वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 19
From जैनकोष
एवं जिणपण्णत्तं दंसणरयणं धरेह भावेण ।
सारं गुणरयणत्तय सोदाणं पढम मोक्खस्स ।। 19 ।।
(109) मोक्षप्रथम सोपान, रत्नत्रयसार सम्यक्त्वरत्न को धारण करने का अनुरोध―इस प्रकार जिनेंद्र भगवान के द्वारा कहा गया यह सम्यग्दर्शन रत्न है, इसको हे भव्य जीवों रुचि से हित की दृष्टि रख कर बड़े भाव पूर्वक धारण करो, क्योंकि रत्नत्रय में अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र इन तीन रत्नों में सार यह सम्यक्त्व है, मूल यह सम्यक्त्व है ꠰ सम्यक्त्व मोक्ष महल में पहुंचने के लिए पहली सीढ़ी हैं । इस सम्यग्दर्शन को अगर बाहरी बातें करके मान लिया, क्रियाकांडों में, पूजा पाठ में और और प्रकार के धार्मिक के कर्तव्यों में इनमें ही मैं ठीक कर रहा हूँ, मेरे को सम्यक्त्व हो गया और ऐसा ही जिनदर्शन का उपदेश है, वही मैं कर रहा हूँ, मेरे को सम्यक्त्व है, ऐसा संतोष करके कोई कहे तो उसने अभी सम्यक्त्व पाया नहीं । काम तो ये ही करने होंगे जब तक कोई गृहस्थी में रहे तब तक धर्म के नाम पर काम तो यही बनेंगे और सम्यक्त्व हों तो ये ही बनेंगे, न हो तो ये ही बनेंगे, मगर सम्यक्त्व हुए बाद उसकी पद्धति अंदर में बदल जायेगी । सम्यक्त्व हुए बिना तो यह बाहर में निरख-निरख कर यह ही मेरा आधार है । इस ही से हमारा उद्धार हैं, इस तरह का पर की ओर आकर्षण रहता हैं ꠰ सम्यक्त्व होने के बाद उसी मूर्ति के दर्शन किए जा रहे हैं, पर यह प्रभु की मूर्ति है, एक चैतन्य के विकास का नाम प्रभु है । वह चैतन्यविकास क्या है? मेरे ही समान चैतन्य है उसका विकास है ऐसा निरखकर वह अपनी ओर आकर्षित होता है । सहारा सम्यग्दृष्टि ने भी दर्शन आदिक का ही लिया मगर उसका आकर्षण स्वयं की ओर है और अज्ञानी का आकर्षण परत्व की ओर है, यह अंतर आ जाता है । यह ही काम सम्यक्त्व जग जाने पर उसको सही विधि से होता है, जिसमें आत्मानुभव के अनेक अवकाश आते हैं इस कारण रत्नत्रय का मूल आधार एक सम्यग्दर्शन है । इस सम्यक्त्व के बिना न सम्यग्ज्ञान में विकास होगा न सम्यक्̖चारित्र प्राप्त होगा न आत्मा में रम पाने का अवसर मिल पायगा । यह जीव यदि एक बार सर्व पर को भूलकर अविकार निज चैतन्यस्वरूप में अभेद मग्न हो, ज्ञान में ज्ञान ही समाया हो, जिसमें कोई तरंग न जगे, ऐसी ज्ञानमयी स्थिति पायी हो तो उसका जीवन धन्य होता है । उसने ही मनुष्य जीवन को सफल किया जिसने अपने आत्मस्वभाव का अपने आप में अपने आपके ही द्वारा अखंड अनुभव किया, उसके लिए फिर सब रास्ते खुल जाते हैं । यह सारा जगत उसे मायामय नजर आने लगता है? । सारा परिकर उसे नीरस हो जाता है और ज्ञानानंद स्वरूप निज अंतस्तत्त्व की भावना उसके दृढ़ होती है । तो इस तरह कल्याण मार्ग में चलने के लिए मूल सहारा सम्यग्दर्शन का है । सो हे भव्य जीव विधिपूर्वक तो व्यवहार सम्यक्त्व बनता हैं, उसका पालन करें और भूतार्थ विधि से, परिचय बनाकर कोई समय ऐसा पा लेंगे कि निश्चय सम्यक्त्व प्रकट हो जायेगा ꠰