वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 35
From जैनकोष
वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजओ य ।
चारित्तं वहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ।।35।।
अन्वय―वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहापरीसहजओ य चारित्तं वहुभेया भावसंवर विसेसा णायव्वा ।
अर्थ―व्रत समिति, गुप्ति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र बहुत भेद वाले ये सब भावसंवर के विशेष जानना चाहिये ।
प्रश्न 1―व्रत किसे कहते हैं?
उत्तर―शुद्ध चैतन्यस्वभावमय निज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना से शुभ अशुभ समस्त रागादि विकल्पों की निवृत्ति हो जाना व्रत है ।
प्रश्न 2―इस व्रत की साधना के उपाय क्या हैं?
उत्तर―व्रतसाधन के उपायभूत व्यवहारव्रत 5 प्रकार के है―(1) अहिंसा, (2) सत्य, (3) अचौर्य, (4) ब्रह्मचर्य, (5) अपरिग्रह ।
प्रश्न 3―अहिंसाव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर―अपने व परप्राणियों के प्राणों का घात नहीं करना, पीड़ा नहीं पहुंचाना तथा संक्लेश व दुर्भाव नहीं करना, सो अहिंसाव्रत है ।
प्रश्न 4―सत्यव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर―स्वपर के अहित करने वाले विपरीत वचन नहीं बोलना और न ऐसे वचन बोलने का भाव करना, सो सत्यव्रत है ।
प्रश्न 5―अचौर्यव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर―किसी की अधिकृत वस्तु की उसकी हार्दिक स्वीकृति के बिना न लेने और किसी भी परपदार्थ को अपना न समझने को अचौर्यव्रत कहते हैं ।
प्रश्न 6―ब्रह्मचर्यव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर―मैथुन के परित्याग करने व तद्विषयक सभी प्रकार की वान्छावों के न करने को ब्रह्मचर्यव्रत कहते हैं ।
प्रश्न 7―अपरिग्रहव्रत किसे कहते हैं?
उत्तर―हिंसा के परिहार के लिये कोमल पीछी, शुद्धि के लिये कमंडल व ज्ञानवृद्धि के लिये 2-1 पुस्तक के अतिरिक्त किसी भी प्रकार की वस्तु न रखने और समस्त परपदार्थों में मूर्च्छा (ममत्व) न करने को अपरिग्रहव्रत कहते हैं ।
प्रश्न 8―ये 5 प्रकार के व्रत भावसंवर के विशेष क्यों हैं?
उत्तर―इन पाँच प्रकार के व्रतों के आचरण से शुद्धोपयोग की साधना सुगम है, अत: ये भावसंवर के विशेष हैं । यदि व्रतों के पालन के विकल्प तक ही परिणाम हों तो वह भावसंवर नहीं हें, किंतु शुभ आस्रव हैं ।
प्रश्न 9―समिति किसे कहते हैं?
उत्तर―चैतन्यस्वभावमय निज परमात्मतत्त्व में सम सम्यक् भले प्रकार से अर्थात् रागादिनिरोधपूर्वक स्वभावलीनता से पहुंचने को समिति कहते हैं ।
प्रश्न 10―इस समिति के साधना के अर्थ व्यावहारिक कर्तव्य क्या हैं?
उत्तर―समितिसाधन के उपायभूत व्यवहारसमिति 5 हैं―(1) ईर्यासमिति, (2) भाषासमिति, (3) ऐषणासमिति, (4) आदाननिक्षेपणसमिति और (5) प्रतिष्ठापनासमिति ।
प्रश्न 11―ईर्यासमिति किसे कहते हैं?
उत्तर―समुचित कर्म के लिये सूर्यप्रकाश में चार हाथ आगे जमीन देखते हुए उत्तम भावसहित चलने को ईर्यासमिति कहते हैं ।
प्रश्न 12―भाषासमिति किसे कहते हैं?
उत्तर―हित मित प्रिय वचन बोलने को भाषासमिति कहते हैं ।
प्रश्न 13―ऐषणासमिति किसे कहते हैं?
उत्तर-―आत्मचर्या की साधना का भाव रखने वाले साधु की 46 दोषरहित व 14 मलरहित एवं अध:कर्म और दोषरहित तथा 32 अंतराय टालकर निर्दोष आहार करने की चर्या को ऐषणासमिति कहते हैं ।
प्रश्न 14―आहारसंबंधी 46 दोष कौन-कौन होते हैं ।
उत्तर―उद्गमदोष 16, उत्पादनदोष 16, अशनदोष 10, मुक्तिदोष 4, इस प्रकार 46 दोष आहारसंबंधी होते हैं ।
प्रश्न 15―उद्गमदोष कौन-कौन हैं?
उत्तर―(1) उद्दिष्ट, (2) साधिक, (3) पूति, (4) मिश्र, (5) प्राभृत, (6) बलि, (7) न्यस्त, (8) प्रादुष्कृत, (9) क्रीत, (10) प्रामित्य, (11) परिवर्तित, (12) निषिद्ध, (13) अभिहृत, ( 14) उद्भिन्न, (15) आच्छेद्य, (16) आरोह-―ये 16 उद्गमदोष हैं ।
प्रश्न 16―उद्दिष्टदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―किसी भी बेश वाले गृहस्थों, सर्व पाखंडियों, सर्वपार्श्वस्थों या सर्वसाधुवों के उद्देश्य से बनाये हुए भोजन को उद्दिष्ट कहते हैं ।
प्रश्न 17―उद्दिष्ट में क्या दोष हो जाता है?
उत्तर―श्रावक की प्रवृत्ति अतिथिसंविभाग की होती है । श्रावक अपने आहार को स्वयं इस प्रकार बनाता है कि वह एक पात्र को दान देकर भोजन किया करे । मुनि इस प्रकार श्रावक के लिये बने हुए भोजन का अधिकारी हो सकता है । इसके विपरीत बने हुए भोजन में आरंभ विशेष होने से उस उद्दिष्ट भोजन के आहार में सावद्य का दोष हो जाता है ।
प्रश्न 18―साधिक दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―यदि दाता अपने लिये पकते हुये भोजन में मुनियों को दान देने के अभिप्राय से और अन्नादि डाल देने को साधिक दोष कहते हैं अथवा भोजन तैयार होने में देर हो तो पूजा या धर्मादिक प्रश्न के छल से साधु के रोक लेने को साधिक दोष कहते हैं ।
प्रश्न 19―साधिक में क्या दोष हो जाता है?
उत्तर―इस आरंभ में भी साधु का निमित्त हो जाने का दोष हो जाता है ।
प्रश्न 20―पूति दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―पूति दोष के दो प्रकार है (1) अप्रासुमिश्रण, (2) पूतिकर्मकल्पना । प्रासुक वस्तु में अप्रासुक वस्तु मिला देने को अप्रासुमिश्रण कहते हैं और ऐसी कल्पना करने को कि इस बर्तन द्वारा अथवा इस बर्तन में पके हुए भोजन का या अमुक भोजन का दान जब तक साधुवों को न हो जाये तब तक इसका उपयोग नहीं किया जाये पूतिकर्मकल्पना दोष कहते हैं । इसी तरह चक्की, ओखली, जूता आदि के संबंध में भी कल्पना करने को भी पूतिकर्मकल्पना दोष कहते हैं ।
प्रश्न 21―पूति में क्या दोष हो जाता है?
उत्तर―इसमें अप्रासुमिश्रण में तो हिंसा का दोष तथा पूतिकर्मकल्पना में साधु के निमित्त के संबंध का दोष हो जाता है ।
प्रश्न 22―मिश्रदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―प्रासुक भी आहार हो तो भी यदि पाखंडियों और गृहस्थों के साथ-साथ साधुवों को देने की बुद्धि से बनाया हुआ भोजन हो तो उसे मिश्रदोष सहित कहते हैं ।
प्रश्न 23―इस मिश्र में क्या दोष हो जाता है?
उत्तर―इसमें असंयमियों से स्पर्श, दीनता व अनादर आदि होने का दोष हो जाता है ।
प्रश्न 24―प्राभृत दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―प्राभृत दोष दो प्रकार के होते हैं―एक तो वादरप्राभृत और दूसरा सूक्ष्मप्राभृत ।
ऐसा संकल्प करके कि मैं अमुक माह आदि की अमुक तिथि को अतिथिसंविभागव्रत पालूंगा, फिर उस तिथि के बदले पहिले या बाद में दान देना, सो वादरप्राभृत दोष है । ऐसा संकल्प करके कि दिन के पूर्वभाग में उत्तरभाग में पात्र दान करूंगा, फिर उस समय के बाद या पहिले पात्र दान करना सूक्ष्मप्राभृत दोष है ।
प्रश्न 25―प्राभृतदोष में क्या दोष हो जाता है?
उत्तर―इस वृद्धि हानि से परिणामों की संक्लेशता उत्पन्न हो जाती है ।
प्रश्न 26―बलिदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―यक्ष पित्रादि देवता के लिये बनाये हुये आहार में से बचा हुआ आहार यतियों को देना बलिदोष है तथा बचे हुये अर्घ्य जलादिक से यतियों की पूजा करना बलिदोष है ।
प्रश्न 27―बलिदोष में किस दोष की सिद्धि है ।
उत्तर―इसमें सावद्य दोष की सिद्धि है ।
प्रश्न 28―न्यस्त दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस बर्तन में भोजन बनाया गया हो, उसमें से निकालकर कटोरी आदि में रखकर अपने घर या परगृह कहीं रख देने को न्यस्त दोष कहते हैं ।
प्रश्न 29―न्यस्त में क्या दोष हो जाता है?
उत्तर―इसमें दो दोष हो जाते हैं-―एक तो नया आरंभ हुआ और फिर उसमें से यदि कोई दूसरा दातार उसको दे तो उसमें गड़बड़ी भी हो सकती है ।
प्रश्न 30―प्रादुष्कृत दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―प्रादुष्कृत दोष दो प्रकार से होता है―(1) संक्रम, (2) प्रकाश । साधु के घर आ जाने पर भोजन के पात्र आदि को एक जगह से दूसरी जगह ले जाना, सो संक्रम प्रादुष्कृत है । साधु के घर आ जाने पर किवाड़ मंडप आदि दूर करना, भस्म या जलादिक से बर्तनादि को साफ करना, दीपक जलाना आदि प्रकाश दोष है ।
प्रश्न 31―प्रादुष्कृत में दोष किस कारण से है?
उत्तर―इसमें नैमित्तिक आरंभ व ईर्यापथादिक में हानि का दोष आता है ।
प्रश्न 32―क्रीत दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―जब साधु भिक्षा के अर्थ घर आवे तब गौ आदिक सचित द्रव्य या सुवर्ण चांदी आदि अचित्त द्रव्य देकर भोजन लाया जावे, उसे क्रीत दोष कहते हैं ।
प्रश्न 33―क्रीत दोष में क्या हानि होती हे?
उत्तर―इसमें नैमित्तिक आरंभ व विकल्पों का बाहुल्य होता है ।
प्रश्न 34―प्रामित्य दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―प्रामित्य दोष दो प्रकार का होता है―(1) वृद्धिमत् और (2) अवृद्धिमत् । ब्याज पर उधार लाये हुये अन्न को वृद्धिमत् प्रामित्य कहते हैं और बिना ब्याज के उधार लाये अन्न को अवृद्धिमत् प्रामित्य कहते हैं । इन दोनों प्रकार के प्रामित्य के आहार देने को प्रामित्य दोष कहते हैं ।
प्रश्न 35―प्रामित्य के आहार में क्या दोष हुआ?
उत्तर―उधार लाने और उसके चुकाने में दाता को अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं, ऐसा कष्टसाध्य आहार मधुर की वृत्ति वाले साधु के अयोग्य है । ऐसा आहार करने में अदया का दोष उत्पन्न होता है ।
प्रश्न 36―परिवर्तित दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―भिक्षार्थ साधु के आने पर किसी से किसी भोज्य पदार्थ के बदले में कोई अन्य भोज्य पदार्थ लेने को परिवर्तित दोष कहते हैं ।
प्रश्न 37―परिवर्तित आहार में क्या दोष हो जाता है?
उत्तर―इसमें भी दाता को संक्लेश होता है, अत: उस आहार में भी अदया का दोष उत्पन्न हो जाता है ।
प्रश्न 38―निषिद्ध दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―कोई चीज किसी के मना करने पर भी साधुवों को आहार के लिये दी जावे तो उसे निषिद्ध दोष कहते हैं । निषेधकों के भेद से इसके 6 भेद हो जाते हैं । निषेधक 6 प्रकार के ये हैं―(1) व्यक्त ईश्वर, (2) अव्यक्त ईश्वर, (3) उभय ईश्वर, (4) व्यक्त अनीश्वर, (5) अव्यक्त अनीश्वर, (6) उभय अनीश्वर । निरपेक्ष अधिकारी को व्यक्तईश्वर व सापेक्ष अधिकारी को अव्यक्तईश्वर व सापेक्ष निरपेक्ष अधिकारों को या संयुक्त व्यक्तियों को उभयईश्वर कहते हैं । इसी प्रकार अनीश्वर (अनधिकारी) याने नौकर आदि में भी लगाना ।
प्रश्न 39―निषिद्ध में क्या दोष आता है?
उत्तर―दीनता, अशिष्टता आदि अनेक दोष आते हैं ।
प्रश्न 40-―अभिहृत दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―लाइन में स्थित सात मकानों को (एक दाता का व तीन एक ओर के) व तीन दूसरी ओर के छोड़कर बाकी अन्य किसी स्थान से चाहे मौहल्ला हो या गांव हो या परगाँव या परदेश, आये भोज्य पदार्थों को अभिकृत कहते हैं । अभिहृत पदार्थों के आहार को अभिहृत दोष कहते हैं ।
प्रश्न 41―अभिहृत आहार में क्या दोष आता है?
उत्तर-―इसमें ईर्यापथशुद्धि नहीं हो सकती है, अत: जीवहिंसा का दोष आता है ।
प्रश्न 42―उद्भिन्न दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―घी, गुड़, किशमिश आदि कोई वस्तु किसी डिब्बे आदि में पैक हो, डिब्बे का मुख मिट्टी आदि से बंद हो या सील, मोहर लगी हो उसे खोलकर उस चीज के देने को उद्भिन्न दोष कहते हैं ।
प्रश्न 43―उद्भिन्न आहार में क्या दोष है?
उत्तर-―इसमें जीवदया की सावधानी नहीं हो सकती व तुरंत खोलकर देने में उस वस्तु का शोधन भी ठीक नहीं हो सकता, चींटी आदि का प्रवेश हो तो उसका वारण कठिन है ।
प्रश्न 44―आच्छेद्य दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―राजा, मंत्री आदि बड़े पुरुषों के भय से श्रावक आहारदान करे तो उसे आच्छेद्य दोष कहते हैं ।
प्रश्न 45-―आच्छेद्य में क्या दोष होता है?
उत्तर―जबरदस्ती बिना अनुराग का भोजन लिये जाने का दोष आता है, यह गृहस्थ के संक्लेश का कारण है ।
प्रश्न 46―मालारोहण दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―सीढ़ी अथवा नसैनी पर चढ़कर अटारी वगैरह ऊपर के खंड से भोज्य पदार्थ लाकर साधुवों को देने को मालारोहण दोष कहते हैं ।
प्रश्न 47―मालारोहण में क्या दोष हो जाता है?
उत्तर―इसमें ईर्यापथशुद्धि नहीं रहती व गृहस्थ के विक्षेप होता है, उसके गिरने तक की भी संभावना रहती है । इसमें अदया का दोष होता है ।
प्रश्न 48―उक्त 16 उद्गमदोष किसकी चेष्टा के निमित्त से होते हैं?
उत्तर―उक्त 16 उद्गमदोष दातार श्रावक की चेष्टा के निमित्त से होते हैं । दातार श्रावक को चाहिये कि ये 16 उद्गमदोष को टालकर साधु को आहार देवे । यदि साधु को मालूम हो जावे कि दातार ने इन 16 उद्गमदोषों में से कोई दोष किया है तो साधु उस आहार को नहीं लेते हैं ।
प्रश्न 49―उद्गम शब्द का निरुक्त्यर्थ क्या है?
उत्तर―उत̖ = उन्मार्ग, गम = गमन कराये याने ले जाये, जो उन्मार्ग की ओर ले जाये उसे उद्गम कहते हैं । तात्पर्य―जिन क्रियाओं के द्वारा भोज्य द्रव्य उन्मार्ग अर्थात् आगम की आज्ञा के विरुद्ध याने रत्नत्रय की घातक सिद्ध हो, ऐसी दाता की क्रियाओं को उद्गमदोष कहते हैं ।
प्रश्न 50―उत्पादन दोष 16 कौन-कौन से हैं?
उत्तर―उत्पादन दोष ये हैं―(1) धात्रीदोष, (2) दूतदोष, (3) निमित्तदोष, (4) वनीपकवचनदोष, (5) आजीवदोष, (6) क्रोधदोष, (7) मानदोष, (8) मायादोष, (9) लोभदोष, (10) पूर्वस्तुतिदोष, (11) पश्चात्स्तुतिदोष, (12) वैद्यकदोष, (13) विद्यादोष, (14) मंत्रदोष, ( 15) पूर्णदोष, (16) वशदोष ।
प्रश्न 51―धात्रीदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―पाँच प्रकार की धात्रियों में से किसी भी धात्री जैसा गृहस्थ के बालक के प्रति प्रयोग करके या प्रयोग कराकर अथवा उपदेश देकर इस कारण से अनुरक्त गृहस्थ के द्वारा दिये हुये भोजन को ग्रहण करना धात्रीदोष है ।
प्रश्न 52―धात्रीदोष में दोष क्या आया?
उत्तर―इसमें साधु का यह अभिप्राय रहता है कि इस रीति से गृहस्थ भोजन देने को अथवा उत्तम भोजन देने को उत्साहित होगा । यह अभिप्राय साधुता में बड़ा दोषरूप है ।
प्रश्न 53―पांच प्रकार की धात्री कौन-कौन हैं?
उत्तर―धात्री के पाँच भेद ये है―(1) मार्जनधात्री, (2) क्रीडनधात्री, (3) मंडनधात्री, (4) क्षीरधात्री, (5) स्वापनधात्री, ।
प्रश्न 54―मार्जनधात्री, किसे कहते हैं?
उत्तर―जो बालक को स्नान कराने का कार्य करके बालक का पोषण करे उसे मार्जनधात्री कहते हैं ।
प्रश्न 55―क्रीडनधात्री किसे कहते हैं?
उत्तर―जो बालक को नाना प्रकार से क्रीडा करावे उसे क्रीडनधात्री कहते हैं ।
प्रश्न 56―मंडनधात्री किसे कहते हैं?
उत्तर―जो बालक को यथोचित भूषण आभूषण द्वारा अलंकृत करे उसे मंडनधात्री कहते हैं ।
प्रश्न 57―क्षीरधात्री किसे कहते हैं?
उत्तर―जो बालक को दूध पिलाकर पुष्ट करे उसे क्षीरधात्री कहते हैं ।
प्रश्न 58―स्वापनधात्री किसे कहते हैं?
उत्तर―जो बालक को सुलाने की सेवा करे उसे स्वापनधात्री कहते हैं ।
प्रश्न 59―दूतदोष किसे कहते है?
उत्तर―संबंधी पुरुषों का संदेश ले जाकर, कहकर संतुष्ट किये गये दाता के द्वारा दिये हुये भोजन का लेना सो दूतदोष है ।
प्रश्न 60―इसमें क्या दोष आता है?
उत्तर―इस दूतदोष नाम का दूसरे उत्पादन दोष में साधु के इस उपाय से भोजन उपार्जन करने का भाव रहता है व जिनशासन में दूषण लगता है ।
प्रश्न 61―निमित्तदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―अष्टांगनिमित्त के ज्ञान को बताकर व उसके फल को बताकर संतुष्ट किये गये दाता के द्वारा दिये गये आहार के करने को निमित्तदोष कहते हैं ।
प्रश्न 62―भविष्यफल के निर्देशक निमित्त के आठ अंग कौन से है?
उत्तर―भविष्यफल के निर्देशक निमित्त के आठ अंग ये हैं―(1) व्यंजन, (2) अंग (3) स्वर, (4) छिन्न, (5) भौम, (6) अंतरिक्ष, (7) लक्षण और (8) स्वप्न ।
प्रश्न 63―व्यंजन निमित्त किसे कहते हें?
उत्तर―शरीर के किसी अंग में तिल, मस्सा, लहसन आदि व्यंजन देखकर उससे शुभ तथा अशुभ फल जानने को व्यंजन निमित्त कहते हैं ।
प्रश्न 64―अंगनामक निमित्त किसे कहते हैं?
उत्तर―मस्तक, गला, हाथ, पैर, पेट, अंगुली आदि शरीर के अंगों को देखकर मनुष्य का शुभ अशुभ जानने को अंगनिमित्त कहते हैं ।
प्रश्न 65-―स्वरनिमित्त किसे कहते हैं?
उत्तर―मनुष्य, तिर्यन्च या अचेतनवस्तु के शब्द सुनकर त्रिकाल संबंधी शुभ अशुभ जानने को स्वरनिमित्त कहते हैं ।
प्रश्न 66―भौमनिमित्त किसे कहते हैं?
उत्तर-―भूमि का रूखापन, चिकनापन आदि -देखकर भूमि के अंदर पानी निधि आदि को जान लेने व शुभ, अशुभ, जीत, हार जान लेने को भौमनिमित्त कहते हैं ।
प्रश्न 67―अंतरिक्षनिमित्त किसे कहते हैं?
उत्तर―सूर्य चंद्र आदि के ग्रहण व ग्रहों के उदय, अस्त व उल्कापात आदि देखकर त्रिकाल संबंधी शुभ अशुभ के जानने को अंतरिक्षनिमित्त कहते हैं ।
प्रश्न 68―लक्षणनिमित्त किसे कहते हैं?
उत्तर―हथेली आदि शरीर के अवयवों में कमल, चक्र, मीन, कलश आदि चिन्हों को देखकर शुभ अशुभ जानने को लक्षणनिमित्त कहते हैं ।
प्रश्न 69―स्वप्ननिमित्त किसे कहते हैं?
उत्तर―शुभ अशुभ स्वप्नों के अनुसार शुभ अशुभ फल जानने को स्वप्ननिमित्त कहते हैं ।
प्रश्न 70―निमित्तदोष में क्या दोष आता है?
उत्तर―निमित्त नामक उपादान दोष में रसास्वादन, दीनता आदि दोष हैं ।
प्रश्न 71―वनीपकवचनदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―भोजनादि ग्रहण करने के अभिप्राय से बनीपक (याचक) की तरह दाता के अनुकूल वचन बोलकर आहार ग्रहण करने को वनीपकवचनदोष कहते हैं । जैसे कोई दाता पूछे कि कुत्ता, कौवा, मांसभोगी ब्राह्मण इत्यादि को दान देने में पुण्य है या नहीं, तब उत्तर देना हाँ है आदि ।
प्रश्न 72―वनीपकवचनदोष में क्या दोष आता है?
उत्तर―वनीपकवचन में दीनता का दोष आता है ।
प्रश्न 73―आजीव दोष किसे कहते हैं?
उत्तर―अपनी जाति, कुल की शुद्धता प्रकट करके अपनी कला, चतुरता प्रकट करके यंत्र-मंत्र करके लोकों के द्वारा आहार उपार्जित करने को आजीव दोष कहते हैं ।
प्रश्न 74―आजीवकर्म में क्या दोष आता है?
उत्तर―इसमें दीनता, लिप्सा, कल्याणमार्ग में प्रमाद आदि दोष आते हैं ।
प्रश्न 75―क्रोधदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―क्रुद्ध होकर भोजनादि प्रबंध कराने व ग्रहण करने को क्रोधदोष कहते हैं ।
प्रश्न―76―इसमें क्या दोष आता है?
उत्तर―संयम की हानि, उन्मार्ग का प्रसार आदि दोष आते हैं ।
प्रश्न 77―मानदोष किसे कहते है?
उत्तर―अभिमान के वश होकर आहार ग्रहण करने को मानदोष कहते हैं ।
प्रश्न 78-―इसमें क्या दोष आता है?
उत्तर―रसगौरव, संयमहानि, उन्मार्ग आदि दोष आते हैं ।
प्रश्न 79-―मायादोष किसे कहते हैं?
उत्तर―मायाचार, छल, कपट सहित भोजनादि ग्रहण करने को मायादोष कहते हैं ।
प्रश्न 80―इसमें क्या दोष आता है?
उत्तर―सम्यक्त्वहानि, संयमहानि के दोष मायादोष में उत्पन्न हो जाते हैं ।
प्रश्न 81-―लोभदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―क्षुब्ध परिणामों से आहारादि ग्रहण करने को लोभदोष कहते हैं ।
प्रश्न 82-―इस दोष से क्या अनर्थ होता है?
उत्तर-―लोभदोष से मूल गुण में हानि, स्वभावदृष्टि की अयोग्यता हो जानें के अनर्थ हो जाते हैं ।
प्रश्न 83-―पूर्वस्तुतिदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―दातार की पहिले प्रशंसा करके अपनी ओर आकर्षित कर दातार से भोजनादि ग्रहण करने को पूर्वस्तुतिदोष कहते हैं ।
प्रश्न 84-―इस दोष से क्या अनर्थ होता है?
उत्तर-―इसमें परमुखापेक्षा, कृपणता, आत्मगौरवनाश आदि अनर्थ होते हैं ।
प्रश्न 85-―पश्चात्स्तुतिदोष किसे कहते हैं?
उत्तर-―आहार ग्रहण करने के बाद दाता की प्रशंसा स्तुति करना, सो पश्चात्स्तुति नामक दोष है ।
प्रश्न 86-―इस दोष से क्या अनर्थ है?
उत्तर―आगे भी भोजन प्रबंध हमारा अच्छा रहे, इस अभिप्राय से यह दोष होता है । इससे निदान, कृपणता, आत्मगौरवनाश आदि अनर्थ होते हैं ।
प्रश्न 87―चिकित्सादोष किसे कहते हैं?
उत्तर―आठ प्रकार की चिकित्सा में से एक या अनेक चिकित्सा के द्वारा उपकार करके या उनका उपदेश करके आहारादि लेने को चिकित्सादोष कहते हैं । चिकित्सायें 8 ये है―(1) बालचिकित्सा, (2) अंगचिकित्सा, (3) रसायनचिकित्सा, (4) विषचिकित्सा, (5) भूतापनदन, (6) क्षारतंत्र (7) शलाकाचिकित्सा, (8) शल्यचिकित्सा ।
प्रश्न 88―चिकित्साकर्म में क्या दोष होता है?
उत्तर―चिकित्सावों करि भोजन करने में सावद्यादि अनेक दोष होते हैं ।
प्रश्न 89-―विद्यादोष किसे कहते हैं?
उत्तर―होम जप आदि द्वारा साधित विद्यावों को बुलाकर उनसे प्राप्त हुई आहार औषधि ग्रहण करने को अथवा दातार को विद्या देने की आशा देकर आहारादि ग्रहण करने को विद्योत्पादन दोष कहते हैं ।
प्रश्न 90―इसमें क्या दोष आता है?
उत्तर-―विद्यादोष में स्वरूप की असावधानी, आत्मविश्वास का अभाव आदि दोष आते हैं ।
प्रश्न 91―मंत्रदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―गुरुमुख से अध्ययन किये हुये और सिद्ध हुये मंत्र से देवता का आमंत्रण करके उनसे संपन्न हुए आहार ग्रहण करने को अथवा सुखदायक मंत्र की आशा देकर दातार से आहार ग्रहण करने को मंत्रदोष कहते हैं ।
प्रश्न 92-―इसमें क्या दोष है?
उत्तर-―विद्यादोष की तरह इसमें भी अनेक दोष हैं ।
प्रश्न 93-―-चूर्णदोष किसे कहते हैं?
उत्तर-―दातार के लिये भूषाचूर्ण व अंजनचूर्ण को संपादित करके उसके यहाँ आहार ग्रहण करने को चूर्णदोष कहते हैं ।
प्रश्न 94―इसमें क्या दोष होता है?
उत्तर―आजीविकावत् आरंभ का दोष इसमें होता है ।
प्रश्न 95-―वशदोष किसे कहते हैं?
उत्तर-―जो जिसके वश में न हो उसे वश में करने का उपाय बताकर या वैसी योजना कर या परस्पर वियुक्त हुये स्त्री पुरुषों का मेल कराकर या उपाय बताकर भोजन ग्रहण करने को वशदोष कहते हैं ।
प्रश्न 96―इस दोष में क्या अनर्थ है?
उत्तर―निर्दयता, पीडोत्पादन, रागवृद्धि, लज्जाकर्म, ब्रह्मचर्य के अतिचार आदि अनेक अनर्थ इस दोष से उत्पन्न होते हैं ।
प्रश्न 97―उत्पादन दोष का निरुक्त्यर्थ क्या है?
उत्तर―जिनमार्ग विरुद्ध क्रियावों द्वारा भोजन उत्पन्न कराया जाये उन क्रियाओं को उत्पादन दोष कहते हैं ।
प्रश्न 98―उत्पादन दोष किसके आश्रित होते हैं?
उत्तर―उत्पादनदोष साधु पात्र के आश्रित होते हैं, क्योंकि ये दोष साधु के शिथिल भाव और क्रियाओं से उत्पन्न होते हैं ।
प्रश्न 99-―अशनदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―भोज्य पदार्थ से संबंध रखने वाले दोषों को अशनदोष कहते हैं ।
प्रश्न 100―अशनदोष के भेद कौन-कौन हैं?
उत्तर―शंकित, पिहित, म्रक्षित, निक्षिप्त, छोटित, अपरिणत, व्यवहरण, दायक, लिप्त और विमिश्र, ये दस दोष अशनसंबंधी हैं ।
प्रश्न 101―शंकितदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―चार प्रकार के अशन में कोई ऐसी शंका उत्पन्न हो जाये कि वह आहार आगम में लेने योग्य बताया या नहीं अथवा यह आहार शुद्ध भक्ष्य है या नहीं, ऐसे शंकासहित भोजन के करने को शंकितदोष कहते हैं ।
प्रश्न 102―पिहितदोष किसे कहते हें?
उत्तर―अप्रासुक वस्तु या वजनदार प्रासुक वस्तु से ढके हुए जिस भोजन को उघाड़ कर दिया जावे उस भोजन के ग्रहण करने को पिहितदोष कहते हैं ।
प्रश्न 103―म्रक्षितदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―घी, तेल आदि के द्वारा सचिक्कण हुए हाथ या चम्मच कटोरी आदि से दिये गये आहार के ग्रहण करने को म्रक्षितदोष कहते हैं ।
प्रश्न 104―निक्षिप्त नामक अशनदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―जो भोजन वस्तु सचित्तत पृथ्वी, जल, अग्नि, बीजरहित और त्रस जीव पर रखी हो उस पदार्थ के ग्रहण करने को निक्षिप्तदोष कहते हैं ।
प्रश्न 105―छोटित नामक अशनदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―कुछ भोज्यसामग्री को गिराकर कुछ के ग्रहण करने को, अनिष्ट आहार छोड़कर इष्ट आहार के ग्रहण करने को, जिससे भोज्यसामग्री टपकती रहे, ऐसे हाथ से आहार के ग्रहण करने को छोटितदोष कहते हैं ।
प्रश्न 106―अपरिणत नामक अशनदोष किसे कहते है?
उत्तर-जिसका वर्ण, गंध, रस न पलटा हो, ऐसे चूर्णमिश्रित जल को चने, चावल आदि के धोवन के जल को ग्रहण करना, सो अपरिणत दोष है ।
प्रश्न 107―व्यवहरण नामक अशनदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―दातार अपने लट के हुये वस्त्र को यत्नाचाररहित खींचकर व बर्तन, चौकी आदि को घसीटकर और भी यत्नाचार रहित होकर आहार देवे उस आहार के ग्रहण करने को व्यवहरणदोष कहते हैं ।
प्रश्न 108―दायकदोष नामक अशनदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―जिनका दिया हुआ आहार साधु को ग्रहण करना योग्य नहीं उनके दिये हुए आहार के ग्रहण करने को दायकदोष कहते हैं । अयोग्य दायक ये हैं―मद्यपायी, रोगपीड़ित, पिशाचमूर्च्छित, रजस्वला, बच्चे का प्रसव करने वाली (40 दिन तक) वमन करके आया हुआ, शरीर में तेल लगा रखने वाला, भींत की आड में स्थित, पात्र के स्थान से नीचे या ऊँचे प्रदेश पर स्थित, नपुंसक, जातिच्युत, पतित, मूत्रक्षेपण करके आया हो, नग्न, वेश्या, संन्यासलिंगधारण करने वाली, अति बाला (8 वर्ष से कम), वृद्धा, गर्भिणी (5 मास से ऊपर गर्भ वाली), खाती हुई, अच्छा, बैठी हुई, अग्नि जलाने वाला, अग्नि बुझाने वाला, अग्नि को भस्म से ढांकने वाला, अग्नि घिट्टने वाला, मकान लीपने वाला, एक वस्त्रधारी, दूध पीते बच्चे को छोड़कर आने वाली, बच्चों को नहलाने वाली आदि दातार पात्रदान के अयोग्य हैं ।
उक्त दातारों में कोई विशेषण तो केवल स्त्रियों में घटित होते हैं, कोई विशेषण स्त्री-पुरुष दोनों में घटित होते हैं, इसलिये शब्दलिंग पर ध्यान देकर यथासंभव स्त्री-पुरुषों में विशेषण लगा लेना चाहिये ।
प्रश्न 109―लिप्त नामक अशनदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―गेरु, खड़िया, आटा, हरित, अप्रासुक जल आदि से भीगे हुए हाथ या बर्तन द्वारा भोजन के ग्रहण करने को लिप्तदोष कहते हैं ।
प्रश्न 110―विमिश्रदोष नामक अशनदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस भोजन में सचित्त पृथ्वी, जल, बीज, हरित और जीवित त्रस मिले हुए हों उस भोजन को विमिश्रदोष से दूषित कहा है ।
प्रश्न 111―मुक्तिदोष 4 कौन-कौन से हैं?
उत्तर―(1) अंगार, (2) धूम्र, (3) संयोजना और (4) अतिमात्र, ये चार महादोष हैं ।
प्रश्न 112―अंगार नामक भुक्तिदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―यह वस्तु अच्छी है, स्वादिष्ट है, कुछ और मिले, इस प्रकार अत्यासक्ति भावपूर्वक भोजन करने को अंगारदोष कहते हैं ।
प्रश्न 113―धूमदोष नामक भुक्तिदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―यह वस्तु अच्छी नहीं बनी, अनिष्ट है, इस प्रकार ग्लानि करते हुए भोजन करने को धूमदोष कहते हैं ।
प्रश्न 114―संयोजना नामक भुक्तिदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―गर्म और ठंडा, चिकना और रूखा अथवा आयुर्वेद में बताये गये परस्पर विरुद्ध पदार्थों को मिलाकर खाना सो संयोजना नामक दोष है ।
प्रश्न 115―अतिमात्र नामक मुक्तिदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―भोजन का जो परिमाण बताया गया है उसका उल्लंघन करके उस परिमाण से अधिक आहार करने को अतिमात्र नामक मुक्तिदोष कहते हैं ।
प्रश्न 116―आहार का परिमाण क्या है?
उत्तर―उदर के दो भाग याने भूख के 2 भाग अर्थात् आधे भाग को भोजन से पूर्ण करना चाहिये और एक भाग को जल से पूर्ण करना चाहिये और एक भाग को खाली रखना चाहिये ।
प्रश्न 117―मलदोष किसे कहते हैं?
उत्तर―जिनसे छू जाने पर, मिल जाने पर आहार ग्रहण करने के योग्य न रहे उसे मल कहते हैं और मल के दोष को मलदोष कहते हैं ।
प्रश्न 118―मल कौन-कौन से हैं?
उत्तर-―(1) पूय याने पीव, (2) रुधिर, (3) मांस, (4) हड्डी, (5) चर्म, (6) नख, (7) केश, (8) मृतविकलत्रय याने मरा हुआ द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय जीव, (9) सूरण आदि कंद, (10) जिसमें अंकुर होने वाला हो ऐसा बीज, (11) मूली, अदरख आदि मूल, (12) बेर आदि तुच्छ फल, (13) कण और (14) भीतर कच्चा व बाहर पक्का ऐसा चावल आदि कुंड ।
प्रश्न 119-―उक्त 14 मलों में से किस मलस्पर्श से कितना दोष होता है?
उत्तर―पीव, रुधिर, मांस, हड्डी और चर्म, इनसे संसक्त आहार जब प्रतीत हो तब आहार तो छोड़ ही देवे और विधिवत् प्रायश्चित भी ग्रहण करे ।
नख से संसक्त आहार हो तो आहार को छोड़ देवे तथा किंचित् प्रायश्चित भी करे ।
यदि केश या मृत विकलत्रय से संसक्त आहार हो तो उस आहार को छोड़ देवे ।
यदि बंद, बीज, मूल, फल, कण और इनसे संस्पृष्ट आहार हो तो इन्हें निकालकर दूर कर देवे । कदाचित् इनका अलग करना अशक्य हो तो उस आहार को छोड़ देना चाहिये ।
प्रश्न 120―भोजन संबंधी अंतराय किसे कहते है?
उत्तर―जिनके निमित्त से साधुजन आहार का त्याग कर देते हैं उन्हें अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 121-―अंतराय कौन-कौन हैं?
उत्तर―(1) काक, (2) अमेध्य, (3) छर्दि, (4) रोधन, (5) रुधिर, (6) अश्रुपात, (7) जान्वधःपरामर्श, (8) जानूपरिव्यतिक्रम, (9) नाभ्यधोनिर्गमन, (10) प्रत्याख्यात सेवन, (11) जंतुबध, (12) काकादिपिंडहरण, (13) पाणि पिंडपतन, (14) पाणिजंतुवध, (15) मांसादिदर्शन, (16) उपसर्ग, (17) पादांतरापंचेंद्रियागमन, (18) भाजनसंपात, (19) उच्चार, (20) प्रस्रवण, (21) अभोज्यगृहप्रवेश, (22) पतन, (23) उपवेशन, (24) संदंश, (25) भूमिस्पर्श, (26) निष्ठीबन, (27) उदरक्रिमिनिर्गम, (28) अदत्तग्रहण, (29) प्रहार, (30) ग्रामदाह, (31) पादग्रहण, (32) करग्रहण ।
प्रश्न 122―काक नामक अंतराय किसे कहते है?
उत्तर―आहारार्थ चर्या में या आहार के समय साधु के शरीर पर कोई कौवा, कुत्ता आदि जानवर मलोत्सर्ग कर दे तो काक नामक अंतराय हो जाता है ।
प्रश्न 123―अमेध्य अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―आहारार्थ जाते हुए अथवा खड़े हुए साधु के यदि किसी प्रकार पैर, घुटने, जांघों आदि किसी भी अंग में विष्टा आदि अशुचि पदार्थ का स्पर्श हो जावे तो अमेध्य नामक अंतराय होता है ।
प्रश्न 124―छर्दि नामक अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―यदि किसी कारण साधु को स्वयं वमन हो जाये तो उसे छर्दि नामक अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 125―रोधन नामक अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―आज भोजन मत करना, इस प्रकार किसी के रोक देने को रोधन अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 126―रुधिर नामक अंतराय कब होता है?
उत्तर―अपने या पर के शरीर से चार अंगुल या और अधिक तक रुधिर, पीव आदि साधु देख ले तब रुधिर नामक अंतराय होता है ।
प्रश्न 127―अश्रुपात अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―शोक से अपने अश्रु बह जाने को या किसी के मरने आदि के कारण से किसी का आक्रंदन (जोर का रोना) सुनाई पड़ने को अश्रुपात अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 128―जान्वध:परामर्श अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―सिद्ध भक्ति के अनंतर अपनी जानु (घुटने) के नीचे भाग का हाथ से स्पर्श हो जाने को जान्वध:पात अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 129―जानूपरिव्यतिक्रम अंतराय कब होता है?
उत्तर―घुटने तक ऊंचे या इससे अधिक ऊंचे पर लगे हुए अर्गल, पाषाण आदि को लांघकर जाने में जानूपरिव्यतिक्रम अंतराय होता है ।
प्रश्न 130―नाभ्यधोनिर्गम अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―यदि अपने शरीर को नाभि से नीचे करके किसी द्वार आदि से निकलना पड़े तो उसे नाभ्यधोनिर्गम अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 131―प्रत्याख्यातसेवन नामक अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―त्याग किया हुआ पदार्थ यदि खाने में आ जाये तो उसे प्रत्याख्यातसेवन नामक अंतराय कहते हैं ꠰
प्रश्न 132―जंतुवधनामक अंतराय क्या है ?
उत्तर―यदि अपने ही (साधु के) सन्मुख कोई चूहे, बिल्ली, कुत्ते आदि जीवों का घात करे तो उसे जंतुवध नामक अंतराय कहते हैं ꠰
प्रश्न 133―काकादिपिंडहरण अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―काक, चील आदि जानवर के द्वारा हाथ पर से ग्रास के ले जाने को या छूने को काकादिपिंडहरण अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 134―पाणिपिंडपतन अंतराय किसे कहते है?
उत्तर―भोजन करते हुए साधु के हाथ से ग्रास के गिर जाने को पाणिपिंडपतन अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 135―पाणिजंतुबंध अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―भोजन करते हुए साधु के हाथ पर कोई जीव स्वयं आकर मर जावे तो उसे पाणिजंतुवध अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 136―मांसदर्शनादि अंतराय कब होता है?
उत्तर―भोजन करते हुये साधु को मांस, मद्य आदि दिख जावे तो मांसदर्शनादि नामक अंतराय होता है ।
प्रश्न 137―उपसर्ग नामक अंतराय क्या होता है?
उत्तर―भोजन करते समय यदि देव, मनुष्य या तिर्यंच किसी के द्वारा उत्पात हो तो वह उपसर्ग नामक अंतराय होता है ।
प्रश्न 138―पादांतरपंचेंद्रियागम अंतराय क्या है?
उत्तर―भोजनार्थ चलते समय या आहार के समय यदि चरणों के अंतराल में कोई पंचेंद्रिय जीव आ जावे तो वह पादांतरपंचेंद्रियागम अंतराय है ।
प्रश्न 139―भाजनसंपात अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―साधु को आहार देने वाले के हाथ से कोई कटोरा आदि पात्र गिर पड़े तो उसे भाजनसंपात अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 140―उच्चार अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―भोजनार्थ जाते हुए या आहार करते हुये साधु के विष्टा मल निकल आवे तो उसे उच्चार नामक अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 141―प्रस्रवण अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―साधु के मूत्र का स्राव हो जाने को प्रस्रवण अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 142―अभोज्यगृह-प्रवेश अंतराय क्या है?
उत्तर-―भिक्षार्थ चर्या करते हुए यदि साधु का चांडाल आदि अस्पृश्य जीवों के घर प्रवेश हो बाय तो उसे अभोज्यगृह-प्रवेश अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 143―पतन नामक अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―साधु के मूर्च्छा, भ्रम, श्रम, रोग आदि के कारण भूमि पर गिर जाने को पतन नामक अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 144―उपवेशन नामक अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―अशक्ति आदि कारणवश साधु के भूमि पर बैठ जाने को उपवेशन नामक अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 145―संदंश नामक अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―भिक्षार्थ पर्यटन में या आहार के समय कुत्ता, बिल्ली आदि कोई जानवर साधु को काट ले तो उसे संदंश नामक अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 146―भूमिस्पर्श अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―सिद्धभक्ति किये बाद साधु को हाथकरि भूमिस्पर्श हो जाये तो उसे भूमिस्पर्श नामक अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 147―निष्ठीवन नामक अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―आहार करते हुए साधु के कफ, थूक, नाक आदि के निकल जाने को निष्ठीवन नामक अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 148―उदरक्रिमिनिर्गमन अंतराय क्या है?
उत्तर―मुखद्वार से अथवा गुदा द्वार से साधु के पेट की क्रिमि (कीड़े) का निकलना, सो उदरक्रिमिनिर्गमन अंतराय है ।
प्रश्न 149-―अदत्तग्रहण नामक अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―दातार के दिये बिना ही भोजन औषधि ग्रहण कर ली जाये या संकेत करके भोजनादि ग्रहण किया जाये तो उसे अदत्तग्रहण नामक अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 150―प्रहार नामक अंतराय कब होंता है?
उत्तर―अपना (साधु का) या निकटवर्ती किसी अन्य का खड्ग बरछी आदि द्वारा प्रहार करने पर प्रहार अंतराय होता है ।
प्रश्न 151―ग्रामदाह अंतराय कब होता है?
उत्तर―जिसके निकट स्वयं का निवास हो रहा हो, ऐसे ग्राम में अग्नि के लग जाने पर ग्रामदाह नामक अंतराय हो जाता है ।
प्रश्न 152―पादग्रहण अंतराय किसे कहते हें?
उत्तर―किसी भी वस्तु को पैर से उठाकर ग्रहण करने को पादग्रहण अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 153―हस्तग्रहण अंतराय किसे कहते हैं?
उत्तर―किसी वस्तु को भूमि पर से हाथ द्वारा उठाकर ग्रहण करने को हस्तग्रहण अंतराय कहते हैं ।
प्रश्न 154-―ये किस समय से किस समय तक बीच में माने जाते हें?
उत्तर―साधु जब भिक्षार्थ जाता है उससे पहिले भुक्तिचर्या के लिये सिद्धभक्ति करता है । किसी श्रावक के द्वारा पड़गाह जाने पर भोजनशाला में स्थित होकर दुबारा सिद्धभक्ति पड़ता है । उक्त अंतरायों में से कुछ अंतराय पहिली सिद्धभक्ति से लेकर आहार-समाप्ति तक के बीच में माने जाते हैं और कुछ अंतराय द्वितीय सिद्धभक्ति से आहार-समाप्ति तक माने जाते हैं । उन्हें यथागम लगा लेना चाहिये ।
प्रश्न 155―एषणा समिति का शब्दार्थ क्या है?
उत्तर―एषणा का अर्थ खोजना है । उक्त सब प्रकारों से निर्दोष आहार खोजने के लिये तथा आहार करने के लिये जो सावधानी होती है उसे एषणा समिति कहते हैं ।
प्रश्न 156―आदाननिक्षेपणसमिति किसे कहते हैं?
उत्तर―कमंडल, पुस्तक आदि योग्य वस्तु को देख-भालकर जिसमें जीव बाधा न हो, धरने-उठाने को आदाननिक्षेपणसमिति कहते हैं ।
प्रश्न 157―प्रतिष्ठापन समिति किसे कहते हैं?
उत्तर―निर्जंतु एवं योग्य भूमि पर जहाँ पुरुषादि के बैठने उठने का प्राय: नियत स्थान न हो, समिति याने सावधानी सहित मल-मूत्र, कफ, थूक, नाक आदि क्षेपण करना प्रतिष्ठापन समिति कहलाती है ।
प्रश्न 158―गुप्ति नामक भावसंवरविशेष किसे कहते हैं?
उत्तर―संसार के कारणभूत रागादि से बचने के लिये अपनी आत्मा को निज सहज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना, उपयोग में सुरक्षित रखने, लीन करने को गुप्ति कहते हैं ।
प्रश्न 159―गुप्तिरूप भावसंवर की साधना के उपाय क्या हैं?
उत्तर―मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति―ये तीन गुप्तिरूप भावसंवर के उपाय अथवा विशेष हैं ।
प्रश्न 160―मनोगुप्ति किसे कहते हैं?
उत्तर―रागादि भावों के त्याग को अथवा समीचीन ध्यान करने को अथवा मन को वश में करने को मनोगुप्ति कहते हैं ।
प्रश्न 161―वचनगुप्ति किसे कहते हैं?
उत्तर―कठोर वचनादि के त्याग को अथवा मौन धारण कर लेने को वचनगुप्ति कहते हैं ꠰
प्रश्न 162―कायगुप्ति किसे कहते हैं?
उत्तर―समस्त पापों से दूर रहने को व शरीर की चेष्टाओं की निवृत्ति को कायगुप्ति कहते हैं ꠰
प्रश्न 163―धर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―क्रोधादि कषायों का उद्धव कर देने वाले कारणों का प्रसंग उपस्थित होनेपर भी इच्छा और कलुषताओं के उत्पन्न न होने को और स्वभाव की स्वच्छता बनी रहने को धर्म कहते हैं ।
प्रश्न 164―धर्म शब्द का निरुक्त्यर्थ क्या है?
उत्तर―धरतीति धर्म:=जो जघन्यपद से हटाकर उत्तम पद में धारण करावे उसे धर्म कहते हैं ।
प्रश्न 165―जघन्य और उत्कृष्ट पद क्या हैं?
उत्तर-―मिथ्यात्व, राग, द्वेष से आत्मा का कलुषित रहना तो जघन्यपद है और परमपारिणामिक रूप निजचैतन्यस्वभाव के अवलंबन के बल से स्वभाव का स्वच्छ विकास होना उत्कृष्ट पद है ।
प्रश्न 166―धर्म के अंग कितने हैं?
उत्तर-―धर्म के 10 अंग है―(1) क्षमा, (2) मार्दव, (3) आर्जव, (4) शौच, (5) सत्य, ( 6) संयम, (7) तप, (8) त्याग, (9) आकिंचन्य और ( 10) ब्रह्मचर्य ।
प्रश्न 167-―क्षमा नामक धर्मांग किसे कहते हैं?
उत्तर―क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी व स्वयं समर्थ होकर भी दूसरे को क्षमा कर देने तथा निज ध्रुवस्वभाव के उपयोग के बल से संसार-भ्रमण के कारणभूत मोहादि भावों को शांत कर अपने को क्षमा कर देने को क्षमा कहते हैं ।
प्रश्न 168―मार्दव नामक धर्मांग किसे कहते हैं?
उत्तर―जाति, कुल, विद्या, वैभव आदि विशिष्ट होने पर भी दूसरों को तुच्छ न मानने व स्वयं अहंकारभाव न करने तथा निज सहज स्वभाव के उपयोग के बल से, अपूर्ण विकास में अहंकारता समाप्त करके अपनी मृदुता प्रकट कर लेने को मार्दवधर्म कहते हैं ।
प्रश्न 169―आर्जव नामक धर्मांग किसे कहते हैं?
उत्तर―किसी के प्रति छल कपट का व्यवहार व भाव न करने तथा निज सरल चैतन्यस्वभाव के उपयोग से स्वभावविरुद्ध भावों को नष्ट करके अपनी यथार्थ सरलता प्रकट कर लेने को आर्जवधर्म कहते हैं ।
प्रश्न 170―शौच नामक धर्मांग किसे कहते हैं?
उत्तर―किसी भी वस्तु की तृष्णा या लालच न करने तथा निज स्वतःसिद्ध चैतन्यस्वभाव के उपयोग के बल से परोपयोग नष्ट करके निःसंग, स्वच्छ अनुभव करने को शौचधर्म कहते हैं ।
प्रश्न 171―सत्य नामक धर्मांग किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस वचन और क्रिया के निमित्त से निज सत् स्वरूप याने आत्मस्वरूप की ओर उन्मुखता हो उसे सत्यधर्म कहते हैं, तथा निज अखंड सत् के उपयोग से निजस्वरूप के त्रैकालिक तत्त्व का अनुभवन हो, उसे सत्यधर्म कहते हैं ।
प्रश्न 172―संयमनामक धर्मांग किसे कहते हैं?
उत्तर―इंद्रियसंयम व प्राणसंयम द्वारा स्वपरहिंसा से निवृत्त होने तथा निज नियत चैतन्यस्वभाव के उपयोग से पर्यायदृष्टियों को समाप्त कर निजस्वरूप में लीन होने को संयमधर्म कहते हैं ।
प्रश्न 173―तप नामक धर्मांग किसे कहते हैं?
उत्तर―रागादि के अभाव के लिये विविध कायक्लेश और मन के या इच्छा के निरोध करने को तथा नित्य अंतःप्रकाशमान निज ब्रह्मस्वभाव के उपयोग से, विभाव से निवृत्त होकर स्वभाव में तपने को तपधर्म कहते हैं ।
प्रश्न 174―त्याग नामक धर्मांग किसे कहते हैं?
उत्तर―ज्ञानादि दान करने व आभ्यंतर एवं बाह्य परिग्रह का त्याग करने को तथा परनिरपेक्ष निज चैतन्यस्वभाव के उपयोग के बल से समस्त विकल्पों का त्याग करके सहजज्ञान और आनंद के अनुभवन करने को त्यागधर्म कहते हैं ।
प्रश्न 175―आकिंचन्यधर्म किसे कहते हैं?
उत्तर―रागादिभाव, शरीर, कर्म, संपत्ति आदि समस्त परभावों के प्रति ये समस्त मेरे कुछ नहीं हैं, ऐसा अनुभव करने तथा केवल चिन्मात्र निजस्वभाव के उपयोग के बल से निर्विकल्प अनुभवन करने को आकिंचन्यधर्म कहते हैं ।
प्रश्न 176―ब्रह्मचर्य नामक धर्मांग किसे कहते हैं?
उत्तर―मैथुनसंबंधी सूक्ष्म विकल्प से भी निवृत्ति होकर गुरु के आदेशानुसार चर्या करने व आत्मस्वरूप में प्रवृत्ति करने को तथा परमब्रह्मरूप निज चैतन्यस्वभाव के उपयोग से सर्व परभावों से निवृत्त होकर निजब्रह्म में स्थित होने को ब्रह्मचर्यधर्म कहते हैं ।
प्रश्न 177―अनुप्रेक्षा नामक भावसंवरविशेष किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस प्रकार यह आत्मा अपने स्वरूप की उपलब्धि करे उसके अनुसार प्रेक्षण अर्थात् बार-बार विचार एवं अनुभव करने को अनुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 178―अनुप्रेक्षा कितने प्रकार की हैं?
उत्तर-―अनुप्रेक्षा 12 प्रकार की है―(1) अनित्यानुप्रेक्षा, (2) अशरणानुप्रेक्षा, (3) संसारानुप्रेक्षा, (4) एकत्वानुप्रेक्षा, (5) अन्यत्वानुप्रेक्षा, (6) अशुचित्वाच्यनुप्रेक्षा, (7) आस्रवानुप्रेक्षा, (8) संवरानुप्रेक्षा, (9) निर्जरानुप्रेक्षा, (10) लोकानुप्रेक्षा, (11) बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा और (12) धर्मानुपेक्षा ।
प्रश्न 179―अनित्यानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―धन, परिवार, शरीर, कर्म, और रागद्वेषादिक भाव ये सब अनित्य हैं, ऐसी भावना करने को अनित्यानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 180―इस अनित्यभावना से क्या लाभ होता है?
उत्तर―उक्त अनित्यभावना भाने वाले पुरुष को इन पदार्थों का संयोग व वियोग होने पर भी ममत्व नहीं होता है और ममत्व न होने से त्रैकालिक नित्य ज्ञायकस्वरूप निजपरमात्मा की भावना होती है, जिससे यह अंतरात्मा परमआनंदमय अवस्था को प्राप्त होता है ।
प्रश्न 181―धन, परिवार आदि के साथ आत्मा का क्या कुछ भी संबंध नहीं है?
उत्तर―परमार्थ से धन परिवार, शरीर, कर्म और रागादिविभाव के साथ आत्मा का कुछ संबंध नहीं है ।
प्रश्न 182―फिर इनमें संबंध की कल्पना किस अभिप्राय से हुई?
उत्तर―धन, परिवार का संबंध तो उपचरित असद्भूतव्यवहार से है; शरीर, कर्म का संबंध अनुपचरितअसद्भूतव्यवहार से है और रागादि विभाव का संबंध मात्र अशुद्धनिश्चय नय से जीव के साथ है । असद्भूत का तो आत्मा में अत्यंताभाव है और अशुद्धपर्याय औपाधिक व क्षणिक परिणमन है ।
प्रश्न 183―अशरणानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―देव, सुभट, मित्र, पुत्रादि य मणि, मंत्र, तंत्र, आशीर्वाद, औषधादिक कुछ भी इस जीव की मरणसमय में तथा वेदना आदि समस्त परिणमनों के समय में शरण नहीं है, ऐसी भावना करने को अशरणानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 184―इस अशरणभावना से क्या लाभ होता है?
उत्तर―बाह्य पदार्थों की शरण मानने का अभिप्राय मिट जाने से जीव शाश्वत शरण भूत निज शुद्ध आत्मा का शरण प्राप्त कर लेता है, जिससे यह अंतरआत्मा भय और निदान बाधारहित सहज आनंद का अनुभव करता है ।
प्रश्न 185―संसारानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―यह जीव अनादिकाल से द्रव्यपरिवर्तन, क्षेत्रपरिवर्तन, कालपरिवर्तन, भवपरिवर्तन व भावपरिवर्तन―इन पांच प्रकार के संसारों याने परिभ्रमणों में नाना प्रकार के भयंकर दुखमात्र अज्ञान से भोगता चला आया है । इस प्रकार के चिंतवन को संसारानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 186―द्रव्यपरिवर्तन या द्रव्यसंसार क्या है?
उत्तर―परिवर्तन नाम परिभ्रमण का है । इन परिवर्तनों में मुख्य बात यह ही जानने की है कि जीव का परिभ्रमण में इतना काल व्यतीत हो गया है । इन परिवर्तनों के वर्णन से भ्रमण के समय का परिचय कराया गया है । द्रव्यपरिवर्तन दो प्रकार से वर्णित है-―नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन, (2) कर्मद्रव्यपरिवर्तन । जिसमें से नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन का स्वरूप पहिले समझ लेना चाहिये ।
प्रश्न 187―नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन का क्या तात्पर्य है?
उत्तर―नोकर्म का अर्थ है शरीर । जैसे किसी जीव ने यथासंभव तीव्र मंद मध्यम भाव वाले स्पर्श रस गंध वर्णयुक्त नोकर्मवर्गणाओं को शरीररूप से ग्रहण किया । पश्चात् द्वितीयादि समय में वे खिर गये, किंतु अनेक अगृहीत नोकर्मवर्गणाओं को ग्रहण किया । इसी तरह अनंत बार अगृहीत नोकर्मवर्गणावों को ग्रहण कर चुकने पर एक बार मिश्रवर्गणावों को ग्रहण किया । अनंत बार अगृहीत वर्गणाओं को ग्रहण करने पर एक बार मिश्र (जिनमें कुछ गृहीत व कुछ अगृहीतवर्गणायें हों) वर्गणावों को ग्रहण किया । इसी रीति से जब अनंत बार मिश्रवर्गणाओं का ग्रहण हो चुके तब एक बार गृहीतवर्गणाओं को ग्रहण किया । अगृहीतमिश्रग्रहण की रीति पूर्वक गृहीतवर्गणाओं को फिर ग्रहण किया, इसी रीति से होते-होते जब अनंत बार गृहीतवर्गणाओं का ग्रहण हो चुका तब नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन के 4 भागों में से एक भाग हो चुकता है । इस भाग का नाम है अगृहीतमिश्रगृहीतक्रमग्रहण ।
फिर उस जीव ने मिश्रवर्गणाओं को ग्रहण किया । अनंत बार मिश्रग्रहण होने पर एक बार अगृहीतवर्गणाओं को ग्रहण किया । पश्चात् अनंत मिश्रग्रहण होने पर अगृहीतवर्गणावों को ग्रहण किया । इस रीति से अनंत बार अगृहीतवर्गणाओं को ग्रहण कर चुकने पर एक बार गृहीतवर्गणाओं को ग्रहण किया । मिश्रअगृहीतग्रहण क्रमपूर्वक गृहीतवर्गणावों का जब अनंत बार ग्रहण हो चुकता है तब नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन के दो भाग समाप्त हो चुकते हैं । इस द्वितीय भाग का नाम मिश्रअगृहीतगृहीतकर्म ग्रहण है ।
फिर उस जीव ने मिश्रवर्गणाओं को ग्रहण किया, अनंत बार मिश्रवर्गणाओं के ग्रहण करने पर एक बार गृहीतवर्गणाओं को ग्रहण किया । फिर अनंत बार मिश्रग्रहण के बाद एक बार गृहीतवर्गणाओं को ग्रहण किया । इस रीति से मिश्रगृहीत ग्रहणपूर्वक अनंत बार गृहीतवर्गणावों का ग्रहण हो चुकने पर एक बार अगृहीतवर्गणाओं का ग्रहण किया । इसी रीति के होते-होते जब अनंत बार अगृहीतवर्गणाओं को ग्रहण कर चुकता है तब नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन के 3 भाग समाप्त हो जाते हैं । इस तृतीय भाग का नाम मिश्रगृहीत अगृहीतकर्मग्रहण है ।
फिर उस जीव ने गृहीतनोकर्मवर्गणावों को ग्रहण किया, अनंत बार गृहीतवर्गणाओं को ग्रहण कर चुकने पर एक बार मिश्रवर्गणाओं को ग्रहण किया । अनंत बार गृहीतवर्गणाओं को ग्रहण कर चुकने पर फिर एक बार मिश्रवर्गणाओं को ग्रहण किया । इस रीति से अनंत बार मिश्रवर्गणाओं के ग्रहण हो चुकने पर एक बार अगृहीतवर्गणाओं को ग्रहण किया । इसी प्रकार गृहीत-मिश्र-अगृहीतग्रहणपूर्वक जब अनंत बार अगृहीतनोकर्मवर्गणाओं का ग्रहण हो चुकता है तब नोकर्मद्रव्य परिवर्तन का चौथा भाग समाप्त हो जाता है । इस भाग का नाम गृहीतमिश्रअगृहीतकर्मग्रहण है ।
इसके पश्चात् इस नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन के प्रारंभ के प्रथम समय में जिस भाव वाले स्पर्श रस गंध वर्ण युक्त नोकर्मवर्गणाओं को ग्रहण किया वह शुद्ध गृहीतनोकर्मद्रव्य जब इस जीव के ग्रहण में आ जाये तब एक नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन पूरा होता है । इस एक परिवर्तन में प्रारंभ से लेकर अंत तक जितना काल लगता है उतना काल व्यतीत हो जाता है । इस क्रम के विरुद्ध बीच में अनंतों बार यथा तथा वर्गणावों का ग्रहण होता रहता है वह सब अलग है । ऐसे-ऐसे अनंत नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन भी इस जीव के हो गये हैं ।
प्रश्न 188―कर्मद्रव्यपरिवर्तन का समय कितना है?
उत्तर―नोकर्मवर्गणाओं के स्थानपर कर्मवर्गणावों का कहकर कर्मद्रव्य परिवर्तन का विवरण भी नोकर्मद्रव्यपरिवर्तन की तरह करना चाहिये । इस प्रकार 4 भागों पूर्वक कर्मद्रव्य परिवर्तन के पूरा होने में जितना समय लगता है उतना समय कर्मद्रव्यपरिवर्तन का है । ऐसे-ऐसे अनंत कर्मद्रव्यपरिवर्तन भी इस जीव के हो गये हैं ।
प्रश्न 189―क्षेत्रपरिवर्तन का काल किस प्रकार जाना जाता है?
उत्तर―क्षेत्रपरिवर्तन का काल दो प्रकारों से जाना जाता है―(1) स्वक्षेत्रपरिवर्तन और (2) परक्षेत्रपरिवर्तन ।
प्रश्न 190―स्वक्षेत्रपरिवर्तन का क्या स्वरूप है?
उत्तर―स्व का अर्थ यहाँ जीव है, सो इस परिवर्तन का स्वरूप जीव के निजक्षेत्र याने प्रदेश अथवा शरीर की अवगाहना से जाना जाता है । जीव की जघन्य अवगाहना घनांगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण है । उतनी अवगाहना लेकर जीव ने देह धारण किया, फिर इस अवगाहना में जितने प्रदेश हैं उतनी बार इतनी ही अवगाहना वाला शरीर धारण करे । पश्चात् एक-एक प्रदेश अधिक-अधिक की अवगाहनाओं को क्रम से धारण करते-करते महामत्स्य की उत्कृष्ट (1000 योजन लंबा, 500 योजन चौड़ा, 250 योजन ऊँचा) अवगाहना पर्यंत समस्त अवगाहनों को धारण कर ले, इसे स्वक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । इसमें जितना काल व्यतीत होता है उतना स्वक्षेत्र परिवर्तनकाल है । बीच में अनंतों बार क्रमविरुद्ध अवगाहनायें प्राप्त होती रहती हैं वे सब अलग हैं । ऐसे-ऐसे क्षेत्रपरिवर्तन अनंत हो चुके हैं ।
प्रश्न 191―जिन जीवों ने निगोद शरीर को छोड़कर दूसरा शरीर ग्रहण नहीं किया उनके स्वक्षेत्रपरिवर्तन कैसे हो सकता है?
उत्तर―जिन जीवों ने निगोदपर्याय को अब तक छोड़ा भी नहीं उन जीवों के स्वक्षेत्रपरिवर्तन तो
नहीं होता, किंतु अन्य जीवों के अनंत स्वक्षेत्रपरिवर्तन होने में जितना काल व्यतीत हुआ है उतना याने अनंतकाल निगोद जीवों का भी संसार-भ्रमण में व्यतीत हुआ है ।
प्रश्न 192―परक्षेत्रपरिवर्तन का क्या स्वरूप है?
उत्तर―परक्षेत्र का अर्थ है आकाशक्षेत्र । कोई जीव जघन्य (घनांगुल के असंख्यातभाग प्रमाण) अवगाहना धारण कर लोक या लोकाकाश के आठ मध्यप्रदेशों को अपने शरीर के मध्य के आठ प्रदेशों से व्यापकर उत्पन्न हुआ । पश्चात् इस अवगाहना में जितने प्रदेश हैं उतनी बार इतनी ही अवगाहना लेकर इसी स्थान पर इसी रीति से उस जीव ने जन्म धारण किया । पीछे लोक के एक-एक प्रदेश के अधिक कम से समस्त लोक में जन्म धारण कर ले, इस परिवर्तन को परक्षेत्रपरिवर्तन कहते हैं । इसमें जितना काल लगता है उतना परक्षेत्रपरिवर्तन का काल जानना । बीच में कहीं भी अनंतों बार उत्पन्न होता रहता है वह सब अलग है, इसकी गिनती में नहीं आता । ऐसे-ऐसे अनंत परक्षेत्रपरिवर्तन इस जीव ने किये हैं ।
प्रश्न 193―अनादि नित्यनिगोदों के क्या यह परक्षेत्रपरिवर्तन हो सकता है?
उत्तर―अनादिनित्यनिगोद जीवों के भी यह परक्षेत्रपरिवर्तन होता है, क्योंकि इसमें लोक के एक-एक प्रदेश पर क्रम से उत्पन्न होने की बात है । शरीर की अवगाहना का इसमें क्रम नहीं है ।
प्रश्न―194―कालपरिवर्तन का क्या स्वरूप है?
उत्तर―कोई जीव उत्सर्पिणीकाल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ । पश्चात् अन्य उत्सर्पिणीकाल के दूसरे समय में उत्पन्न हुआ । इसी प्रकार अन्य-अन्य उत्सर्पिणीकाल के तीसरे, चौथे आदि समयों में उत्पन्न हुआ । इस प्रकार उत्सर्पिणीकाल व अवसर्पिणीकाल के बीस कोड़ाकोड़ीसागर के जितने समय हैं उन सबमें इस क्रम से उत्पन्न हुआ और मरण को प्राप्त हुआ । इस बीच अनंतों बार अन्य-अन्य समयों में उत्पन्न हुआ वह सब अलग है, उसकी इसमें गिनती नहीं । इसमें जितना काल लगता है उतना काल परिवर्तन का है, ऐसे-ऐसे अतंत कालपरिवर्तन इस जीव ने किये हैं ।
प्रश्न 195-―भवपरिवर्तन का क्या स्वरूप है?
उत्तर―भव नाम गति का है । चारों गतियों में विशिष्ट क्रम लेकर परिभ्रमण करना भवपरिवर्तन है । जैसे कोई जीव तिर्यग्भव की जघन्य आयु अंतर्मुहूर्त लेकर उत्पन्न हुआ । फिर अंतर्मुहूर्त में जितने समय हैं उतनी बार इसी आयु के साथ उत्पन्न हुआ । पश्चात् क्रम से एक-एक समय अधिक आयु लेकर तिर्यग्भव में उत्पन्न होकर तीन पल्य की आयु पूर्ण कर ली । यह तिर्यग्भव परिवर्तन है । इस बीच अनंतों बार क्रम विरुद्ध आयु लेकर उन्पन्न होता रहता है, वह इस गिनती में नहीं है ।
कोई जीव नरकभव की जघन्यस्थिति दस हजार वर्ष की आयु लेकर उत्पन्न हुआ । पश्चात् दस हजार वर्ष के जितने समय हैं उतनी बार दस हजार वर्ष की जघन्य आयु लेकर उत्पन्न हो । पश्चात् क्रम से एक-एक समय अधिक की नरकायु लेकर उत्पन्न हो होकर उत्कृष्ट स्थिति 33 सागर प्रमाण आयु को पूर्ण कर ले । इस बीच अन्य भव तो लेने ही पड़ते, क्योंकि नरकभव के बाद ही वह जीव नारकी नहीं होता, मनुष्य या तिर्यंच होता है तथा अनेक बार क्रमविरुद्ध नरक की आयु लेकर उत्पन्न होता है, वह सब इस गिनती में नहीं है । यह नरकभवपरिवर्तन की तरह है, क्योंकि मनुष्य आयु भी जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्य की होती है ।
देवभवपरिवर्तन नरकभवपरिवर्तन की तरह लगाना, किंतु उत्कृष्ट आयु में 31 सागर तक ही कहना, क्योंकि इससे बड़ी स्थिति की देवायु सम्यग्दृष्टि को ही मिलती है ।
इस प्रकार इन चारों भवपरिवर्तनों में जितना समय लगता है उतना काल भवपरिवर्तन का है । ऐसे-ऐसे अनंत भवपरिवर्तनकाल जीव के व्यतीत हो गये हैं ।
प्रश्न 196―अनादिनित्यनिगोद के यह परिवर्तन कैसे संभव हो सकता?
उत्तर-―अनादिनित्यनिगोद के यह भवपरिवर्तन तो नहीं होता, किंतु अन्य जीव के अनंत भवपरिवर्तनों में जितना काल व्यतीत हुआ उतना काल इसके भी व्यतीत हो गया है ।
प्रश्न 197―भावपरिवर्तन का क्या स्वरूप है?
उत्तर-कर्मों की यथासंभव जघन्यस्थिति से लेकर उत्कृष्टस्थिति के बंध के कारणभूत भावों का क्रमिक परिवर्तन भावपरिवर्तन है । वह इस प्रकार होता है―कर्मों की एक स्थितिबंधस्थान होने के लिये या बढ़ने के लिये असंख्यात लोकप्रमाण असंख्यात कषायाध्यवसायस्थान हो जाते हैं । एक कषायाध्वसायस्थान होने के लिये असंख्यातलोकप्रमाण, असंख्यात अनुभागबंधाध्यवसायस्थान हो जाते हैं । एक अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होने के लिये श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात योगस्थान हो जाते हैं ।
अब प्रकृत क्रमपरिवर्तन देखें―जैसे एक जीव के ज्ञानावरणकर्म की जघन्यस्थिति का बंध हुआ । इसके योग्य जघन्ययोगस्थान, जघन्य अनुभाग बंधाध्यवसायस्थान व जघन्य कषायाध्यवसायस्थान हुए । इसके आगे असंख्यात योगस्थान होने पर एक अनुभागबंधावसायस्थान बढ़ा व इस रीति से असंख्यात अनुभागबंधाध्यवसायस्थान होने पर एक कषायाध्यवसायस्थान बढ़ा और इसी रीति से असंख्यात कषायाध्यवसायस्थान होने पर ज्ञानावरणकर्म का आगे का एक स्थितिबंधस्थान हुआ । इसी प्रकार योगस्थान अनुभागबंधाध्यवस्थान-कषायाध्यवसायस्थान क्रम से बढ़ाकर स्थितिस्थान बढ़ाया । जब ज्ञानावरण को उत्कृष्ट स्थिति का बंधस्थान बंध गया तब ज्ञानावरणसंबंधी स्थितिस्थानों का विवरण हुआ, इसी प्रकार यथासंभव सब कर्मों की जघन्यस्थिति से लेकर उत्कृष्टस्थिति पर्यंत ले जायें । इस सबको एक भावपरिवर्तन कहते हैं । इसमें जितना काल लगता है वह भावपरिवर्तन का काल है । ऐसे-ऐसे अनंत भावपरिवर्तनकाल जीव के हुए हैं ।
प्रश्न 198 ―अनादिनित्यनिगोद जीव के भावपरिवर्तन कैसे संभव है?
उत्तर―कर्मों की यथासंभव उत्कृष्ट स्थितिबंध के योग्य द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, असंज्ञीपंचेंद्रिय व संज्ञीपंचेंद्रिय का भव प्राप्त न होने से सब स्थितिस्थान न हो सकने से इन निगोद जीवों के यद्यपि यह भावपरिवर्तन नही होता है तथापि अन्य जीवों का इसमें जितना काल व्यतीत हुआ है उतना काल निगोद जीवों का भी व्यतीत हुआ है ।
प्रश्न 199―इन पांच प्रकार के संसारों का काल क्या एकसा है या हीनाधिक?
उत्तर―द्रव्यपरिवर्तन से अनंतगुणा काल क्षेत्रपरिवर्तन का है । क्षेत्रपरिवर्तन से अनंत गुणा काल कालपरिवर्तन का है, कालपरिवर्तन से अनंतगुणा काल भवपरिवर्तन का है और भवपरिवर्तन से अनंतगुणा काल भावपरिवर्तन का है ।
प्रश्न 200―इस संसारानुप्रेक्षा से क्या लाभ है?
उत्तर―निज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना के बिना अज्ञान से यह जीव इस प्रकार नाम देहों को धारण कर नाना क्षेत्रों में भव धारण कर, चारों गतियों में भटककर, नामकर्मों को बांधता हुआ भयंकर दुःख भोगता चला आया है । अब यदि दुःख भोगना इष्ट नहीं है तो संसार-विपत्ति का विनाश करने वाली निज शुद्धात्मा की भावना करनी चाहिये । इस हित कर्तव्य की प्रेरणा संसारानुप्रेक्षा से मिलती है ।
प्रश्न 201―एकत्वानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―सुख, दुःख, जीवन, मरण सब अवस्थाओं में मैं अकेला ही हूँ, संसारमार्ग का मैं अकेला कर्ता हूँ और मोक्षमार्ग का मैं अकेला कर्ता हूं―इस प्रकार चिंतवन करने एवं द्रव्य कर्म, भावकर्म और नोकर्म से रहित ज्ञायकत्वस्वरूप एक निज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना करने को एकत्वानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 202―इस भावना से क्या लाभ है?
उत्तर―एकत्वभावना से दु:खों की शांति होकर सहज आनंद प्रकट होता है । क्योंकि दुःख विकल्पों से उत्पन्न होता है और किसी न किसी परपदार्थ के संबंध से, उपयोग से होता है, अत: सहज ज्ञान, आनंद स्वरूप निज आत्मा के एकत्व में उपयोग होने पर निर्विकार अनाकुलतारूप अनुपम आनंद प्रकट होता ही है ।
प्रश्न 203―अन्यत्वानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―देह, परिवार, वैभव, इंद्रियसुख आदि समस्त परभाव मुझसे भिन्न हैं, अत: हेय हैं, इस प्रकार की भावना को अन्यत्वानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 204―इंद्रियसुख मुझसे कैसे भिन्न हैं?
उत्तर―मैं निर्विकार ध्रुव चैतन्यचमत्कार मात्र कारणसमयसार हूँ और ये इंद्रियसुख कर्माधीन एवं स्वभावविरुद्ध होने से विकार हैं व विनश्वर हैं । अत: मैं इंद्रियसुख से भी भिन्न हूँ ।
प्रश्न 205―अन्यत्वानुप्रेक्षा से क्या लाभ है?
उत्तर―परभावों की भिन्नता जानने से आत्मा की परवस्तुवों में हितबुद्धि नहीं होती और परमहितकारी निज शुद्ध आत्मतत्त्व में भावना जागृत होती है ।
प्रश्न 206―एकत्वानुप्रेक्षा और अन्यत्वानुप्रेक्षा दोनों का विषय एकत्व की भावना है तब दोनों में अंतर क्या रहा?
उत्तर―एकत्व भावना में तो विधिरूप से निज आत्मतत्त्व का उपयोग किया जाता है और अन्यत्वभावना में अन्य के निषेधरूप निज आत्मतत्त्व का उपयोग किया जाता है, यह इन दोनों भावनाओं में अंतर है ।
प्रश्न 207―अशुचित्वानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―रजवीर्यमल से उत्पन्न, मल को ही उत्पन्न करने वाले, मल से ही भरे देह की अशुचिता चिंतवन करने और अशुचि देह से विरक्त होकर सहज शुचि चैतन्यस्वभाव की भावना करने को अशुचित्वानुप्रेक्षा कहते हैं ꠰
प्रश्न 208―अशुचित्वानुप्रेक्षा से क्या लाभ होता है?
उत्तर―देह की अशुचिता की भावना से देह से विरक्ति होती है और देह से विरक्ति होने के कारण देहसंयोग भी यथा शीघ्र समाप्त हो जाता है तब परमपवित्र निज ब्रह्म में स्थित होकर यह अंतरात्मा दु:खों से मुक्त हो जाता है ।
प्रश्न 209―आस्रवानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―मिथ्यात्व, कषाय आदि विभावों के कारण ही आस्रव होता है, आस्रव ही संसार व समस्त दु:खों का मूल है―इस प्रकार मिथ्यात्व कषायरूप आस्रवों में होने वाले दोषों के चिंतवन करने व निरास्रव निजपरमात्मतत्त्व की भावना करने को आस्रवानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 210―आस्रवानुप्रेक्षा से क्या लाभ होता है?
उत्तर―आस्रव के दोषों के परिज्ञान और उससे दूर होने के चिंतवन के फलस्वरूप यह आत्मा निरास्रव निज परमात्मतत्त्व के उपयोग के बल से आस्रवों से निवृत्त हो जाता है और अनंतसुखादि अनंतगुणों से परिपूर्ण सिद्धावस्था का अधिकारी हो जाता है ।
प्रश्न 211―संवरानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―जैसे जहाज के छिद्र के बंद हो जाने पर पानी का आना बंद हो जाता है जिससे जहाज किनारे के नगर को प्राप्त कर लेता है, इसी प्रकार शुद्धात्मसंवेदन के बल से आस्रव का छिद्र बंद हो जाने पर कर्म का प्रवेश बंद हो जाता है, जिससे आत्मा अनंतज्ञानादिपूर्ण मुक्तिनगर को प्राप्त कर लेता है । इस प्रकार संवर के गुणों का चिंतवन करने और परमसंवरस्वरूप निज शुद्ध आत्मतत्त्व की भावना करने को संवरानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 212―संवरानुप्रेक्षा से क्या लाभ है?
उत्तर-परमसंवरस्वरूप निजशुद्ध कारणपरमात्मा की भावना से आस्रव की निवृत्ति होती है । संवरतत्त्व मोक्षमार्ग का मूल है, इसकी सिद्धि से मोक्ष प्राप्त होता है ।
प्रश्न 213―निर्जरानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―जैसे अजीर्ण होने से मलसंचय होने पर आहार को त्याग कर औषधी लेने से मल निर्जरित हो जाता है याने दूर हो जाता है, इसी तरह अज्ञान होने से कर्मसंचय होने पर आत्मा मिथ्यात्वरागादि को छोड़कर सुख दुःख में समतारूप परमऔषधि को ग्रहण करता है, जिससे कर्ममल निर्जरित करके याने दूर करके परमसुखी हो जाता है इस प्रकार निर्जरा तत्त्व के चिंतवन करने व स्वभावत: परममुक्त निजचैतन्यस्वभाव की भावना करने को निर्जरानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 214―निर्जरानुप्रेक्षा से क्या लाभ होता है?
उत्तर―शुद्धोपयोगरूप निर्जरा परिणामों के बल से एक देश मुक्त हो-होकर सर्वदेश कर्मों से मुक्त हो जाता है । इस रहस्य के ज्ञातावों को निर्जरानुप्रेक्षा से कल्याणमार्ग की इस प्रगति के लिये अंत:प्रेरणा मिलती है ।
प्रश्न 215―लोकानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―लोक की रचनाओं का विचार करते हुए लोक के ऐसे-ऐसे स्थानों में यह जीव मोहभाववश अनंत बार उत्पन्न हुआ, ऐसे चिंतवन करने और स्वभावत: अजन्मा एवं अनादिसिद्ध चैतन्यस्वरूप निज निश्चय लोक की भावना करने को लोकानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 216―लोक को किसने बनाया?
उत्तर―लोक समस्त द्रव्यों के समूह को कहते हैं । समस्त द्रव्य जितने आकाश में देखे जाते हैं, पाये जाते हैं उतने आकाश में रहने वाले द्रव्यसमूह के पिंड को लोक कहते हैं । समस्त द्रव्य स्वतःसिद्ध हैं, अत: लोक भी स्वतःसिद्ध है । इसे किसी ने नहीं बनाया अथवा सर्वद्रव्य अपना-अपना परिणमन करते रहते हैं, सो सभी द्रव्यों ने लोक बनाया ।
प्रश्न 217―लोक का आकार क्या है?
उत्तर―सात पुरुष एक के पीछे एक-एक खड़े होकर पैर पसारे हुये और कमर पर हाथ रखे हुये स्थित हों उन जैसा आकार इस लोक का है । केवल मुख जितना आकार छोड़ दिया जावे ।
प्रश्न 218―लोक का विस्तार क्षेत्र कितना है?
उत्तर―लोक का विस्तार 343 धनराजू है । एक राजू असंख्यात योजनों का होता है । एक योजन दो हजार कोश का होता है । एक कोश करीब ढाई मील का होता है । लोक का विस्तार लोक के तीन भागों में बांटकर समझना चाहिये ।
प्रश्न 219―लोक के तीन भाग कौन-कौन हैं?
उत्तर-―लोक के तीन भाग ये है―(1) अधोलोक, (2) मध्यलोक, (3) ऊर्ध्वलोक ।
प्रश्न 220―अधोलोक कितने भाग को कहते हैं?
उत्तर―जैसे दृष्टांत में मनुष्य की नाभि से नीचे का जितना विस्तार है, ऐसे ही लोक के ठीक मध्य से नीचे का जितना विस्तार है उतने भाग को अधोलोक कहते हैं ।
प्रश्न 221―अधोलोक का कितना विस्तार है?
उत्तर―अधोलोक का उत्सेध ऊपर से नीचे 7 राजू है । बिल्कुल नीचे पूर्व से पश्चिम तक आयाम 7 राजू है और ऊपर क्रम से घट-घटकर एक राजू रह जाता है । दक्षिण से उत्तर में सर्वत्र विष्कंभ 7-7 राजू है । अत: भूमि 7 में सुख 1 जोड़ने से 8 हुये, इसके आधे 4 राजू, यह चौड़ाई का एवरेज हुआ । इसमें लंबाई 7 राजू का गुणा करने से 47=28 हुआ, इसमें 7 राजू विष्कंभ का (दक्षिण उत्तर वाला का) गुणा करने से 287=196 घन राजू अधोलोक का विस्तार है ।
प्रश्न 222―मध्यलोक का विस्तार कितना है?
उत्तर―लोक के मध्यभाग से ऊपर एक लाख 40 योजन ऊंचे तक न तिर्यग्रूप में चारों ओर असंख्यात योजनों तक याने पूर्व से पश्चिम एक राजू व उत्तर से दक्षिण तक सात राजू प्रमाण मध्यलोक है ।
प्रश्न 223―ऊर्ध्वलोक का कितना विस्तार है?
उत्तर-―ऊर्ध्वलोक का उत्सेध 7 राजू है । मध्यलोक के ऊपर एक राजू आयाम है व ऊपर 3।। राजू जाकर 5 राजू आयाम है तथा 3।। राजू और ऊपर जाकर एक राजू आयाम है । विष्कंभ सर्वत्र 7-7 राजू है । यहाँ उत्सेध का अर्थ ऊंचाई है । आयाम का अर्थ पूर्व पश्चिम का विस्तार है । विष्कंभ का अर्थ दक्षिण उसका विस्तार है । इसका क्षेत्रफल यह है―5+1=6÷2=33।।=10।।7=73।।+73।।=147 घनराजू ऊर्ध्वलोक विस्तार है ।
प्रश्न 224―तीनों लोकों का सम्मिलित विचार कितना हुआ?
उत्तर―अधोलोक का घनराजू 196 व ऊर्ध्वलोक का घनराजू 147, दोनों को मिलाकर 343 घनराजू विस्तार हुआ । यही तीनों लोकों का सम्मिलित विस्तार है ।
प्रश्न 225―मध्यलोक का विस्तार क्यों नही जोड़ा गया है?
उत्तर―मध्यलोक का उत्सेध राजू के मुकाबले न कुछ है, इसलिये इसे पृथक् से गिनती में नहीं लिया जा सकता है । यह न कुछ जैसा अंश ऊर्ध्वलोक के बताये गये माप में सबसे नीचे का अंश है ।
प्रश्न 226―अधोलोक में कैसी रचनायें हैं?
उत्तर―दक्षिण व उत्तर में तीन-तीन राजू क्षेत्र छोड़कर लोक के मध्य में 14 राजू उत्सेध की एक त्रसनाली है, अधोलोक की त्रसनाली के भाग में 7 नरकों की रचना है । नरक 7 पृथ्वीयों में हैं ।
प्रश्न 227―नरक की 7 पृथ्वियाँ किस क्रम से व्यवस्थित हैं?
उत्तर―इनमें सबसे ऊपर मेरुपर्वत की आधारभूत रत्नप्रभा नाम की पृथ्वी है । इसका बाहुल्य (मोटाई) एक लाख अस्सी हजार योजन है । इसके भी खरभाग, पंकभाग, अब्बहुलभाग, ये तीन भाग हैं । जिन में खरभाग व पंकभाग में तो भवनवासी व व्यंतर देवों के आवास हैं, नीचे के अब्बहुलभाग के बिलों में नारक जीव हैं । इससे नीचे एक राजू आकाश जाकर नीचे शर्कराप्रभा नाम की दूसरी पुथ्वी 32 हजार योजन मोटी है । इसके नीचे एक राजू आकाश जाकर इसके नीचे बालुकाप्रभा नाम की तीसरी पृथ्वी 28 हजार योजन मोटी है । इसके नीचे एक राजू आकाश जाकर पंकप्रभा नाम की 14 हजार योजन मोटी चौथी पृथ्वी है । इसके नीचे एक राजू आकाश जाकर 20 हजार योजन मोटी धूमप्रभा नाम की पाँचवीं पृथ्वी है । इसके नीचे एक राजू आकाश जाकर 16 हजार योजन मोटी तमप्रभा नाम की छठवीं पृथ्वी है । इसके नीचे एक राजू आकाश जाकर 8 हजार योजन मोटी महातम: नाम की 7वीं पृथ्वी है । इसके नीचे एक राजू प्रमाण आकाश है ।
प्रश्न 228―क्या पृथ्वी का माप 7 राजू क्षेत्र से अतिरिक्त है?
उत्तर―पृथ्वी राजू से अतिरिक्त क्षेत्र नहीं है, किंतु राजु के सामने पृथ्वी का बाहुल्य न कुछसा है, इसलिये नीचे एक-एक राजू आकाश का वर्णन किया है ।
प्रश्न 229―इन पृथ्वियों के बिल किस प्रकार हैं?
उत्तर―इन पृथ्विथों के इस प्रकार पटल (बिलरचना भाग) हैं―पहिली में 13, दूसरी में 11, तीसरी में 9, चौथी में 7, पाँचवीं में 5, छठी में 3, सातवीं में 1 । प्रत्येक पटल में बिल हैं । पृथ्वी के भीतर ही भीतर यह क्षेत्र हैं । इन स्थानों का कहीं भी मुख नहीं है, जो पुथ्वी के ऊपर हो । इसलिये इन्हें बिल कहते हैं ।
प्रश्न 230―ये बिल कितने बड़े हैं?
उत्तर―कोई बिल संख्यात हजार योजन का है और कोई बिल असंख्यात हजार योजन का है ।
प्रश्न 231―किस पृथ्वी में कितने बिल हैं?
उत्तर―पहिली में 30 लाख बिल हैं । दूसरी में 25 लाख, तीसरी में 15 लाख, चौथी में 10 लाख, पाँचवीं में 3 लाख, छठी में 99995 व सातवीं में केवल 5 बिल हैं । इन सबका वर्णन धर्मग्रंथों से देख लेना चाहिये । विस्तार भय से यहाँ नहीं लिखते हैं ।
प्रश्न 232―इन बिलों में रहने वाले नारकी कैसे जीव होते हैं?
उत्तर-―जो जीव जीवहिंसक, चुगल, दगाबाज, चोर, डाकू, व्यभिचारी और अधिक तृष्णा वाले होते हैं वे मरकर नरकगति में जन्म लेते हैं । इन नारकियों को शीत, उष्ण, भूख प्यास आदि की तीव्र वेदना रहती है । वेदना मेटने का वहाँ जरा भी साधन नहीं है । इनकी खोटी देह होती है । ये परस्पर लड़ते, काटते, छेदते रहते हैं । इनका शरीर ही हथियार बन जाता है, ऐसी खोटी विक्रिया है । इनकी आयु कम से कम दस हजार वर्ष और अधिक से अधिक 33 सागर की होती है । लड़ते-लड़ते शरीर के खंड-खंड हो जाते हैं और पारे की तरह फिर मिल जाते हैं । इनकी बीच में मृत्यु भी नहीं होती ।
प्रश्न 233-―जीव जिस कर्म के उदय से नारकी होता है?
उत्तर-―नरकायु, नरकगति आदि कर्मों के उदय से जीव नारकी होता है । इन कर्मों का बंध निजस्वभाव के श्रद्धान से च्युत रहकर विषयों की लंपटता के परिणाम के निमित्त से होता है ।
प्रश्न 234-―नरकभव के दु:खों से बचने का क्या उपाय है?
उत्तर-―निज स्वभाव की प्रतीति करना नरकभव से मुक्त होने का उपाय है ।
प्रश्न 2 35―मध्यलोक की क्या-क्या रचनायें हैं?
उत्तर―मध्यलोक एक राजू तिर्यग्विस्तार वाला है इसके ठीक बीच में सुदर्शन नामक मेरूपर्वत है । यह जंबूद्वीप के ठीक बीच में है । जिस द्वीप में हम रहते हैं यह वही जंबूद्वीप है इसका विस्तार एक लाख योजन का है । इस द्वीप की दक्षिण दिशा में किनारे पर जंबूद्वीप के 1/990 भाग में भरतक्षेत्र है । इस भरतक्षेत्र के आर्यखंड में हम रहते हैं । इसके उत्तर की ओर 2/190 विस्तार में हिमवान पर्वत है । 4/190 विस्तार में हैमवत᳭ क्षेत्र है, इसमें सदा जघन्यभोगभूमि रहती है । 8/190 विस्तार में महाहिमवान पर्वत है । 16/190 विस्तार में हरिक्षेत्र है, यहाँ सदा मध्यम भोगभूमि रहती है । 32/190 विस्तार में निषध पर्वत है । 64/190 विस्तार में विदेहक्षेत्र है । इसके थोड़े से देवकुरु उत्तरकुरु क्षेत्र को छोड़कर जिसमें कि सदा उत्तमभोगभूमि रहती है, समस्त विदेह क्षेत्र से सदा मुक्ति का मार्ग चलता रहता है तथा अनेक भव्य जीव मुक्त होते रहते हैं । यहाँ तीर्थंकर भी सदा पाये जाते हैं । इसके पश्चात् उत्तर की ही ओर 32/190 विस्तार में नील पर्वत है । 16/190 विस्तार में रम्यक᳭क्षेत्र है । यहाँ सदा मध्यमभोगभूमि रहती है । 8/190 विस्तार में रुक्मि पर्वत है । 4/190 विस्तार में हैरण्यवत᳭क्षेत्र है, इसमें सदा मध्यमभोगभूमि रहती है । 2/190 विस्तार में शिखरी पर्वत है । 1/190 विस्तार में ऐरावत क्षेत्र है, इसमें भरतक्षेत्रवत् रचना रहती है । भरत ऐरावत क्षेत्रों में बीच में विजयार्द्ध पर्वत भी है । विदेह में निषध व नील से मेरू के समीप तक दो-दो गजदंत पर्वत हैं । कुलाचल आदि पर्वतों पर अकृत्रिम जिनभवन व जिनचैत्यालय हैं ।
प्रश्न 236―जंबूद्वीप से आगे क्या है?
उत्तर―जंबूद्वीप से आगे चारों ओर लवणसमुद्र है । इसके दोनों तरफ वेदिका है । इस समुद्र का विस्तार एक ओर दो लाख योजन है । यह चूड़ी के आकार का गोल याने वृत्त है ।
प्रश्न 237―लवण समुद्र के आगे क्या है?
उत्तर―लवणसमुद्र से आगे चारों ओर धात की खंड नाम का द्वीप है । इसमें दक्षिण और उत्तर में वेदिका से वेदिका तक एक-एक इष्वाकार पर्वत है, जिससे दो भाग इस द्वीप के हो जाते हैं । प्रत्येक भाग 7 क्षेत्र, 6 कुलाचल, 1 मेरुपर्वत है । इस तरह धातकी खंड में 14 क्षेत्र, 12 कुलाचल, 2 मेरु हैं । इनमें व्यवहार का वर्णन भरत के क्षेत्रों की तरह जानना । इस द्वीप का विस्तार एक ओर 4 लाख योजन है । यह भी चूड़ी के आकार का वृत्त है व आगे सभी द्वीप समुद्र इसी प्रकार गोल एक दूसरे को घेरे हुये हैं ।
प्रश्न 238―धातकी खंड द्वीप से आगे क्या है?
उत्तर―धातकी खंड द्वीप से आगे चारों ओर कालोद समुद्र है । इसके दोनों ओर दो वेदिकायें हैं । इसका विस्तार एक ओर 8 लाख योजन है ।
प्रश्न 239―कालोद समुद्र से आगे क्या है?
उत्तर―कालोद समुद्र से आगे पुष्करवर द्वीप है । इसका एक ओर विस्तार 16 लाख योजन है । इसके बीच चारों ओर गोल मानुषोत्तनामा पर्वत है । इस पूर्वार्द्ध में धातकी खंड द्वीप जैसी रचना है । यहाँ तक ही मनुष्यलोक है । इससे परे उत्तरार्द्ध में तथा आगे-आगे, द्वीप और समुद्र असंख्यात हैं । उनमें से अंतिम द्वीप व समुद्र को छोड़कर सबमें कुभोगभूमि जैसा व्यवहार है ।
प्रश्न 240―अंतिम द्वीप में व सागर में क्या रचना है?
उत्तर―स्वयंभूरमण नामक अंतिम द्वीप और स्वयंभूरमण नामक अंतिम समुद्र में कर्मभूमि जैसी रचना है, किंतु उसमें हैं तिर्यंच ही । इसी द्वीप व समुद्र में बहुत बड़ी अवगाहना वाले भ्रमर, बिच्छू, मत्स्य आदि पाये जाते हैं ।
मध्यलोक का वर्णन भी बहुत बड़ा है, इसे धर्मग्रंथों से देख लेना चाहिये । विस्तारमय से यहाँ नहीं लिखा है ।
प्रश्न 241―मध्यलोक के वर्णन से हमें क्या प्रेरणा मिलती है?
उत्तर―विदेह की रचना से यह बोध हुआ कि साक्षात् मोक्षमार्ग सदा खुला हुआ है । मध्यलोक में ढाई द्वीप में, नंदीश्वरद्वीप में व तेरहवें द्वीप में व अन्यत्र अकृत्रिम चैत्यभवन हैं । उनके बोध से भक्ति उमड़ती है । तथा सर्वसार की बात यह है कि यदि निज शुद्ध आत्मतत्त्व का श्रद्धान ज्ञान आचरणरूप समाधिभाव हो गया तो संसार के दुःखों से मुक्त हुआ जा सकता है अन्यथा मध्यलोक में भी अनेक प्रकार के कुमानुष व तिर्यंच भव धारण करके भी संसार ही बढ़ेगा । यह मनुष्यजन्म अनुपम जन्म है, इसे पाकर भेदरत्नत्रय व यथायोग्य अभेदरत्नत्रय की भावना से अपना निज निश्चयलोक सफल करो ।
प्रश्न 242―ऊर्ध्वलोक की क्या-क्या रचनायें हैं?
उत्तर―मेरु की चूलिका से ऊपर लोक के अंत तक ऊर्ध्वलोक कहलाता है । जिसकी 7 राजू त्रसनाली में देवों के विमान हैं और कई सर्वोपरि सिद्धलोक हैं । ऊर्ध्वलोक की त्रसनाली में पहिले ऊपर-ऊपर 8 कल्पों में 16 स्वर्ग हैं । इसके ऊपर ग्रैवेयकविमान हैं, इसके ऊपर अनुदिश विमान है, इसके ऊपर अनुत्तरविमान हैं, इसके ऊपर सिद्धशिला है और इसके आगे ऊपर सिद्धलोक हैं ।
प्रश्न 243―प्रथमकल्प में कैसी रचना है?
उत्तर―सुदर्शन मेरु की चूलिका के ऊपर 1।। राजू तक प्रथम कल्प है । इस कल्प में 31 पटल हैं अर्थात् ऊपर-ऊपर 31 जगह विमानों की अवस्थिति है । जैसे पहिले पटल में मध्य में ऋतुनामक इंद्रक विमान है, यह विमान मेरु चूलिका के ऊपर बाल की मोटाई प्रमाण अंतर छोड़कर अवस्थित है । इसकी चारों दिशाओं में 63-63 विमान हैं, विदिशाओं में 62-62 विमान हैं, मध्य में अनेक विमान हैं । ये विमान कई संख्यात योजन विस्तार वाले हैं और कई असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं । इसी तरह ऊपर के पटलों में रचना जानना, केवल दिशावों में व विदिशावों में 1-1 विमान कम होते गये हैं । प्रकीर्णक विमानों की भी संख्या यथासंभव कम होती गई है ।
उक्त 31 पटलों में उत्तरदिशा, आग्नेयदिशा, वायव्यदिशा की पंक्ति के विमानों व आग्नेय उत्तर के बीच व वायव्य उत्तर दिशा के मध्य के प्रकीर्णक विमानों का अधिपति ईशान इंद्र है और शेष सब विमानों का याने दक्षिण, पूर्व, पश्चिम, ईशान, नैऋत―इन पांच दिशाओं की पंक्ति के विमानों व छहों अंतरालों के प्रकीर्णक विमानों का अधिपति सौधर्म इंद्र है । सौधर्म इंद्र दक्षिणेंद्र कहलाता है और ईशानइंद्र उत्तरेंद्र कहलाता है । दक्षिणेंद्र के विमान अधिक होते हैं, उत्तरेंद्र के विमान कम होते हैं । इन सब विमानों में देव देवियां रहती हैं । इन देवों की आयु प्राय: दो सागर तक की होती है । देवियों की आयु अनेक पल्य प्रमाण होती है । ऊपर के स्वर्गों आदि के देवों की आयु बढ़ती जाती है । देवियां 8 कल्पों तक ही होती हैं और उनकी आयु पल्यों प्रमाण ही बढ़कर भी रहती है । सब देवियों की उत्पत्ति पहिले कल्प में ही होती है । सब विमानों में अकृत्रिम जिनचैत्यभवन भी हैं ।
प्रश्न 244―द्वितीय कल्प में कैसी रचना है?
उत्तर―प्रथम कल्प से ऊपर 1।। राजू पर्यंत रहने वाले द्वितीय कल्प में 7 पटल हैं । इनमें दक्षिणेंद्र सनत्कुमार इंद्र है और उत्तरेंद्र महेंद्र इंद्र है । दक्षिण विभाग का नाम सानत्कुमार स्वर्ग है और उत्तर विभाग का नाम माहेंद्र स्वर्ग है ।
प्रश्न 245―तृतीय कल्प में क्या रचना है?
उत्तर―तृतीय कल्प में 4 पटल हैं―दक्षिण विभाग का नाम ब्रह्म स्वर्ग है और उत्तर विभाग का नाम ब्रह्मोत्तर स्वर्ग है । यह कल्प द्वितीय कल्प से ऊपर आधा राजू पर्यंत अवस्थित है । इस कल्प का ब्रह्म नामक एक ही इंद्र है ।
प्रश्न 246―चतुर्थ कल्प की कैसी रचना है?
उत्तर―तृतीय कल्प से ऊपर आधा राजू पर्यंत आकाश में चतुर्थ कल्प है । इसमें दो पटल हैं । इनके दक्षिणविभाग का नाम लांतव स्वर्ग है व उत्तर विभाग का नाम कापिष्ठ स्वर्ग है । इस कल्प का इंद्र लांतव नामक एक ही है ।
प्रश्न 247―पंचम कल्प की कैसी रचना है?
उत्तर―चतुर्थ कल्प से ऊपर आधा राजू पर्यंत आकाश में पच्छम कल्प है । इसमें पटल एक है । इसके दक्षिण विभाग का नाम शुक्र स्वर्ग है और उत्तर विभाग का नाम महाशुक्र स्वर्ग है । इसमें शुक्र नामक एक ही इंद्र है ।
प्रश्न 248―छठे कल्प को कैसी रचना है?
उत्तर―पंचम कल्प से ऊपर आधा राजू पर्यंत आकाश में छठा कल्प है । इसमें भी पटल एक है । इसके दक्षिण विभाग का नाम शतार स्वर्ग है और उत्तर विभाग का नाम सहस्रार स्वर्ग है । इस कल्प में शतार नामक एक ही इंद्र है ।
प्रश्न 249―सातवें कल्प की कैसी रचना है?
उत्तर-छठे कल्प से ऊपर आधा राजू पर्यंत आकाश में सातवां कल्प है । इसमें 3 पटल हैं । जिनके दक्षिण विभाग का नाम आनत स्वर्ग है और अधिपति आनतनामक इंद्र है । उत्तर विभाग का नाम प्राणत स्वर्ग है और अधिपति प्राणत इंद्र है ।
प्रश्न 250―आठवें कल्प की कैसी रचना है?
उत्तर―सातवें कल्प के ऊपर आधा राजू पर्यंत आकाश में आठवां कल्प है । इसमें 3 पटल हैं । जिनके दक्षिण विभाग का नाम आरण स्वर्ग है और अधिपति आरणनामक इंद्र है । उत्तर विभाग का नाम अच्युत स्वर्ग है और अधिपति अच्युत इंद्र है ।
प्रश्न 251―ग्रैवेयकविमानों की कैसी रचना है?
उत्तर―आठवें कल्प के ऊपर 1 राजू पर्यंत आकाश में ग्रैवेयक, अनुदिश, अनुत्तर व सिद्धशिला एवं सिद्धलोक हैं । जिसमें ग्रैवेयक की रचना इस प्रकार है-ग्रैवेयक में पटल 9 हैं । भव्यमिथ्यादृष्टि जीव व अभव्य भी ग्रैवेयकों तक के देवों में ही जन्म ले सकते हैं । किंतु अभव्य जीव दक्षिणेंद्र, लोकांतिक देव, लोकपाल व प्रधान दिक्पाल नहीं हो सकते हैं । ग्रैवेयकों में उत्पत्ति मुनिलिंग धारण करने वाले तपस्वी साधुवों की ही हो सकती है, चाहे वे द्रव्यलिंगी हों या भावलिंगी । ग्रैवेयकवासी देव सब अहमिंद्र हैं ।
प्रश्न 252―अनुदिश विमानों की कैसी रचना है?
उत्तर―ग्रैवेयक से ऊपर अनुदिश है । इसमें 1 पटल है व कुल विमान 9 हैं―1 मध्य में और 8 दिशाओं में । इन विमानों में सम्यग्दृष्टि मुनि ही उत्पन्न हो सकता है । ये सब अहमिंद्र होते हैं । इनकी आयु जघन्य 31 सागर व उत्कृष्ट 32 सागर की होती है ।
प्रश्न 253―अनुत्तर विमानों की कैसी रचना है?
उत्तर―अनुदिश से ऊपर अनुत्तर है । इसमें 1 पटल है व विमान केवल 5 हैं । मध्य में तो सर्वार्थसिद्ध नामक विमान है, पूर्व में विजय, दक्षिण में वैजयंत, पश्चिम में जयंत और उत्तर में अपराजित विमान है । सर्वार्थसिद्धि के देवों की आयु 33 सागर है । ये 1 भव मनुष्य का धारण कर मोक्ष को प्राप्त होते हैं । विजयादिक 4 विमानों के वासी देवों की आयु जघन्य 32 सागर व उत्कृष्ट 33 सागर की होती हैं । ये दो भवावतारी होते हैं । ये सब अहमिंद्र हैं ।
प्रश्न 254―सिद्धशिला कहां पर और कैसी है?
उत्तर―सर्वार्थसिद्धि विमान की चोटी से 12 योजन ऊपर सिद्धशिला है । यह मनुष्य लोक के सीध में ऊपर है और 45 लाख योजन की विस्तार वाली है, इसकी मोटाई 8 योजन है । इसका आकार छत्र की तरह है । इस पर सिद्धभगवान तो विराजमान नहीं हैं, किंतु इसके कुछ ऊपर इस सिद्धशिला के विस्तार प्रमाण क्षेत्र में सिद्धभगवान विराजमान है । बीच में वातवलयों के सिवाय अन्य कोई रचना नहीं है, अत: इसे सिद्धशिला कहते हैं ।
प्रश्न 255―सिद्धलोक का संक्षिप्त विवरण क्या है?
उत्तर ―सिद्धशिला के ऊपर योजन बाहुल्य वाला धनोदधि वातवलय है । इसके ऊपर योजन बाहुल्य वाला घनवातवलय है, इसके ऊपर बाहुल्य प्रमाण तनुवातवलय है । इस तनुवातवलय के अंत में सिद्धभगवान विराजमान हैं । जो साधु मनुष्यलोक में जिस स्थान से कर्ममुक्त हुए हैं उसकी सीध में ऊपर एक समय में ही आकर लोक के अंत तक यहाँ स्थित हैं । यहीं लोक का भी अंत हो जाता है ।
प्रश्न 256―यह 343 घनराजूप्रमाण लोक किसके आधार पर स्थित है?
उत्तर―इस लोक के सब ओर घनोदधिवातवलय है । उसके बाद घनवातवलय है, उसके बाद तनुवातवलय है । इन वातवलयों के आधार पर सब लोक अवस्थित हैं । ये वातवलय भी लोक में ही शामिल हैं । वातवलय वायु स्वरूप होने से ये किसी के आधार पर नहीं हैं, मात्र आकाश ही उनका आधार है ।
प्रश्न 257―इस लोकानुप्रेक्षा से विशेष लाभ क्या है?
उत्तर―लोक के आकार रचनाओं के बोधरूप विशेष परिचय से उत्कृष्ट वैराग्य होता है और इसको संस्थान का विचय होने से संस्थानविचय नाम का उत्कृष्ट धर्मध्यान होता है ।
प्रश्न 258―बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―निज शुद्धआत्मतत्त्व का श्रद्धान, ज्ञान, आचरणरूप बोधि का पाना अत्यंत दुर्लभ है । इस प्राप्त हो रही बोधि की वृद्धि और दृढ़ता करना चाहिये, ऐसे चिंतवन करने और समाधि की और उन्मुख होने को बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 259―बोधि अत्यंत दुर्लभ कैसे है?
उत्तर―इस जीव ने अनादिकाल ने तो एकेंद्रिय (साधारणवनस्पति) मैं ही रहकर अनंत काल व्यतीत किया, उसके पश्चात् सुयोग हुआ तो उत्तरोत्तर दुर्लभ द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय, असंज्ञी पंचेंद्रिय, संज्ञी पंचेंद्रिय, पर्याप्त, संज्ञी, मनुष्य, उत्तम देश, उत्तम कुल, इंद्रियों का सामर्थ्य, दीर्घआयु, प्रतिभा, धर्मश्रवण, धर्मग्रहण, धर्मश्रद्धान, विषयसुखों की निवृत्ति, कषायों की निवृत्ति व रत्नत्रय की प्राप्ति होती है । अत: आत्मश्रद्धान, आत्मज्ञान व आत्माचरण रूप बोधिदुर्लभ है ।
प्रश्न 260―इस जीव ने निम्न दशाओं में रहकर अनंत परिवर्तन क्यों किये?
उत्तर―मिथ्यात्व, विषयासक्ति, कषाय आदि परिणामों के कारण इस जीव की निम्न दशा हुई ।
प्रश्न 261―बोधि प्राप्त करके यदि प्रमाद रहा तो क्या हानि होगी?
उत्तर―अत्यंत दुर्लभ रत्नत्रयरूप बोधि को पाकर यदि प्रमाद किया तो संसाररूपी भयानक वन में दीन होकर चिरकाल तक भ्रमण कर दुःख भोगना पड़ेगा ।
प्रश्न 262―बोधि और समाधि में क्या अंतर है?
उत्तर―जिस जीव के सम्यग्दर्शन नहीं है उस जीव को सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की प्राप्ति होना सो तो बोधि है और रत्नत्रय बनाये रहना, वृद्धि करना तथा भवांतर में ले जाना सो समाधि है । निर्वाण प्राप्त कर लेना यह परमसमाधि है ।
प्रश्न 263―धर्मानुप्रेक्षा किसे कहते हैं?
उत्तर―धर्म के बिना ही यह जीव सहजसुख से दूर रह कर इंद्रियाभिलाषाजनित दुःखों को सहता हुआ 84 लाख योनियों में भ्रमण करता हुआ चला आया है । जब इस जीव को धर्म का शरण हो जाता है तब राजाधिराज चक्रवर्ती देवेंद्र जैसे उत्कृष्ट पदों के सुख, भोगकर अभेद रत्नत्रयभावनारूप परमधर्म के प्रसाद से अरहंत होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त होता है । इत्यादि धर्म की उत्कृष्टता के चिंतवन करने और धर्माचरण को धर्मानुप्रेक्षा कहते हैं ।
प्रश्न 264―धर्म का क्या स्वरूप है?
उत्तर―धर्म के स्वरूप का कई प्रकारों से वर्णन है, उन्हें क्रम से लिखते हैं । उनमें प्राय: उत्तरोत्तर पहिले की अपेक्षा आगे को व्यवहार या बहिरंगरूप लक्षण जानने चाहियें:―-
(1) अखंड चैतन्यस्वभाव को धर्म कहते हैं ।
(2) अखंड चैतन्यस्वभाव के पूर्ण अनुरूप परिणमन को धर्म कहते हैं ।
(3) मोह, क्षोभ से सर्वथा मुक्त आत्मपरिणमन को धर्म कहते हैं ।
(4) रागद्वेष की बाधारहित परमअहिंसा को धर्म कहते हैं ।
(5) निज शुद्धात्मा के श्रद्धान, ज्ञान, आचरणरूप अभेदरत्नत्रय को धर्म कहते हैं ।
(6) शुद्धात्मा के संवेदन को धर्म कहते हैं ।
(7) शुद्धात्मा के अवलंबन को धर्म कहते हैं ।
(8) शुद्धात्मतत्त्व के उपयोग को धर्म कहते हैं ।
(9) शुद्धात्मतत्त्व की भावना को धर्म कहते हैं ।
(10) शुद्धात्मतत्त्व की प्रतीति दृष्टि को धर्म कहते हैं ।
(11) उत्तम क्षमादि दस विशुद्ध भावों को धर्म कहते हैं ।
(12) जीवादि तत्त्वों के यथार्थ श्रद्धान, यथार्थ ज्ञान और अव्रतत्यागरूप भेदरत्नत्रय को धर्म कहते हैं ।
(13) जो दुःखों से छुटाकर उत्तम सुख में ले जावे उसे धर्म कहते हैं ।
(14) समता, वंदनादिक साधु के षट् आवश्यकों के पालन करने को धर्म कहते हैं ।
(15) देवपूजा गुरुपास्ति आदिक श्रावक के 6 कर्तव्यों के पालन करने को धर्म कहते हैं ।
(16) जीवदया करने को धर्म कहते हैं ।
प्रश्न 265―परीषहजय नामक भावसंवर विशेष किसे कहते हैं?
उत्तर―अनेक परीषहों, वेदनाओं का तीव्र उदय होने पर भी सुख-दुःख, लाभ, अलाभ आदि में समतापरिणाम के द्वारा जो कि सम्वर और निर्जरा का कारण है, निज शुद्धात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सहज आनंद से चलित नहीं होने को परीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 266―परीषहजय कितने प्रकार के हैं?
उत्तर―परीषहजय 22 प्रकार के हैं―(1) क्षुधापरीषहजय, (2) तृषापरीषहजय, (3) शीतपरीषहजय, (4) उष्णपरीषहजय, (5) दंशमशकपरीवहजय, (6) नाग्न्यपरीषहजय, (7) अरतिपरीषहजय, (8) स्त्रीपरीषहजय, (9) चर्यापरीषहजय, (10) निषद्यापरीषहजय, (11) शय्यापरीषहजय, (12) आकाशपरीषहजय, (13) बधपरीषहजय, (14) याचनापरीषहजय, (15) अलाभपरीषहजय, (16) रोगपरीषहजय, (17) तृणस्पर्शापरीषहजय, (18) मलपरीषहजय, (19) सत्कारपुरस्कारपरीषहजय, (20) प्रज्ञापरीषहजय, (21) अज्ञानपरीषहजय, (22) अदर्शनपरीषहजय ।
प्रश्न 267―क्षुधापरीषहजय का क्या स्वरूप है?
उत्तर―मास दो मास, चार मास, छ: मास तक के उपवास होने पर भी अथवा एक वर्ष तक आहार न करने पर भी अथवा अनेक प्रकार की तपस्याओं से शरीर कृश होने पर भी क्षुधावेदना के कारण अपने विशुद्ध ध्यान से च्युत न होना और मोक्षमार्ग में विशेष उत्साह से लगना सो क्षुधापरीषहजय है । ये साधु ऐसे समय ऐसा भी चिंतवन करते हैं कि परतंत्र होकर नरकगति में सागरों पर्यंत क्षुधा सही । तिर्यंच पर्याय में पर के वश होकर मनुष्य पर्याय में जेलखाने आदि में रहकर अनेक क्षुधावेदनायें सहीं । यहाँ तो यह वेदना क्या है जब कि मैं आत्माधीन, स्वतंत्र हूँ आदि ।
प्रश्न 268―तृषापरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―प्रतिदिन भ्रमण करते रहने पर भी कडुवा, तीखा आदि यथाप्राप्त भोजन करने पर भी आतापनयोग आदि अनेक तपस्या करनेपर भी स्नान, परिसेवन आदि का परित्याग करने वाले साधु के आत्मध्यान से विचलित न होने और संतोषजल से तृप्त रहने को तृषापरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 269―शीतपरीषहजय का क्या स्वरूप है?
उत्तर―तीव्र शीत ऋतु में हवा, तुषार के बीच मैदान में, वन में आत्मसाधना के अर्थ आवास करने पर भी पूर्व के आरामों का स्मरण न करते हुए नरकादि की शीतवेदनाओं का परिज्ञान रखने वाले साधु के शीतवेदना के कारण आत्मसाधना से चलित न होने को शीतपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 270―उष्णपरीपहजय किसे कहते हैं?
उत्तर-―तीव्र ग्रीष्मकाल में तस मार्ग पर विहार करने पर भी, जलते हुये वन के बीच रहने पर भी एवं अन्य ऐसे अनेक प्रसंग होने पर भी भेदविज्ञान के बल से समतापरिणाम में स्थिर रहने को उष्णपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 271―दंशमशकपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―डांस, मच्छर, बिच्छू, चींटी आदि कीटों के काटने से उत्पन्न हुई वेदना को आत्मीय आनंद के अनुरागवश क्षमता से सहन करने को दंशमशकपरीषजय कहते हैं ।
प्रश्न 272―नाग्न्यपरीषह जय किसे कहते हैं?
उत्तर―कामिनी निरीक्षण आदि चित्त को मलिन करने वाले अनेक कारणों के मिलने पर भी सहजस्वरूप के साधक नग्नस्वरूप रहने की प्रतिज्ञा में स्थिर रहने और निर्विकार रहने को नाग्न्यपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 273―अरतिपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―अनिष्ट पदार्थों का समागम हो जाने पर भी पूर्व रति का स्मरण न करते हुये अरति याने विरोध, ग्लानि न करने और आत्मसाधना में बने रहने को अरतिपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 274―स्त्रीपरीषहजय किसे कहते है?
उत्तर―रूपयौवनगर्वोन्मत्त युवती के द्वारा एकांत में नाना अनुकूल प्रयत्न करने पर भी निर्विकार रहने को स्त्रीपरीपहजय कहते हैं ।
प्रश्न 275―चर्यापरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―गुरुजनों की चिरकाल तक सेवा करने से जिनका ज्ञान, ब्रह्मचर्य और वैराग्य दृढ़ हो गया, ऐसे साधु के गुरु आज्ञा से एकाकी विहार करते हुये पैर में कांटा, कंकड़ आदि तीक्ष्ण नुकीली चीज के छिद जाने पर भी पूर्वानुभूत सवारी के, आराम का स्मरण न करते हुये समता से वेदना के सहन कर लेने और आत्मचर्या में उद्यत रहने को चर्यापरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 276―निषद्यापरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―भयंकर वन में, कंकरीले व स्थंडिल प्रदेश पर ध्यान करते समय व्याधि, उपसर्ग आदि की बाधाओं को समता से सहकर आसन से, कायोत्सर्ग से चलायमान न होने और अपने आप में स्थित होने को निषद्यापरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 277―शय्यापरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―स्वाध्याय आदि आवश्यक कर्तव्यों के करने से हुये शारीरिक थकान के निराकरणार्थ तिकोने, गठीले, कंकरीले आदि भूमि पर एक करवट, दंडवत् आदि से शयन करते हुये खेद न मानने को शय्यापरीषहजय कहते हैं । साधु इस समय कोई आकुलता नहीं करते हैं । जैसे―यह वन हिंसक जंतुओं से व्याप्त है, जल्दी निकल जाना चाहिये अथवा कब रात खत्म होती है आदि ।
प्रश्न 278―आक्रोशपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―किसी के द्वारा बाणों की तरह मर्मभेदी दुर्वचन, गाली आदि के प्रयोग किये जाने पर भी प्रतीकार में समर्थ होकर भी उन्हें क्षमा कर देने और अपने में विकार उत्पन्न न होने देने को आक्रोशपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 279―बधपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―किसी चोर, डाकू, बैरी आदि के द्वारा मारे पीटे व प्राणघात किये जाने पर भी अबध्य शुद्धात्मद्रव्य के अनुभव में स्थिर रहने को बधपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 280―याचनापरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―कितनी ही व्याधि अथवा क्षुधादि की वेदना होने पर भी औषधि आहार आदि की याचना व इशारा आदि न करने और अपने चैतन्यस्वभाव वैभव की दृष्टि से संतुष्ट रहने को याचनापरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 281―अलाभपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―कितनी ही वेदना का प्रसंग होने पर भी आहार, औषधि आदि का अलाभ होने पर, लाभ से अलाभ को श्रेयस्कर समझकर धैर्य से विचलित न होने और आत्मलाभ से तृप्त रहने को अलाभपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न282―रोगपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―कष्ट आदि अनेक दुःख रोगों के होने पर उनके निवारण करने का ऋद्धि बल से सामर्थ्य होने पर भी निर्विकल्पसमाधि की रुचि के कारण प्रतीकार न करने, समता से उसे सहने और निरामय आत्मस्वरूप के लक्ष्य से चलित न होने को रोगपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 283―तृणस्पर्शपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―नुकीला तृण, कंकरीली भूमि, पत्थर की शिला आदि पर विहार व्याधि आदि के कारण हुए देहजश्रम के निवारणार्थ शयन आसन करते हुये खेद न मानने और स्वरूपस्पर्श की ओर ध्यान बनाये रहने को तृणस्पर्शपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 284―मलपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―पसीने के मल से दाद, खाज, छाजन आदि तक की वेदनायें हो जाने पर भी पीड़ा की ओर लक्ष्य न देने, जीवदया के भाव से रगड़ना, उबटन आदि न करने और कर्ममल दूर करने वाले स्वानुभव के तप में लीन रहने को मलपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 285―सत्कारपुरस्कारपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―दूसरों के द्वारा प्रशंसा, सम्मान किये जाने पर प्रसन्न न होने व निंदा अपमान किये जाने पर रुष्ट न होने तथा अनेक चातुर्य तप होने पर भी कोई मेरी मान्यता नहीं करता, ऐसा भाव न लाने और निज चैतन्यस्वभाव की महिमा में लगे रहने को सत्कारपुरस्कारपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 286―प्रज्ञापरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―मिथ्याप्रवादियों पर विजय प्राप्त करने पर भी, अनेक विद्यावों के पारगामी होने पर भी गर्व न करने और निज विज्ञानघनस्वभाव में उपयुक्त रहने को प्रज्ञापरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 287―अज्ञानपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―अनेक तपों को चिरकाल से करते रहने पर भी मुझे अवधिज्ञान आदि कोई प्रकृष्ट ज्ञान नहीं हुआ, बल्कि मुझे लोग मंदबुद्धि, मूर्ख आदि कहते हैं, इस प्रकार के अज्ञानजनित खेद न करने और ज्ञानसामान्य स्वभाव की दृष्टि द्वारा प्रसन्न रहने को अज्ञानपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 288―अदर्शनपरीषहजय किसे कहते हैं?
उत्तर―महोपवासादि अनेक तपस्यावों के करने पर भी अब तक कोई अतिशय या प्रातिहार्य प्रकट नहीं हुआ । मालूम होता है कि जो यह शास्त्रों में वर्णित है कि महोपवासादि तप के माहात्म्य से प्रातिहार्य या ज्ञानातिशय हो जाते हैं यह मिथ्या है, तप करना व्यर्थ है ऐसे दुर्भाव न होने व सत्यश्रद्धान से चलित न होकर आत्मदर्शन की और बने रहने को अदर्शनपरीषहजय कहते हैं ।
प्रश्न 289―साधु के एक समय में अधिक से अधिक कितनी परीषहों का विजय हो जाता है?
उत्तर―साधु के एक समय में अधिक से अधिक 19 परीषहों का विजय हो जाता है । तीन परीषहें इसलिये कम हो जाती हैं कि एक समय में शीत, उष्ण से एक ही होगा व निषद्या, चर्या, शय्या में से एक ही होगा ।
प्रश्न 290―परीषहजय से क्या-क्या लाभ है?
उत्तर―परीषहजय के लाभ इस प्रकार है―
(1) बिना दुःख के अभ्यास किया हुआ ज्ञान दुख उपस्थित होने पर भ्रष्ट हो सकता है, किंतु दुःखों में धैर्य बनाने वाले परीषहजय के अभ्यासी का ज्ञान भ्रष्ट नहीं हो सकता, अत: परीषहजय से ज्ञान की दृढ़ता का लाभ है ।
(2) कर्मों का उदय निष्फल टल जाना ।
(3) पूर्वस्थित कर्मों की निर्जरा होना ।
(4) नवीन अशुभ कर्मों का व यथोचित शुभ कर्मों का संवर होना ।
(5) सदा निःशंक रहना ।
(6) आगामी भय से मुक्त रहना ।
(7) धैर्य, क्षमा, संतोष आदि की वृद्धि से इस लोक में सुखी रहना ।
(8) पापप्रकृतियों का नाश होने से परलोक में नाना अभ्युदय मिलना ।
(9) सर्व संसार दुःखों से रहित परमानंदमय मोक्षपद मिलना इत्यादि अनेक लाभ परीषहजय से होते हैं ।
प्रश्न 291―चारित्रनामक भावसंवरविशेष किसे कहते हैं?
उत्तर―निज शुद्ध आत्मस्वरूप में अवस्थित रहने को चारित्र कहते हैं ।
प्रश्न 292―चारित्र के कितने भेद हैं?
उत्तर―चारित्र तो वस्तुत: एक ही प्रकार का होता है, किंतु उसके अपूर्ण पूर्ण आदि की विपक्षा से 5 प्रकार के होते हैं―(1) सामायिक, (2) छेदोपस्थापना, (3) परिहारविशुद्धि । (4) सूक्ष्मसांपराय, (5) यथाख्यातचारित्र ।
प्रश्न 293―सामायिकचारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर―सर्व जीव चैतन्यसामान्यस्वरूप हैं, सब समान है―इस भावना के द्वारा समता परिणाम होने, स्वरूपानुभव के बल से शुभ अशुभ संकल्प विकल्प जाल से शून्य समाधिभाव के होने, निर्विकार निज चैतन्यस्वरूप के अवलंबन से रागद्वेष से शून्य होने, सुख-दुःख जीवनमरण लाभ अलाभ में मध्यस्थ होने व विकल्परहित परमनिवृत्तिरूप व्रत के पालने को सामायिक चारित्र कहते हैं ।
प्रश्न 294―छेदोपस्थापना चारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर―सर्वविकल्पपरित्यागरूप सामायिक में स्थित न रह सकने पर अहिंसा व्रत, सत्यव्रत, अचौर्यव्रत, ब्रह्मचर्यव्रत, अपरिग्रहव्रत―इन पाँच प्रकार के व्रतों के द्वारा पापों से निवृत्त होकर अपने आपको शुद्धात्मतत्त्व की ओर उन्मुख करने को छेदोपस्थापनाचारित्र कहते हैं ।
अथवा, उक्त पाँच प्रकार के महाव्रतों में कोई दोष लगने पर व्यवहार प्रायश्चित व निश्चय प्रायश्चित द्वारा शुद्ध होकर निज शुद्ध आत्मतत्त्व की ओर उन्मुख होने को छेदोपस्थापनाचारित्र कहते हैं ꠰
प्रश्न 295―परिहारविशुद्धिचारित्र किसे कहते है?
उत्तर―रागादि विकल्पों के विशेष पद्धति से परिहार के द्वारा आत्मा की ऐसी निर्मलता प्रकट होना जिससे एक ऋद्धिविशेष प्रकट होती हैं, जिसके कारण विहार करते हुये किसी जीव को रंच भी बाधा न हो, उसे परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं ।
प्रश्न 296―सूक्ष्म सांपरायचारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर―सूक्ष्म और स्वानुभवगम्य निज शुद्धात्मतत्त्व के संवेदने रूप जिस चारित्र से अवशिष्ट संज्वलनसूक्ष्मलोभ का भी उपवास या क्षय हो उसे सूक्ष्मसांपरायचारित्र कहते हैं ।
प्रश्न 297―यथाख्यातचारित्र किसे कहते हैं?
उत्तर―जैसा स्वभाव से सहज शुद्ध, कषायरहित आत्मा का स्वरूप है वैसे ख्यात याने प्रकट हो जाने को यथाख्यातचारित्र कहते हैं ।
प्रश्न 298―उक्त भावसंवरविशेषों के द्वारा क्या पापकर्म का ही संवर होता है या पुण्यकर्म का भी संवर होता है?
उत्तर―निश्चयरत्नत्रय के साधक व्यवहाररत्नत्रयरूप शुभोपयोग में हुये भावसंवरविशेष मुख्यतया पापकर्म के संवर के कारण हैं, और व्यवहाररत्नत्रय द्वारा साध्य निश्चयरत्नत्रयरूप शुद्धोपयोग में हुये भावसंवरविशेष पाप, पुण्य दोनों कर्मों के संवर करने वाले होते हैं । इस प्रकार संवरतत्त्व का वर्णन करके अब निर्जरातत्त्व का वर्णन करते हैं ।