वर्णीजी-प्रवचन:द्रव्य संग्रह - गाथा 36
From जैनकोष
जह कालेण तवेण य भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण ।
भावेण सडदि णेया तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा ।।36।।
अन्वय―जेण भावेण जहकालेण य तवेण भुत्तरसं कम्मपुग्गलं सडदि च तस्सडणं इति विज्जरा दुविहा णेया ।
अर्थ―जिस आत्मपरिणाम से समय पाकर या तपस्या के द्वारा भोगा गया है रस जिसका, ऐसा कर्मपुद᳭गल झड़ता है वह और कर्म पुद्गलों का झड़ना―इस प्रकार निर्जरा दो प्रकार की जानना चाहिये ।
प्रश्न 1―किस आत्मपरिणाम से कर्मपुद्गल की निर्जरा होती है?
उत्तर―निर्विकार चैतन्यचमत्कारमात्र निजस्वभाव के सम्वेदन से उत्पन्न सहज आनंदरस के अनुभव करने वाले परिणाम से कर्म पुद्गलों की निर्जरा होती है ।
प्रश्न 2―अपने समय पर फल देकर झड़ने वाले कर्मों की निर्जरा में भी क्या इस शुद्धात्मसंवेदनपरिणाम की आवश्यकता है?
उत्तर―आवश्यकता तो नहीं है, किंतु यथाकाल होने वाली निर्जरा भी यदि शुद्धात्मसंवेदन परिणाम के रहते हुये होती है तो वह संवरपूर्वक निर्जरा होने से मोक्षमार्ग वाली निर्जरा कहलाती है ।
प्रश्न 3―यदि अशुद्ध सम्वेदना के रहते हुये यथाकाल निर्जरा हो तो क्या वह निर्जरा नहीं है?
उत्तर―अशुद्धसंवेदन के होते हुये जो यथाकाल निर्जरा होती है वह अज्ञानियों के होती है । ऐसी निर्जरा को उदय शब्द से कहने की प्रधानता है । इसमें थोड़ा कर्मद्रव्य तो झड़ता है और बहुत अधिक कर्मद्रव्य बंध जाता है । यह मोक्षमार्ग संबंधी निर्जरा नहीं है और न इस निर्जरा का यह प्रकरण है ।
प्रश्न 4―अज्ञानी जीव के बिना काल के, पहिले भी तो निर्जरा हो जाती है, उसे क्या कहेंगे?
उत्तर―उदयकाल से पहिले इस तरह झड़ने को उदीरणा कहते हैं । यह उदीरणा भी अशुभ प्रकृतियों की होती है, क्योंकि अज्ञानी जीव के उदीरणा संक्लेशपरिणामवश होती है और अधिक वेदना उत्पन्न करती हुई होती है ।
प्रश्न 5―तप से कर्म समय से पहिले क्यों झड़ जाते हैं?
उत्तर―तप इच्छानिरोध को कहते हैं । जब इच्छा=स्नेह की चिकनाई यो गीलाई नहीं रहती तब कर्मपुंज बालू रेत की तरह स्वयं झड़ जाते हैं ।
प्रश्न 6―क्या कर्मपुंज अटपट झड़ते हैं क्या किसी व्यवस्थासहित झड़ते हैं?
उत्तर―कर्मद्रव्य श्रेणिनिर्जरा के क्रम से निर्जरा को प्राप्त होते हैं । इस श्रेणिनिर्जरा का वर्णन लब्धिसार क्षपणसार ग्रंथ से देखना । यहाँ विस्तार भय से नहीं लिख रहे हैं ।
प्रश्न 7―निर्जरा कितने प्रकार की है?
उत्तर―निर्जरा दो प्रकार की है―(1) भावनिर्जरा और (2) द्रव्यनिर्जरा ।
प्रश्न 8―भावनिर्जरा किसे कहते हैं?
उत्तर―जिस आत्मपरिणाम से कर्म झड़ते हैं उस आत्मपरिणाम को भावनिर्जरा कहते
प्रश्न 9―द्रव्यनिर्जरा किसे कहते हैं?
उत्तर―कर्मों के झड़ने को द्रव्यनिर्जरा कहते हैं ।
प्रश्न 10―संवरपूर्वक निर्जरा का मुख्य कारण क्या है?
उत्तर―संवरपूर्वक निर्जरा का मुख्य कारण तप है और जितने परिणाम संवर के कारण हैं वे सब निर्जरा के भी कारण हैं ।
प्रश्न 11―निर्जरा क्या केवल पापकर्मों की होती है या पाप, पुण्य दोनों कर्मों की?
उत्तर―सरागसम्यग्दृष्टि जीवों के प्राय: पापकर्मों की निर्जरा होती है और वीतराग सम्यग्दृष्टियों के पाप व पुण्य दोनों कर्मों की निर्जरा होती है ।
प्रश्न 12―सरागसम्यग्दृष्टियों के पाप के निर्जरा की तरह पुण्य की निर्जरा की तरह पुण्य निर्जरा न होने से क्या संसार की वृद्धि होगी?
उत्तर―संसार के मूल कारण पाप हैं । उनकी तो विशेषतया निर्जरा सम्यग्दृष्टि करता ही है, अत: संसार की वृद्धि नहीं होती तथा पापकर्म की निर्जरा होने से कर्मभार से लघु हुआ यह अंतरात्मा शीघ्र वीतराग सम्यग्दृष्टि हो जाता है और तब पाप पुण्य का नाश कर शीघ्र संसारच्छेद कर सकता है ।
इस प्रकार निर्जरातत्त्व का वर्णन करके अब मोक्षतत्त्व का वर्णन करते हैं―