वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 101
From जैनकोष
एगो य मरदि जीवो एगो य जीवदि सयं।
एगस्य जादि मरणं एगो सिज्झदि णिरयो।।101।।
जीव की असहायता- प्रत्याख्यान के प्रसंग में लगा हुआ ज्ञानी संत अपने आपके एकत्व का विचार कर रहा है, यह जीव स्वरूपत: सबसे न्यारा केवल अपने स्वभावमात्र है। इसी कारण प्रत्याख्यान भी किया जा सकता है। यह जीव चाहे संसार अवस्था में हो, चाहे मुक्त अवस्था में हो, सर्वत्र यह असहाय है। असहाय उसे कहते हैं, जिसको केवल अपना ही भरोसा रह गया, किसी भी अन्य का भरोसा नहीं रहा। प्रत्येक पदार्थ सब असहाय हैं अर्थात् किसी का सहारा किसी अन्य पदार्थ के बल पर नहीं है। प्रत्येक पदार्थ केवल अपने ही सत्त्व से अपने आपमें अपना भाव बनाता है। यह जीव अकेला ही मरता है और अकेला ही स्वयं जन्मता है, अकेले ही संसारभ्रमण करता है और अकेले ही कर्म-कलंक से मुक्त होकर सिद्ध होता है। सर्वत्र इसका अपने में ही पुरुषार्थ है।
मरणों में अकेलापन- मरण दो प्रकार के होते हैं- एक नित्यमरण और एक तद्भवमरण। नित्यमरण तो निरंतर होता रहता है। हम आपका निरंतर प्रतिसमय मरण हो रहा है। जो समय गुजर गया, वह फिर वापिस नहीं आता। तो जिस समय की आयु निकल गयी, उतनी आयु का मरण तो हो ही गया। इसे आवीचिमरण भी कहते हैं। तद्भवमरण नाम है यह वर्तमान भव ही मिट जाए अर्थात् यह जीव इस शरीर को छोड़कर अन्यत्र चला जाए। जिसे लोग मरण कहा करते हैं, वह तद्भवमरण है। दोनों ही प्रकार के मरणों में इसको किसी अन्य पदार्थ का सहाय नहीं है। यह नित्य मरण कर रहा है तो भी वह अपने परिणमन से अपने आपमें अकेले ही कर रहा है और जब भवमरण हो जाएगा तो देह को छोड़कर चला जाएगा तो वहां भी यह अकेले मरण करेगा।
नित्यमरण और तद्भवमरण में ज्ञानी अज्ञानी की वृत्ति- अज्ञानी लोगों को नित्यमरण में घबड़ाहट नहीं हो रही है। ये तो मौज से चैन मानते हुए सब प्रकार के भोगों की सामग्रियां जुटा रहे हैं। नित्यमरण में अज्ञानी जीव को भय नहीं होता, उसको तो तद्भवमरण में भय होता है कि हाय, यह धन, वैभव, कुटुंब, देह- सब कुछ छूट रहा है। जबकि ज्ञानी संतों की ऐसी वृत्ति है कि वे तद्भवमरण में तो बड़ा धैर्य रखते हैं, रंच भी चिंता नहीं करते। वे जानते है कि इस पर्याय को छोड़ा तो यह आत्मा तो सुरक्षित है, उसके सत्त्व का नाश तो नहीं होता। यहां के गए दूसरी जगह पहुंच गए। यहां की संपदा छूटती है तो क्या हुआ? छूटी हुई तो यह पहिले से ही थी। कुछ लोगों से परिचय हो गया था तो यह स्वप्नवत् बात थी, ये सब कुछ मायारूप है। मायारूप ही परिचय हुआ था। ऐसा विवेक रखकर यह ज्ञानी पुरुष तद्भवमरण का भय नहीं करता, किंतु नित्यमरण का भय बना है अर्थात् प्रतिसमय जो आयु गुजर रही है, उसका ज्ञानी को भय है। उसमें कैसा भय है कि यह अमूल्य जीवन गुजर रहा है? आत्मकल्याण की बात इसमें कर लेनी चाहिए, संसार के साधनों से दूर हो लेना चाहिए। दुर्लभ अवसर प्रमाद में न निकल जाए- ऐसा इस ज्ञानी पुरुष को संसार का भय बना हुआ है। तद्भवमरण में यह ज्ञानी धैर्य रखता है।
जीवनसरण का विवरण व्यवहारनय में- खैर ! कुछ भी वृत्ति किसी की हो। इस प्रकरण में यह कहा जा रहा है कि यह जीव अकेला ही मरता है, इसी प्रकार यह जीव अकेला ही जन्मता है। यह मर जाना व्यवहारनय से है, इसी प्रकार यह जीवन भी वयवहारनय से है। पदार्थ तो जितने भी सत् हैं, वे अनादि से सत् हैं, अनंतकाल तक सत् हैं। जन्म तो पर्यायों की उत्पत्ति को कहते हैं। आत्मा अनादि है तो पर्याय सादि है, आत्मा अनंत है तो यह पर्यायसांत न, आत्मा अमूर्तिक है तो यह पर्याय मूर्तिक है। आत्मा स्वजातीयमात्र परमार्थतत्त्व है तो पर्याय विजातीय विभाव व्यंजन पर्याय है। कितना इस आत्मा में और पर्याय में अंतर है? आत्मा और पर्याय दोनों का स्वरूप भिन्न-भिन्न है, फिर भी यह एक निमित्तनैमित्तिक भाव मात्र है कि जो इस प्रकार जन्म का संबंध बना चला आ रहा है।
विभावव्यंजन पर्यायें- विभावव्यंजन पर्याय चार प्रकार के होते हैं- नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। इस पर्याय में तीन का संसर्ग है- एक तो आत्मा, दूसरा कार्माणवर्गणा और तीसरा आहारवर्गणा। जितने शरीरी बने हैं, वे इन तीनों के पिंड हैं। यह पिंड सादि है, मूर्तिक है, विजातीय है, विभावरूप है और प्रदेशों की मुख्यता से प्रकट हुई व्यंजन पर्याय है। इस पर्याय की उत्पत्ति होती है तो उसमें व्यवहार नय की दृष्टि से यह निर्णय किया जाता है कि यह जीवित हो गया है। ऐसा जीवित होना, जन्म लेना, यह स्वयं हो रहा है, अकेले में हो रहा है। यद्यपि भेददृष्टि से निरखा जाए तो जन्म नाम किसी भी तत्त्व का नहीं होता। जीव पहिले था, चला आया और अब भी हैं। ये वर्गणाएं पहिले भी थीं, अब इस रूप में हो गयीं। कोई नई चीज उत्पन्न नहीं होती है।
जन्ममरण की प्रसिद्धि में जीव का योग- भैया ! विभावव्यन्जन पर्यायविषयक इन तीनों के संपर्क में भी मुख्य बात जीव पर आती है। यह जीव परिणाम करता है, उसके निमित्त से उस प्रकार का कर्मबंधन होता है और उसके उदय में इस प्रकार का संसर्ग हो जाता है। इन सबका मूल है जीव का परिणाम। इस जीव के परिणाम को जीव ने स्वयं ही तो किया। भले ही वह विभावपरिणमन है, पर स्वयं ही तो परिणमा, कोई दूसरा पदार्थ तो नहीं परिणमा। इस कारण यह जीव स्वयं अकेले जन्मता है, यह प्रसिद्ध हुआ। फिर अगले भव में भी इसी प्रकार जन्म लेता है और नवीनजन्मक्षण को मरण कहते हैं, सो जीव स्वयं अकेले मरता है, यह प्रसिद्ध हुआ। यों यह जीव स्वयं ही मरता है और स्वयं ही जीवित होता है। अकेले पैदा होता है और अकेले मरता है, फिर भी यह मोही जीव अपने उस अकेलेपन का ध्यान न करके कुछ दिनों के लिए जो पर से संबंध बनाता है, उस संबंध को ही शरणभूत मानता है। जिसको अपना माना, उसे अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है। इस प्रकार यह जीव रागवश अपनी विडंबनाएँ बढ़ाता है।
भविष्यनिर्माण का ध्यान- भैया ! भविष्य का भी तो ध्यान रखना है, अपने मनमाफिक मौज तो नहीं मानना है। कोई अकेले भी हो, 50-60 वर्ष का हो गया हो, लाखों का धन भी हो तो भी यह विचार बनाता है कि इस धन को ब्याज पर लगाएँ तो अच्छी जिंदगी कटेगी। अरे, जितना रखा है, उसी में जिंदगी आराम से कट जाएगी। वह भी पूरा खर्च नहीं हो सकता। ब्याज से गुजारा किया तो मूल का यह सब धन भी छोड़ जाएगा या सरकार छीन लेगी और किसी तरह से बरबाद हो जाएगा। लेकिन तृष्णा ऐसी है कि उसे यह भय रहता है कि भविष्य में कहीं मेरे जीवन में कष्ट न आ जाए। एक इस छोटे से जीवन में तो इतना बड़ा विचार किया जाता है कि ऐसा प्रोग्राम बनाएँ कि भविष्य में यह सारी जिंदगी भली प्रकार गुजरे, लेकिन इस जिंदगी से बड़ा जो अनंतकाल पड़ा हुआ है, उस अनंतकाल की अपनी व्यवस्था के लिए कुछ चिंतन नहीं होता।
बाह्यसमागम की प्राप्ति में भी जीव का मूल योग- इन सब कुछ समागमों को नाक, आंख, कान आदि नहीं कमाते। यह धन-संपदा समागम तो पूर्व समय में जो निर्मल परिणाम किया था, त्यागभाव किया था, उदारभाव किया था, दान दिया था, परसेवा की थी, भगवद्भक्ति की थी, उन परिणामों से ऐसे ही सुकृत का बंध हुआ था, जिसके उदय में आज कुछ प्राप्त हुआ है। मनुष्य-मनुष्य तो सब एकसमान हैं, एकसी शक्ल है, कुछ भी तो भिन्नता नहीं है; फिर भी कोई संपदा वाला हो गया, कोई निर्धन हो गया, यह जो अंतर देखा जाता है, इसका क्या कारण है? इसका कारण अपना पूर्वकृत परिणाम ही है। इस परद्रव्यरूप संपदा को प्राप्त करना है, कुछ समय बनाए रखना है, अत: पुण्य की रक्षा करनी चाहिए। उस पुण्य-संपदा की रक्षा करना अच्छा है, जिसके कारण संपदा मिली है। मूल के रक्षा का ध्यान नहीं है और जो मिली है संपदा, जड समागम उसकी रक्षा का निरंतर चिंतन है तो इससे किस प्रकार गुजारा चलेगा।
एकत्व के भान में परवस्तु का सविधि त्याग- यह जीव सर्वत्र अकेला है। इस पर जो कुछ सुख-दु:ख बीतता है, सबको अकेले ही भोगता है, दूसरा नहीं भोगता है। शरीर में छोटी सी फुंसी हो जाए तो उसकी वेदना तक को भी कोई जीव बांट नहीं सकता। किसी भी प्रकार की कल्पना जगे, उस कल्पना का कष्ट भी यह अकेले ही भोगता है। सर्वत्र यह अकेला ही है- ऐसा अपना एकत्वस्वरूप निरखने पर परवस्तु का त्याग सही मायने में हो सकता है।
एकत्वदर्शन- इस जड़-संपदा से मैं न्यारा हूं, इन चेतन परिग्रहों से भी न्यारा हूं, इस शरीर से भी न्यारा हूं, जो जीव के साथ कर्म बँधे हुए हैं, उन कर्मों से भी न्यारा हूं। वे कर्म जिनके परिणामों का निमित्त पाकर बँधा करते हैं, ऐसे शुभ-अशुभ परिणामों से भी न्यारा मैं आत्मतत्त्व हूं। आत्मा का जो ज्ञान बर्त रहा है, जानन चल रहा है; वह इस समय खंड-खंड ज्ञानरूप है, पूर्ण ज्ञानरूप नहीं है। मैं इन जाननों से भी न्यारा हूं और भविष्य में कभी पूर्णज्ञान भी हो जाए, सर्वज्ञता प्रकट हो जाए तो सारे विश्व का जाननहार ज्ञान होने पर भी वह ज्ञान किसी समय से है। यह सर्वज्ञत्व स्वभाव है, शुभ विकास है, फिर भी उस शुद्ध विकास का मूल जो ज्ञानस्वभाव है, वह मैं हूं। वह शुद्धविकास भी मैं नहीं हूं। मैं वह हूं, जो अनादि से अनंत तक रहता हो। ऐसा अपना एकत्व जिसके परिचय में आया है, वह ज्ञानी संत वास्तव में प्रत्याख्यान करता है, बाहरी चीजों का परित्याग करता है।
ज्ञान की प्रत्याख्यानरूपता- भैया ! परित्याग तो परमार्थ से भीतर ज्ञान में बसा हुआ है। किसी चीज को यहां से वहां उठाकर रख दो, ऐसे हटा देने से त्याग नहीं बन गया। त्याग तो वास्तव में भीतर में ऐसा प्रकाश जगे कि यह मैं मात्र इतना ही हूं, ज्ञानातिरिक्त मेरा कुछ नहीं है- ऐसा भीतर में प्रतिबोध हो, उसका नाम त्याग है और उस त्याग में ही इस जीव के विशुद्धि जगती है। ऐसा परमार्थ प्रत्याख्यानमय एकत्व स्वरूप निहारने पर निश्चयप्रत्याख्यान होता है। यह जीव सर्वत्र अकेला है। जन्मते अकेला, बड़ा होने पर अकेला, विकल्पकार्य किया तो वहां पर भी अकेला है। इसका काम तो सर्वत्र अपना गुणपरिणमन करते रहना है।
ममत्व का महान् संकट- भैया ! किसी परजीव में, स्त्री में, पुत्र में- किसी में भी यह मेरा है- ऐसा भाव होना सबसे बड़ा संकट है, मगर मोही जीव इसमें ही राजी हैं। किसी वृद्ध-पुरूष से पूछो कि तुम मजे में हो ना? कोई चिंता तो नहीं है? वह उत्तर देता है कि मुझे कोई चिंता नहीं है, बड़े मजे में हैं। रंच भी फिकर नहीं है, दो चार लड़के हैं, 5-7 नाती हैं, सब भरपूर है, आनंद है, कुछ भी हमें चिंता नहीं है। अरे, चिंताएँ तो इतनी रख रखी हैं, उन्हीं चिंतावों का तो बखान कर रहे हैं। इस ख्याल में यह कल्पना जग जाना कि यह मेरा पुत्र है। इस भाव के समान इस जीव का कोई बैरी नहीं है। यह मेरी स्त्री है, यह मेरी संपदा है- इस प्रकार के अंतर में श्रद्धा बसी हुई है, यही महान् संकट है।
मायामयी पूछ की असारता- इस दुनिया में धनिकों की पूछ होती है, यह ठीक है। अंजाने में लोग कहते भी तो हैं कि चोर-चोर मौसेरे भाई। जहां सभी चोर बैठे हों, वहां तो चोरी की कला में जो चतुर हो, बढ़िया सफाई से दूसरों का धन हड़प सके, उसका ही बड़प्पन उन चारों के बीच में माना जाएगा ना? कोई बुद्धू चोर चारी करने जाए और जरासी देर में पकड़ा जाए तो उसकी तो उन चोरों के बीच में निंदा होगी कि यह होशियार नहीं है, यह बेहोश रहता है। यों उसकी निंदा होगी। यों ही इस मायामयी दुनिया में जो धन की होड़ में आगे बढ़ गया, उसकी प्रशंसा हो गयी। जो सरल-भाव से रहे, संतोष-परिणाम से रहे, धर्म की ओर अपना चित्त लगाए, धर्म के लिए अपना जीवन समझे, इस मायामयी दुनिया में जो सत्य सत्य रहता है- ऐसे पुरुष की इन मोही जीवों में मान्यता नहीं है। ठीक है, लेकिन सारे जीवनभर भी तृष्णा कर ली जाए, पर शांति शांति के ही ढंग से आ सकेगी, उसका ढंग नहीं बदल सकता।
शांति की पद्धति में शांति-मिलन- कोई पुरुष मायाचार करके अपना कैसा ही दिखावा बना ले, पर सुख-दु:ख, शांति-अशांति की जो पद्धति है, उसे कोई नहीं बदल सकता। कोई बड़ा अफसर हो जाए, मिनिस्टर हो जाए, राजा बन जाए, कुछ भी हो जाए, लेकिन बाह्यपदार्थों के मिलने से बाह्य-सामग्री के अनुसार सुख-दु:ख, शांति-अशांति की व्यवस्था नहीं है। मेरी शांति का संबंध तो अपने ज्ञानप्रकाश से है। बड़े-बड़े महापुरूष, चक्रवर्ती, सम्राट अपने साम्राज्य में सुखी न रह सके और उसका परित्याग करके जब अपने आपको केवल एक अकेला ही निरखना शुरू किया और अकेले ही रह गए, सर्व का परित्याग किया, जहां बातें करने वाला कोई दूसरा नहीं है, वही बातें करने वाला है और उसी से ही बातें की जा रही हैं- ऐसा अकेलापन पाता है तो वहां उसे शांति मिलती है।
ध्येय का निर्णय- भैया !एक निश्चय तो रख लीजिए। एक बात तो पकड़ लीजिए। हम मनुष्य बने हैं तो धनी बनने के लिए नहीं बने हैं; बल्कि इस अनादि अनंत संसार से सदा के लिए छुट जाएँ, उसका उपाय बनाने के लिए मनुष्य बने हैं। धन रहता है तो रहे, जाता है तो जावे, समागम रहता है तो रहे, जाता है तो जावे। इतना बल, इतना धैर्य रखना चाहिए कि कदाचित् यह मैं शरीरमात्र अकेला भी रह जाऊँ, कोई भी साथ न निभाए, कोई भी साथ न रहे, तब भी क्या है? जो था, सो ही रह गया है। बिगड़ा क्या है? यहां मुझमें कौनसा घाटा आ गया है? ध्यान तो दीजिए। इन मायामयी लोगों में अपना दिखावा देने के लिए जो संकल्प लिया था, उस संकल्प का घात हुआ है और तो कुछ नुकसान नहीं हुआ है। वह संकल्प तो मेरा बैरी था। यदि मेरे बैरी का विनाश होता है तो लाभ में हम रहे या नुकसान में रहे? लाभ में ही तो रहे, लेकिन मोह में सत्य चिंतना नहीं चलती है।
अमरत्वदायक अमृत- यह जीव जन्मता भी अकेला है और मरता भी अकेला ही है। जब मरण होने को होता है तो स्वयमेव ही होता है। कोई मरने का प्रोग्राम नहीं बनता है। विवाह-काज की तो चिट्ठियां छप जाती हैं और संभव है कि जन्म के दिनों का अंदाज होने पर जन्म की भी चिट्ठियां छप जावें, पर मरण का प्रोग्राम इस जीव का नहीं बनता है, अचानक मरण हो जाता है। चाहे बड़े-बड़े बंधु जन भी रक्षा करने लगें तो भी मरण से कोई बचा नहीं सकता। यह जीव, पुरुष स्वयं महाबली हो, महापराक्रमशाली हो, बहुत धनी हो, जिसका कि मद बन रहा हो, अब मरण समय में वे सब बेकार हो जाते हैं। यह जीव सर्वत्र अकेला है। ऐसे अपने अकेलेपन को निरखकर ज्ञानदृष्टि करके अमृत का पान करते रहना चाहिए। मरण से रक्षा करने वाला, सदा अमर रखने वाला वह कौन तत्त्व है? सहज निज ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करना, यही अमृत है, अन्य कहीं कुछ अमृत नहीं है। जो अपने आपके ज्ञानस्वभावमात्र की दृष्टि करता है, वह अमर होता है। उसके लिए जीवन-मरण कुछ नहीं रहता है। ऐसे एकत्वस्वरूप का चिंतन करने वाला ज्ञानी प्रत्याख्यान कर रहा है।
ज्ञानी का एकत्वपरिचय- निश्चयप्रत्याख्यान के प्रकरण में यह उत्तम प्राकरणिक ज्ञानी संत अपने आपके एकत्वस्वरूप का परिचय कर रहा है। यह जीव अकेला ही मरता है, अकेला ही जन्मता है और अकेला ही संसार के परिणामों को करता हुआ संसारी बना रहता है और यह ही अकेला कर्मरज से रहित होकर शुद्ध होता है। अकेले ही यह जीव वह परिणाम करता है, जो तत्त्वज्ञान और वैराग्य से भरा हुआ है और उसी निज शुद्ध रुचि की प्रेरणा से बाह्य में किसी परमगुरु का शरण ढूंढ़ता है, परमगुरु की उपासना भी यह अकेला ही करता है और परमगुरु की सेवा का प्रमाद भी यह अकेला ही पाता है। विनय भाव पूर्वक अपने आपमें गुणों का प्रसाद पा जाना परमगुरु का प्रसाद है। प्रसाद निर्मलता को कहते है। अपने आपकी निर्मलता पा लेने का नाम है प्रसाद। जिसने अपने आत्मा का आश्रय परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त किया है- ऐसा यह योगी निश्चय शुक्लध्यान के बल से अपने अभेद आत्मा का ध्यान करता है और उस आत्मध्यान के प्रसाद से अंतरंग और बहिरंग समस्त मोहों से दूर होकर शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है।
संसारावस्था व मुक्तावस्था दोनों में एकत्ववर्तन- यह जीव जब तक संसारी है, तब तक अपने उपयोग को उपरक्त बनाकर स्वयं ही विभावरूप से परिणमता है। इस विभावपरिणमन में निमित्तभूत पदार्थ अवश्य ही अन्य होता है, किंतु निमित्तभूत पदार्थ के सन्निधान में भी यह जीव निमित्त की परिणति ग्रहण न करके केवल अपने आपके विपरिणमन से विभावरूप परिणमता है। यह अकेले ही संसारी होता है। जब यह बहिरात्मा जीव बहिरात्मत्व को त्यागकर अंतर्ज्ञान में प्रवेश करता है, उस समय भी यह जीव अकेले ही स्वयं अपने दुर्भावों को छोड़कर शुद्ध भावों का आश्रय लेने के लिए उत्तम-मार्ग को ग्रहण करता है और जब यह जीव परमयोग के बल से अपने अभिन्न सहज ज्ञानस्वरूप की उपासना में होता है, उत्कृष्ट धर्मध्यान और शुक्लध्यान में प्रवेश करता है, तब भी यह जीव अकेले ही अपने पुरुषार्थ को करता है। उसके प्रसाद से क्षीण मोहावस्था होती है। विशद एक शुद्ध ज्ञानप्रकाश का ही अनुभव जहां होता है- ऐसी परिस्थिति को भी यह आत्मा अकेले ही अपने में करता है। सर्वज्ञत्व प्रकट हो, अरहंतावस्था आए तो वह भी अपने आपमें अकेले में प्रकट होती है, मुक्त भी अकेले ही होता है। सर्वत्र यह जीव अपने अकेले में ही परिणमता है।
निष्पक्ष आराधना- जैनसिद्धांत में कौन नमस्कार करने के योग्य है? कौनसी आराधना किये जाने के योग्य है? इस संबंध में किसी भी प्रकार का पक्ष नहीं रखा गया है। किसी व्यक्ति से इस सिद्धांत का संबंध नहीं है कि अमुक नाम का व्यक्ति या अमुक संत हमारा प्रभु है, आराध्य है, नमस्कार के योग्य है- ऐसा कोई पक्ष नहीं रखा है। इस सिद्धांत ने तो केवल ब्रह्मस्वरूप और ब्रह्मस्वरूप का परमविकास यही नमस्कार के योग्य समझा गया है। इसी ओर दृष्टि होती है ज्ञानयोगी संत पुरुषों की। तीर्थंकरों को पूजना, मोक्षगामी पुरुषों को पूजना- यह व्यवहार से है। उसमें भी यह आशय पड़ा हुआ है कि जो शुद्ध ज्ञानानंद का पुंज है, वही हमारा आराध्य है। त्रिसलानंदन-महावीर हमारा आराध्य नहीं है, बल्कि उनकी आत्मा ने जो विकास किया, वह आराध्य है। यों तो कोई भी अपनी बहु का नाम त्रिसला रख दे और उससे जो लड़का हो, उसका नाम महावीर रख दे तो लो हो गया त्रिसलानंदन-महावीर। तो क्या ऐसे व्यक्ति की पूजा है? नहीं है। स्वरूप और स्वरूपविकास की पूजा है।
नमस्कारमंत्र में आद्य विकास पद- मूलमंत्र णमोकारमंत्र में किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं है। न आदिनाथ और न नेमिनाथ आदि का नाम है और न ही हनुमान, रामचंद्र इत्यादि का नाम है। जो स्वरूप की साधना करे, आत्मानुभव की सिद्धि अविचल बनाने का यत्न करे- ऐसा जो कोई भी आत्मा हो, वह साधु है। साधु का भेष नहीं होता है। उन्हें किसी प्रकार के वस्त्र की अथवा कुटुंब की आवश्यकता नहीं होती है और न उन्होंने किसी को अपनी आत्मसाधना के ध्येय में साधक समझा है, बल्कि बाधक माना है। इस कारण सर्वपरिग्रह छूट गया। वश चलता तो इस शरीर को भी छोड़कर वे आत्मसाधना करते, पर शरीर कैसे छोड़ा जाये? इसलिए उनके पास शरीरमात्र रह गया और चेतन-अचेतन समस्त परिग्रह दूर हो गये। अब कोई उस शरीरमात्र के रह जाने को भेष कहने लगे- निर्ग्रंथ भेष है, नग्न भेष है तो इसके लिये क्या करें? पर वह भेष है ही नहीं। भेष तो वह कहलाता है, जहां कुछ बनावटपना बनाया जाये। कुछ चीज रखी जायें, कुछ श्रृंगार किया जाये, इसका नाम भेष है। जहां त्याग ही त्याग है, फिर सकल संन्यास के उस प्रसंग में जो बात शेष रह गई है, वहां उसका भेष कहना केवल उपचारमात्र है। उनके भेष नहीं है, किंतु वे आत्मसाधना की सच्ची धुन में लगे हुए हैं- ऐसे पुरुषों को साधु परमेष्ठी कहते हैं। इसमें कहां पक्ष है? कोई पुरुष हो, जो केवल आत्मसाधना में जुट गया हो, उसे साधु कहते हैं और वह साधु हमारे लिए वंदनीय है।
साधुपरिचय के प्रकरण में ईर्ष्या व भाषासमिति- भैया ! साधु की मुख्य पहिचान विधिरूप और निषेधरूप में दो प्रकार की है- जो परिग्रह से तो रहित रहता है और ज्ञान-ध्यान में लीन रहता है। विधिरूप से साधुवों की यह पहिचान है कि जो ज्ञान, ध्यान, तपस्या में रत रहा करते हों और निषेधरूप से यह पहिचान है कि जो किसी भी प्रकार का आरंभ न करते हों, परिग्रह न रखते हों। अब सोच लीजिए कि ऐसे साधु हमें किस ढंग में मिलेंगे, क्या करते हुए मिलेंगे? आत्मसाधना में यह स्वाभाविक पद्धति है। जैसे कि 13 प्रकार के चारित्र कहा करते हैं तो आत्मसाधना के 5 धुन वाले साधु कहीं जायेंगे। जाने की जरूरत तो नहीं है, किंतु एक स्थान में रहने से आत्मसाधना में बाधा होती है, रागद्वेष के नये-नये प्रसंग बनते हैं। उनको मिटाना है, इसलिये आत्मसाधना के ही ख्याल से उन्हें जाना पड़ता है। यदि वे विहार करें तो क्या कूदते-फांदते जायेंगे या रात को चलेंगे या ऊँचा मुँह उठाकर चलेंगे या कषाय करके चलेंगे? ये बातें तो न हो सकेंगी। वे तो देख करके चलेंगे, दिन में चलेंगे, अच्छे परिणाम करके चलेंगे। इसी प्रकार वे किसी से बोलेंगे तो क्या लड़ाईभरी वाणी बोलेंगे, क्या दूसरों को फंसाने की बात कहेंगे? वे तो हितकारी और परिमित मधुर भाषण करेंगे। इसी का नाम भाषासमिति है।
साधुपरिचयप्रकरण में ऐषणा, आदाननिक्षेषण व प्रतिष्ठापनासमिति- साधु को क्षुधा की वेदना हो जाये तो उस वेदना में, आत्मसाधना में फर्क आ सकता है। इसलिए आत्मसाधना की दृष्टि से साधु आहार के लिये उठते हैं। आहार के लिये आहार नहीं करते हैं, बल्कि आत्मसाधना के लिये आहार करना पड़ता है। तब क्या वे इतनी कषाय कर सकते हैं कि वे खेती करें या कोई आय का जरिया बनायें या अपने हाथ से ही रसोई बनाना शुरू करें? वे क्षुधा की वेदना को शांत करने का यत्न तो करते हैं, मगर सुगम क्रिया से हो जाये तो हो जाये। उनके इतनी आसक्ति नहीं है कि वे एक बात को आरंभ करें। दूसरी बात यह है कि इतनी आसक्ति उन्हें नहीं है कि लोगों से मांगते फिरें। तब क्या होगा? आत्मसाधना करने वाले साधु आहार करने की वांछा से धर्मात्मा पुरुषों के मकानों की गलियों में निकल गये। कोई धर्मात्मा पुरुष भक्तिपूर्वक, सम्मान सहित निवेदन करे तो भोजन करने की उनकी इच्छा हो जायेगी। चले गये भोजनशाला में, पर आत्मसाधना के इच्छुक पुरुष यद्वा तद्वा अभक्ष्य भोजन नहीं करते। वे तो हिंसारहित शुद्ध भोजन करते हैं। पर शुद्ध भोजन बना है या नहीं, यह कैसे जानें वे? दातारों की क्रिया निरखकर, कैसे यह बोलता है, कैसे खड़ा होता है, कैसे बैठता है, क्या इसके परोसने की पद्धति है, किस प्रकार से सामान रखा हुआ है- इन बातों को ही देखकर साधु जन सब परख लेते हैं कि इनका भोजन निर्दोष शुद्ध है। इस प्रकार आहार लेने का नाम है एषणासमिति। आत्मसाधक पुरुष प्रयोजनवश किसी चीज को धरेगा, उठायेगा तो देख-भालकर धरेगा और उठायेगा- इसी का नाम है आदाननिक्षेपणसमिति। वे शौच करें, मूत्र करें, थूकें, नाक छिनके अथवा पसीना पोंछकर फैंके तो ऐसी जगह क्षेपण-क्रिया करते हैं कि जिस जगह किसी जीव को बाधा न पहुंचे। इसी को प्रतिष्ठापनासमिति कहते हैं।
साधुपरिचयप्रकरण में गुप्ति और महाव्रत- साधु के समितिप्रवृत्तियां, शुद्ध प्रवृत्तियां हो जाती हैं- ऐसा होना उनका स्वाभाविक है। इसके अतिरिक्त इस प्रयत्न में वे रहते हैं कि आत्मसिद्धि में बाधक चूँकि ये मन, वचन, काय के विस्तार हैं, इसलिए इनकी क्रियाएँ रोकनी चाहिएँ। वे मन, वचन, काय की क्रियावों को रोकते है, इसका ही नाम है गुप्ति। साधु का व्यवहार दयापूर्ण और सच्चाई से भरा हुआ होता है, किसी भी प्रकार की चोरी का नाम नहीं होता, पूर्ण ब्रह्मचर्य होता है। लेशमात्र भी परिग्रह न रखें- ऐसी वृत्ति हो जाती है, उसका नाम है महाव्रत। यों आत्मसाधना का इच्छुक पुरुष चरित्र में लगता है। जो इस प्रकार लगे, उसका ही नाम साधु है। साधु जनों में जो पालक, प्रमुख है, वह है आचार्य। जो शिक्षक ज्ञानी है, वह है उपाध्याय।
साधु आत्मा का परम और चरम विकास- नमस्कार के मूलमंत्र में किसी भी व्यक्ति के नाम की पूजा नहीं है, खूब परख लो। ये ही साधु पुरुष आत्मा की अभेद-साधना करके कर्मों से दूर होते हैं, सारे विश्व के ज्ञातादृष्टा होते हैं सहज अनंत आनंद में मग्न होते हैं, उन्हीं का नाम है अरहंत। अरहंत का अर्थ है पूज्य। व्यक्ति का भी नाम नहीं है। ये अरहंत शेष बचे हुए अघातिया कर्मों से जब दूर हो जाते हैं, शरीर से भी छुटकारा पा लेते हैं, सर्वथा सर्वविशुद्ध हो जाते हैं, वे सिद्धभगवान् कहलाते हैं। यह भी किसी व्यक्ति की पूजा नहीं है।
विकास में एकत्व- जो पुरुष सिद्ध हुआ है, वह केवल अपने में, अकेले में अभिन्नपुरुषार्थ करके सिद्ध हुआ है। यह जीव सर्वत्र अकेला है। स्वयं ही यह कुछ कर्म किया करता है और स्वयं ही उसका फल भोगा करता है। यह अकेला ही संसार में भ्रमण करता है और अकेला ही संसार से मुक्त हो जाता है। ऐसा अपने आपके एकत्वस्वरूप की भावना करने वाला यह ज्ञानी साधु निश्चयप्रत्याख्यान कर रहा है।
स्वशरणग्रहण- हे मुमुक्ष पुरुष ! अपने आपकी करुणा कर। तू ही स्वयं अकेला अच्छे–बुरे परिणाम करता है और उसके फल को तू अकेला भोगता है। जन्म–मरण सब तुझ पर अकेले ही विदित होंगे। तू यहां किसी को सहाय मत समझ। अपने आपके अंत:स्वरूप का शरण ग्रहण कर। इस जगत् में जो भी कुछ तुझे समागम मिल रहा है, तू ऐसा समझ कि अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिये, अपनी कषाय वेदना की शांति के लिये यह जमात, टोली इकट्ठी हुई है। ये कुटुंबी जन, ये मित्र जन सब मेरा हित करने के लिये नहीं मिले हैं। ये सब अपने कषाय की पूर्ति करने की ही धुन में हैं। यहां मेरा कोई हितकर नहीं हैं।
क्रिया में एकाकीपन- भैया ! कोई मेरे हित की बात करने का दम भरे तो भी वह वस्तुत: अपने आपके किसी स्वार्थ अथवा कषाय की पूर्ति के लिये दम भरता है। वस्तु के स्वरूप में ही यह बात नहीं है कि कोई जीव किसी दूसरे जीव का हित कर सकता हो। फिर वस्तुस्वरूप के विरुद्ध कौनसा हमारा हित करने में समर्थ हो सकता है? यह बात जैसी दूसरे की कही जा रही है, ऐसी ही तू भी अपनी समझ कि मैं भी किसी जीव को सुख नहीं दिया करता हूं, किंतु मुझे जिस कल्पना से कुछ सुहावना लगता है, समझ मिलती है, उसके अनुकूल अपनी क्रिया किया करता हूं। मैं किसी दूसरे को सुख नहीं दे सकता हूं। सर्व जीव अपने आपमें अकेले में चाहे विभावपरिणमन करें, चाहे स्वभावपरिणमन करें, अकेले ही किये जा रहे हैं।
एकत्वदर्शन की शिक्षा- भैया ! जैसे सब हैं, वैसा ही मैं हूं। मेरे लिये इस जगत् में कुछ नई बात नहीं है। जो वस्तुपरिणमन की पद्धति है, उसी पद्धति से ही सबका परिणमन चलता है। हमें कुछ अपने आप पर करुणा करनी चाहिये। अपने एकत्वस्वरूप को निहारकर अपने आपमें अपना प्रसाद पाना चाहिये। यह ही सच्चा प्रत्याख्यान है और इसमें ही तो परमसमाधि, परमभक्ति तथा परमकल्याण प्रकट होता है।