडेंगे।...ठीक। अब गुरु ने क्या सोचा कि यह शिष्य तो मान कषाय में ग्रस्त है, इसकी बुद्धि तो बिगड़ गई है। ऐसा करें कि अपने घर के आगे एक 7-8 हाथ का लट्ठा रख ले, शिष्य देखेगा गुरुजी को कि लड़ाई के लिए क्या तैयारी कर रहे हैं। सो गुरु ने अपने द्वार पर एक 7-8 हाथ का लट्ठ खड़ा कर दिया। उस शिष्य ने देखा उस लट्ठ को तो सोचा कि हम तो गुरु से भी अधिक बढ़ी-चढ़ी तैयारी करेंगे जिससे कि लड़ाई में हमारी ही विजय हो सके। अब क्या था, शिष्य ने अपने द्वार पर कोई 20-25 हाथ का लंबा बाँस खड़ा कर लिया। अब युद्ध का समय आया तो गुरु तो अपने छोटे लट्ठ से लड़ने लगा और शिष्य उस बाँस से लड़ने लगा। पर उतना लंबा और वज़न बाँस उस शिष्य से चलाया से चलाया ही कैसे जा सकता था? इससे वह शिष्य हार गया। तो देखिये शिष्य ने मानकषाय के वश होकर यह चाहा कि में लोगों की दृष्टि मैं लोगों की दृष्टि में गुरुजी को हरा दूँ तो मेरी बढ़ाई उस गुरु से बढ़कर हो जायगी। तो यह क्या है? इस मानकषाय में जीव को विवेक नहीं रहता और जहाँ विवेक नहीं है वहाँ शील कहाँ है? शील के मायने सभी शील हैं स्वभाव ठीक रहना, नम्र रहना, सदाचार में रहना आदिक ये सब शील समाप्त हो जाते हैं।