वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 12
From जैनकोष
दुविहं पि गंथचायं तीसु वि जोएसु संजमो ठादि ।
णाणम्मि करणसुद्धे उब्भसणे दंसणं होदि ।। 12 ।।
(53) सपरिग्रह असंयमी साधकाभासों में जिनदर्शन के दर्शन का अभाव―अब इस गाथा में बतलाते हैं कि दर्शन के योग्य कौन है अथवा सम्यग्दर्शन किसके पाया जाता है, ऐसे साधुवों का कुछ परिचय है क्या? उसी का यहाँ समाधान दिया है, अथवा जिनदर्शन कहाँ देखने को मिलेगा? जिनेंद्रदेव ने जो संसार से छूटने का मार्ग बताया है उस मार्ग का दर्शन कहां मिलेगा उसका समाधान इस गाथा में किया है । जहां अंतरंग बहिरंग दोनों प्रकार के परिग्रहों का त्याग हो वहां जिनदर्शन देखने को मिलेगा । बाह्य परिग्रह क्या? ये खेत, धनधान्य, मकान, सोना-चांदी, दासी-दास आदिक सब बाह्य परिग्रह हैं । ये जहाँ बिल्कुल नहीं हैं वहाँ ही यह दर्शन मूर्ति मंत बनता है । सिवाय तीन उपकरण के चौथी बात कोई रखे तो 5वीं भी छठी भी रख सकता, फिर तो अनेक का भी रख सकता, फिर तो अनेक का भी बहाना बनाया जा सकता है ꠰ तीन उपकरण हैं साधु के―पिछी, कमंडल और शास्त्र । पिछी तो संयम पालन का उपकरण है । कमंडल शुद्धि का उपकरण है और शास्त्र ज्ञान का उपकरण है । इन तीन के अलावा और की क्या जरूरत पड़ी? इन तीन के रखने में राग नहीं है, किंतु एक वह मार्ग की बात है । मगर जैसे वस्त्र है, लोग कहते हैं कि एक वस्त्र रख लो, एक तौलिया लपेटे लो तो तौलिया लपेटे बिना भी ज्ञानसाधना नहीं होती क्या? आज तो मानो तौलिया लपेट लिया, कल फिर चद्दर या लंगोट की जरूरत पड़ेगी, फिर तो अनेक कपड़े हों जायेंगे । फिर तो एक परिग्रह की बात बन जायेगी, उसकी फिक्र रखनी पड़ेगी । उसे देखकर खुश होना है, उसे सम्हालना है, फिर तो उसे और भी चीजों की जरूरत महसूस होगी । वहाँ फिर जिनदर्शन मूर्तिमंत नहीं होता ।
(54) निर्ग्रंथ सहजपरमात्मतत्त्वद्रष्टावों में जिनदर्शन का दर्शन―केवल आत्मा का ध्यान करना जहाँ ध्येय है, अन्य सर्व पदार्थों से परम वैराग्य है । वहाँ बाह्य परिग्रहों का त्याग होता ही है और आभ्यंतर परिग्रहों का भी उनके त्याग है । आभ्यंतर परिग्रह क्या? कषायें । कषायों का परिहार है । कषायों का विकल्प करना नहीं रहता । कषाय को रखता भी नहीं, अकषाय भाव का ही जिनके मन में आशय बना है ऐसे साधु संतों में जिनदर्शन मूर्तिमंत होता है, कैसे संतजन हों जिनसे मोक्षमार्ग का उपदेश मिलता है? जो मन, वचन, काय तीनों योगों का संयम रखते हैं, स्वच्छंद मन नहीं प्रवर्ताते, वाणी स्वच्छंद नहीं निकालते, शरीर की भी स्वच्छंद चेष्टा नहीं होती ऐसे समाधि संयम में जो रहता हो वहाँ जिनमार्ग का उपदेश मिलता है । जिनका कार्य शुद्ध हो, कृतकारित अनुमोदना केवल धर्म ही विषय में हो, किसी भी पापकार्य के बारे में कृतकारित अनुमोदना रंच न हो, ज्ञान निर्दोष हो, पाणि पात्र आहार हो, जैसे एक वस्त्र रखना भी शल्य है, विकल्प है, चिंता का घर है इसी प्रकार आहार करने के लिए एक बर्तन भी रखना, कटोरी भी रखना वह भी एक शल्य है, वह भी एक परिग्रह है । अब उसे कहां सम्हाले, कहां धरे? इसीलिए पाणिपात्र आहार साधुजन किया करते हैं । अपने ही हाथ में भोजन ग्रहण करते हैं, ऐसी यथाजात दिगंबर मूर्ति जहाँ दया का भाव स्पष्ट लहराता है, वहाँ ही सम्यग्दर्शन है । विकार ज्ञान में न आये, विकार की अनुमोदना भी न बने, ऐसी कृतकारित अनुमोदना से जो अविकार रहता है वहाँ है दर्शन, सम्यग्दर्शन, जिनदर्शन ।
(55) मन, वचन काय से पापानुमोदनपरिहार का अनुरोध―किसी भी पाप की अनुमोदना करना यह एक बड़ा अपराध है और इसी कारण ज्ञानी पुरुष पाप वाले पुरुष की महिमा नहीं गाते । पापिष्ट पुरुष की विनय भक्ति भी नहीं करते, क्योंकि उससे पापकार्य में अनुमोदना मिलती है । सो जिनेंद्रदेव का यह ही मत है, यह ही मार्ग है, ऐसा ही शुद्ध वचनयोग है, वंदना के योग्य है, अन्य और पाखंड भेष ये वंदन पूजन के योग्य नहीं हैं, फिर भी भव से, लज्जा से, गारव से ऐसे पाखंडी साधुवों का विनय करे यह विनय करने वाले के लिए दोष है । और पाखंडी साधु ज्ञानियों से विनय चाहे मायने किसी से भी विनय चाहे तो यह उसके लिए दोष है । जिस साधु के सम्यक्त्व है, ज्ञान है, उसके, ऐसा भाव ही नहीं हो सकता कि मेरे को यह विनय करे, मेरे को यह नमस्कार करे, उसके संबंध में तो यह प्रसन्न घटता ही नहीं है । जो अज्ञानी साधु है चूंकि उसे पर्यायबुद्धि है, इस देह के भेष को ही अपने को परम पद में स्थित मान लिया है, शरीर में उसके मोह है, शरीर के भेष को ही अपना सर्वस्व समझ रहा है । तो जिसका आत्मा से स्पर्श नहीं, आत्मा की ओर दृष्टि नहीं, आत्मा की चर्चा नहीं वह तो अन्य साधारण पुरुषों की भांति अज्ञानी है, उसको ही यह चाह हो सकती है कि लोग मेरी विनयभक्ति करें, मेरे को पूजें, मेरी वंदना करें । तो ऐसा भाव करने वाला दुर्गति को प्राप्त होता है ।