वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 100
From जैनकोष
आदा खु मज्झ णाणे आदा में दंसणे चरित्ते य।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे।।100।।
आत्मा का स्व के भाव में अवस्थान- आत्मा मेरा मेरे ज्ञान में है। आत्मा मेरा दर्शन और चारित्र में है। आत्मा मेरा प्रत्याख्यान स्वरूप में है और संवर तथा योग में मेरा आत्मा है। जो कुछ भी उपादेय तत्त्व है, हितकारी उपाय हैं उन सब वृत्तियों में वह मेरा आत्मा अनुभूत होता है। सर्व ही स्थितियों में आत्मा ही उपादेय है। हित के जितने भी कार्य हैं वे सब कार्य आत्मस्वरूप हैं। एक आत्मदृष्टि न रहे, आत्मसंबंध न रहे तो कोई भी कार्य धर्म के नहीं कहला सकते। यह आत्मतत्त्व जिसको धर्मवृत्तियों में निरखा जा रहा है वह अनादि अनंत है।
आत्मतत्त्व की अनादिनिधनता- यह जीव जो लौकिक पुरुषों के द्वारा विदित है, यह देहाकर संसारी त्रस स्थावर प्रकारों में वह आत्मतत्त्व नहीं है। जो एकेंद्रिय, दोइंद्रिय, तीनइंद्रिय, चारइंद्रिय, पंचइंद्रिय के रूप में विभक्त है जिससे लोग व्यवहार करते हैं, वचनालाप करते हैं, जिन पर उनका लक्ष्य रहता है। हम किसको सुना रहे हैं ऐसा लक्ष्यभूत जो कुछ लौकिक जनों को रहता है वह सब आत्मतत्त्व नहीं है। यह आत्मतत्त्व अनादि अनंत है और जिसको देखा जा रहा है वह सादि सांत है, कभी उत्पन्न हुआ है और कभी मर जायेगा, ऐसा ही तो लोगों को विदित है, वह मैं आत्मा नहीं हूं। मैं अनादि अनंत हूं।
अमूर्त अतींद्रियस्वभाव शुद्ध तत्त्व- लोगों को जो कुछ दिखता है वह सब मूर्तस्वरूप है; रूप, रस, गंध, स्पर्श का पिंड है। यह जड़ है। मैं जाननहार हूं। जो रूप आदिक सहित है वह जाननहार त्रिकाल नहीं हो सकता है। जानन एक अमूर्त भाव है, वह किसी विशिष्ट अमूर्त पदार्थ में ही हो सकता है। मैं चेतन हूं, अमूर्त हूं, जैसे कि इंद्रिय के जानन द्वारा जानन की वृत्ति चल रही है ऐसा इंद्रियरूप मैं नहीं हूं। मैं इंद्रियों से परे परमार्थस्वभावरूप हूं, अतींद्रिय स्वभावी मैं हूं। इसके परमार्थस्वभाव के अतिरिक्त समस्त परपदार्थों से विविक्त हूं, इसी कारण शुद्ध हूं।
शुद्धत्व का स्वरूप- भैया ! शुद्ध कहा करते हैं अकेले स्वरूप के रह जाने को। लोक में भी जिस चीज को शुद्ध करने की बात कही जाती है उसका भी अर्थ है कि इसको अपने स्वरूपमात्र रहने दो। जो दूसरी चीजों का संपर्क हो गया उसे हटा दो, इसी के मायने शुद्ध करना कहलाता है। किसी चौकी पर कूड़ा लग गया हो, कबूतर की बीट पड़ गयी हो तो लोग कहते हैं कि इसे शुद्ध कर दो। उसे शुद्ध कर दो का अर्थ है कि इस चौकी को खाली चौकी भर रहने दो। इसमें जिस परद्रव्य का संपर्क हुआ है उसे हटा दो। संपर्क हटाने के भाव को ही शुद्ध करना कहा जाता है। कोई पुरुष चांडाल से छू गया है तो उसे कहते हैं कि वह अशुद्ध हो गया है, इसे शुद्ध करो, तो शुद्ध करने का वहां तात्पर्य यह है कि चांडाल से जो छूवा हुआ है, वह न छूवा हुआ हो जाय। अब न छूवा हुआ हो जाय, इसका उपाय क्या है? तो लोगों ने नहाना उपाय समझा है। पानी से नहा लो तो वह छूवा हुआ हट जायेगा। वहां पर भी शुद्ध का अर्थ परसंबंध हटाने का है। यह आत्मतत्त्व पर के संबंध से हटा हुआ ही है इसलिए शुद्ध है।
सहजानंदस्वभाव- यह आत्मतत्त्व अपने सहजस्वरूपमात्र है, कोई भी पदार्थ है तो, अस्तित्त्व के कारण स्वयं का जो निजस्वरूप होता है उस स्वरूपमात्र है। वह स्वरूप सहज है, वह किसी दिन से उस पदार्थ में नहीं आया, अनादि से ही वह पदार्थ है और अनादि से ही तन्मयस्वरूप है, ऐसा यह मैं सहज स्वरूपमात्र हूं। जीवों को सुख से प्रयोजन होता है। अन्य कुछ भी अवस्था इस जीव में गुजरे, उससे प्रयोजन नहीं है। एक सुख अवस्था होना यह मात्र प्रयोजन है। यह आत्मा किसी भी अवस्था में, किसी भी पर्याय में पहुंचकर कितना भी लंबा विस्तार से हो जाय, उससे यह जीव अपनी हानि नहीं समझता है, किंतु दु:खरूप अवस्था हुई तो हानि समझता है, किंतु अंतस्तत्त्व में निरखो तो दु:ख का यहां स्वभाव ही नहीं। इस जीव में चाहे दु:ख आ पड़े, वह औपाधिक बात है किंतु स्वभाव आनंद का ही है। जो आत्मा के अस्तित्त्व के कारण आत्मा में स्वयं हो, उसे स्वभाव कहते हैं। आत्मा में स्वयं आनंद का स्वभाव है पड़ा हुआ है।
शाश्वत अमूर्त अतींद्रिय ज्ञानानंदस्वभाव- यह आनंद स्वभाव आत्मा में अनादि से है। जबसे आत्मा है तब से ही आनंदस्वभाव है। यह आनंदस्वभाव अनंत है। जब तक भी अस्तित्त्व है तब तक है। कब तक है? सदा अस्तित्त्व है, तो सदा ही इसका आनंदस्वभाव है। वह आनंदस्वभाव अमूर्त है, आनंदस्वभाव का परिणमन भी अमूर्त है। वह आनंद इंद्रिय द्वारा गम्य नहीं है। इंद्रिय द्वारा जो भी भोग भोगा उस भोग में आनंद की अपूर्ति है, तृष्णा है, विह्वलता है। इंद्रिय के द्वारा वह आनंदस्वभाव पकड़ा नहीं जा सकता। यह अतींद्रियस्वभावी है, ऐसा शुद्ध सहज आनंदस्वरूप आत्मा है जैसा अनादि अनंत अमूर्त अतींद्रियस्वभावी आनंदस्वभाव है ऐसा ही अनादि अनंत अमूर्त अतींद्रियस्वभावी ज्ञानस्वभाव है। समस्त स्वभाव, समस्त शक्तियां इस मुझ चैतन्य ब्रह्म में अनादि अनंत हैं, अमूर्त हैं और अतींद्रियस्वभावी हैं।
आत्मा का प्राप्तिस्थान- अनादि अनंत अमूर्त अतींद्रियस्वभावी यह आत्मा कैसे मिलेगा? किसी बाह्य पदार्थ में दृष्टि लगाया तो मिलेगा या बाहर किसी परमात्मा को देखो तो मिलेगा? किस जगह मेरा यह परमशरणभूत आत्मब्रह्म मिलेगा? वह सम्यग्ज्ञान में मिलता है। यह ज्ञान ब्रह्म है। अत: ज्ञानस्वरूप में ज्ञान द्वारा ही ज्ञान करने से मिलेगा। यह ज्ञानस्वरूप आत्मा यह आत्मा। शुद्ध ज्ञानचेतनापरिणत है। सहज शुद्ध ज्ञानस्वभावी, दर्शनस्वभावी है। वह सम्यग्ज्ञान में मिलेगा, दर्शन में मिलेगा और जब ज्ञान दर्शन में मिला तो वही सम्यग्दर्शन का विषय हो गया। भली प्रकार इस निज आत्मस्वभाव को देखें तो वहां यह आत्मतत्त्व मिलता है। यह परमपारिणामिक भावरूप है। जिसका परिणमन प्रयोजन है पर परिणमनस्वरूप नहीं है जिस पर परिणमन होता चला जाता है पर जो वही ध्रुव रहता है ऐसा ध्रुव चैतन्यस्वभावमात्र मैं आत्मा हूं।
सिद्धत्व की सिद्धि का स्वत: सिद्ध स्वयं साधन- योगीजन बड़ी भक्तिभरी दृष्टि से जिस विकास देखते है ऐसी सिद्ध अवस्था का कारणभूत यह मेरा ध्रुव चैतन्यस्वभाव है। मेरा विकास मैं करूँ तो होगा। मेरा विकास मेरा जो सहज शुद्धस्वभाव है उसका ही आलंबन करें तो होगा। बाहर में व्यवहार के जितने धार्मिक काम किए जाते हैं उन सबका प्रयोजन अपने चैतन्यस्वभाव का आलंबन करना है। यह वास्तविक धर्म जिसको नहीं मिला है वह बाहर ही बाहर किन्हीं भी बातों में अपनी रुचि माफिक धर्म की कल्पना करके विवाद किया करते हैं। अरे मैं स्वयं धर्मस्वरूप हूं। उसकी जानने की एक पद्धति है, वह पद्धति स्वाधीन है, सुगम है। ज्ञान ही स्वयं मैं और मैं ही अपने को न जान पाऊँ यह तो मोह का अँधेरा है। जैसे पानी में ही रहती हुई मछली प्यासी बनी रहती है तो यह अंधेरे जैसी बात हो जायेगी, ऐसे ही यह मैं ज्ञानमात्र हूं, ज्ञान से अतिरिक्त अन्य कुछ मैं हूं ही नहीं, फिर भी मैं अपने इस ज्ञानस्वरूप आत्मतत्त्व को न जान सकूँ यह तो बड़ा अंधेर है।
संकटहारी परम ब्रह्म- भैया ! इस जीव को निज की ही बात नहीं मिली सो यह जीव अत्यंत असार जड़ परिग्रहों के विसम्वाद में फंस गया। इस मोही जीव को केवल लौकिक वैभव ही देवता की तरह दिख रहा है। जो परमदेव है उसकी रक्षा नहीं करता है। बाह्य जड़ वैभवों में आसक्ति करके अपने आपके इस अमूल्य समय को बरबाद कर रहा है, अपने आपमें ही घाव कर रहा है। यह मैं आत्मतत्त्व सहज सम्यग्दर्शन के विषय में मिलूँगा, इसके मिलने की भी पद्धति है। स्वयं को चारित्र रूप बनाना होगा। हम संयत तो रहें नहीं, अपना उपयोग जड़ असार बाहरी पुद्गलों में फंसाये रहें तो वहां इस आत्मप्रभु का मिलन नहीं हो सकता। यह निजनाथ मिल जाय तो सारा दारिद्र्य, सारे संकट इसके समाप्त हो जायेंगे।
अंतस्तत्त्व की अंत:संयमसाध्यता- यह आत्मतत्त्व मिलेगा अपने अंत:संयम के बल से। ऐसी चारित्र रूप परिणति हो जिससे यह मैं ज्ञानस्वरूप अपने आत्मतत्त्व में अविचल स्थित रह सकूँ, ऐसे चारित्र की दृष्टि हो, यत्न हो तो उस यत्न में यह आत्मतत्त्व दर्शन दे सकता है। यह चारित्र साक्षात् निर्वाण की प्राप्ति का उपायभूत है उस ही में अविचलरूप से स्थित रह जाय ऐसी सहज परमचारित्र परिणति कुछ बने तो उसके द्वारा उस परिणति का स्रोतभूत जो सहज चारित्र स्वभाव है तन्मात्र तत्त्व में मेरा परमात्मा जो सन्निहित है वह दृष्ट हो जायेगा। उस अपने ही संयम के बल से, चारित्र के बल से, अपनी ही शांति के प्रसाद से इस परमपिता, परमशरण चैतन्य परम ब्रह्म को निरख सकता हूं। मेरा आत्मा अन्यत्र कहीं नहीं है। मेरे ही ज्ञान में, मेरे ही दर्शन में और मेरे ही चारित्र में यह आत्मा है। भैया ! जो जीव बाहरी पदार्थों में जो सुख ढूंढ़ते हैं वे सुख क्या ढूँढ़ते हैं, इतने भूले भटके हैं कि वे अपने आपके आत्मा को ही मानो बाहर ढूँढ़ते हैं, परंतु यों कहीं मिलता नहीं हैं, मिले कैसे? आत्मा को ही मानो बाहर ढूँढ़ते हैं, परंतु यों कहीं मिलता नहीं है। मिले कैसे? आत्मा का जो चिन्ह है, चैतन्य परिणति है उसकी ओर
दृष्टि हो तो आत्मा मिले।
परिचयचिह्न- एक बार एक बुढ़िया ने अपने बेटे को साग भाजी खरीदकर लाने कि लिए भेजा। उसका नाम रुलिया था। बच्चा बड़ा बेवकूफ सा भूला बिसरा सा रहा करता था बच्चा बोला, मां मैं बाजार न जाऊँगा, यदि मैं बाजार में गुम गया, खो गया तो फिर मेरा क्या हाल होगा? मां ने उसके हाथ की कलाई में एक डोरा बाँध दिया और कहा, देखो बैठा तू अपना यह डोरा देखते रहना, जिसमें यह डोरा बँधा है वही तू है, तू गुमेगा नहीं। वह चला गया बाजार। धागा कच्चा था। भीड़ अधिक थी, भीड़ की कशमकस से वह डोरा टूट गया तो वह बच्चा वहीं बाजार में रोने लगा, हाय मैं गुम गया, मैं गुम गया। रोता हुआ घर आया। और मां से कहता है कि मैंने तुमसे कहा था ना कि मैं गुम जाऊँगा तो क्या हाल होगा? देख अब मैं गुम गया था? मां बड़ी परेशान हुई। यही तो बच्चा है और कह रहा है कि मैं गुम गया हूं। मां ने कहा, बेटा तू कहा गुम गया, तू ही तो है। किंतु, वह देख रहा है तो डोरा हाथ में नहीं मिल रहा है, सो वह यह विश्वास बनाए है कि मैं गुम गया, और रोने लगा। तो मां बोली बैठा तू थक गया हैं, थोड़ा सो जा, तेरा मैं तुझे मिल जायेगा। वह सो गया तो उसकी मां ने कलाई में डोरा बाँध दिया। जब वह बच्चा जगा तो मां ने कहा- बेटा तेरा मैं मिल गया ना तुझे? बच्चे ने देखा तो कलाई में डोरा बँधा हुआ था। बोला- हां मां, मेरा मैं मुझे मिल गया। उसके मैं का चिह्न डोरा था, जिसको देखकर वह अपना विश्वास कर सकता था। यहां हमारा चिह्न ज्ञानस्वभाव है, चैतन्यस्वभाव है जिसको देखकर यह विश्वास होता है कि यह मैं हूं। यह चैतन्य चिह्न न बिसरे तो स्वयं व ज्ञान व आनंद सब आत्मगत है।
व्यामोह का संकट- व्यामोही पुरुष किन-किन तत्त्वों में ‘मैं’ का अनुभव कर रहे हैं? कैसा संकट है इन जीवों पर मोह का? रहना कुछ नहीं है पास, सारा का सारा छोड़कर जायेंगे, मगर गम नहीं खाते। पुण्योदय से कुछ मिला है तो उसमें अघाते नहीं हैं, तृष्णा कर-करके दु:खी हो रहे हैं। यह नहीं जानते कि सर्ववैभव प्रकट असार हैं, भिन्न है। यह तो पुण्य का ठाठ-बाट है। मैं तृष्णा करके, कषाय करके अपना पुण्य बिगाड़ लूँगा तो यह संपदा न रहेगी। यह पुण्य-धन रहेगा तो संपदा इससे कई गुणी सामने आएगी; पर संपदा को बिगाड़ने से पुण्य बिगड़ता है। संपदा की हठ करने से, अन्याय से, संपदा को सन्चित करने से पुण्य बिगड़ता है और उससे कुछ भली परिस्थिति नहीं आ सकती है। ज्ञानी को लोकसंपदा की भी परवाह नहीं हैं। वह तो सर्व से विविक्त सहज शुद्ध स्वरूप के दर्शन में ही तृप्त रहा करता है। जो लोग इस आत्मा को भूले हुए हैं, वे ही बाहर में सुख खोजा करते हैं।
कायरता में भोगसेवन- विषयाभिलाषी पुरुष इस सुख के पीछे दूसरे जीवों के आगे कायर बन जाते हैं। इंद्रिय के विषय वीरतापूर्वक कैसे मिल सकते हैं? कायर होकर ही ये विषयसुख मिला करते हैं। खैर, किसी तरह से भोगें, पर इतना तो समझना ही चाहिए कि बिना कायरता के ये विषय सुख नहीं भोगे जाते हैं। स्पर्शन इंद्रिय का विषय कायर बनकर ही भोगा जाता है। सभी इंद्रिय और मन के विषयों का सब कुछ भोग कायर बनकर ही किया जाता है। यह अज्ञानी परवस्तुवों से अपना हित मानकर कायर होता हुआ अपना जीवन व्यर्थ गँवा रहा है। उसे यह पता नहीं है कि मेरा तो मात्र मैं ही हूं और यह मैं विशुद्ध ज्ञानानंदस्वभाव से परिपूर्ण हूं, इसमें क्लेश का नाम ही नहीं है। इसका भी ऐसा उत्कृष्ट स्वभाव है कि सारे विश्व का यह जाननहार बन जाए।
निरीहता में परम समृद्धि- जब तक यह मैं बाहर के पदार्थों को जानने की उत्सुकता रखता हूं, तब तक मेरा ज्ञान रुद्ध है, हमारे ज्ञान का प्रस्तार नहीं हो सकता और जब मैं किसी पदार्थ को जानने की उत्सुकता ही न करूँ तो मेरा ज्ञान सारे विश्व का जाननहार बन जाएगा। जो चाहता है उसे मिलता नहीं है, जिसे मिलता है वह चाह नहीं रहा है। जो सारे विश्व का ज्ञाता बनकर प्रभुता की सोचता है, उसे वह ज्ञान साम्राज्य नहीं मिलता और जो सर्व इच्छावों से रहित हैं, उन्हें यह ज्ञान साम्राज्य मिलता है। अपना परमार्थ वास्तविक जो साम्राज्य है, उसको प्राप्त करने का यत्न करें, अपने इस ज्ञानस्वभाव की दृष्टि करें तो हमारा यह अनंत साम्राज्य मिल सकता है।
साधुवों की मार्गणा- जिनके पांचों इंद्रियों का प्रसार दूर हो गया है अर्थात् जो इंद्रियों के परम संयमी हैं, शरीरमात्र ही जिनका परिग्रह रह गया है अर्थात् समस्त परिग्रहों का जहां त्याग हो चुका है, जो समस्त परद्रव्यों से पराड्.मुख हैं, पदार्थों के यथार्थ स्वरूप को जानने के कारण सहज उदासीन अवस्था को प्राप्त हैं- ऐसे भेदविज्ञानी साधु विचार कर रहे है कि मेरा आत्मा प्रत्याख्यान भाव में है। आत्मा कहां खोजा जाए, किस स्थान में आत्मतत्त्व मिले? इसके विवरण में यह गाथा कही जा रही है।
अंतर्मार्गणा- यह आत्मा कहीं बाहर अथवा भीतर, किसी भी ओर कान लगाकर सुनने से विदित नहीं होता है और न आंखों द्वारा कहीं देखने से इसका कुछ भी आसार नजर आता है। किन्हीं भी इंद्रियों के द्वारा इस अंतस्तत्त्व का मिलन नहीं होता है। यह आत्मतत्त्व कहां मिलता है अर्थात् यह जीव किस प्रकार का यह परिणाम बनाए कि आत्मतत्त्व दृष्ट हो जाए? इसकी यहां चर्चा चल रही है। यह आत्मा जो कि स्वयं है, निकट भी क्या कहें, खुद ही तो वह है; यह आत्मा खुद में ही मिलेगा। बाहर कहां मिलेगा? इस आत्मा को किस रूप में देखें कि खुद को मिल जाए? इसे देखिए। यह आत्मा समस्त परभावों से विविक्त है।
सुखदु:खरूप विकारों का प्रत्याख्यान- यह जीव संसारावस्था में,सुखदु:खभावों में रमा करता है, सुख में रुचि करता है और दु:ख में डरता है- ये दो बातें इसके निरंतर चला करती हैं। इस संसारी प्राणी का और कुछ दूसरा ध्येय नहीं है। जितने भी प्रयत्न यह जीव करता है, वह इसी बात का करता है कि मुझे सुख मिले, दु:ख दूर हों। इसके लिए अथक् प्रयत्न करता है, किंतु उन्हीं प्रयत्नों का यह परिणाम निकलता है कि इसे आनंद नहीं मिलता है, बल्कि दु:ख ही आक्रमण कर जाता है। सुख-दु:ख दोनों की विकारभाव हैं। सुख इंद्रियों को सुहावना लगता है और दु:ख असुहावना लगता है। सुहावना लगे, तब भी विह्वलता है और असुहावना लगे तब भी विह्वलता है। सुख और दु:ख दोनों ही अवस्थाएँ आकुलतारूप हैं। इस आत्मतत्त्व के सुख और दु:ख का संन्यास है, यह आत्मा सुख- दु:ख के प्रत्याख्यानस्वरूप है। ये सुख-दु:ख आनंदगुण के विकार हैं, आत्मा की अशुद्ध अवस्था है। आत्मा के सत्त्व के ही कारण ये उत्पन्न होते हैं ऐसा नहीं है, बल्कि पुण्यकर्म और पापकर्मरूप परद्रव्यों की उपाधि का निमित्त पाकर ये सुख और दु:ख अवस्थाएँ उत्पन्न होती है।
पुण्य–पाप कर्मों का प्रत्याख्यान- इन सुख-दु:खों का निमित्तभूतपुण्य–पाप कर्म भीइस आत्मा में नहीं हैं, उनसे भी यह अत्यंत दूर है। पुण्य-पापभीएकक्षेत्रावगाही में हैं और सुख-दु:ख भी एकक्षेत्रावगाही हैं। पुण्य-पाप कर्मों का उपादान तो पौद्गलिक कार्माण स्कंध है और सुख-दु:ख का उपादान यह जीव है, फिर भी जीव का जो शुद्ध सहजस्वरूप है, चैतन्यमात्र स्वभाव है, तन्मात्र ही यह आत्मा है। वस्तुत: स्वभावमात्र आत्मस्वरूप को दृष्टि में लेकर देखें तो वे सुख-दु:ख भी आत्मा से अत्यंत दूर हैं अर्थात् इसके स्वभाव में सुख-दु:ख का प्रवेश नहीं है और उसी स्वभाव को लक्ष्य में लेकर अथवा समग्र आत्मद्रव्य को लक्ष्य में लेकर भी देखें तो ये पुण्यकर्म और पापकर्म एकक्षेत्रावगाह होकर भी अत्यंत दूर हैं। पुण्य-पाप कर्मों का तो इस जीव में अत्यंताभाव है- ऐसे पुण्य-पाप कर्मों का भी प्रत्याख्यान इस जीव में स्वत: बना हुआ है।
शुभाशुभ भावों का प्रत्याख्यान- पुण्य-पाप कर्म केहेतुभूत हैं शुभ भाव और अशुभ भाव। ये शुभ अशुभ भाव आत्मा के विकार भाव हैं, इनका उपादान आत्मा है, फिर भी यह भाव स्वभाव में नहीं है। इन शुभ-अशुभ विकार भावों की, चारित्रगुण व श्रद्धागुण की इन विशेष अवस्थावों की, विभावों की, औपाधिक तत्त्वों की स्वभाव में प्रतिष्ठा नहीं है, इस कारण ये शुभ-अशुभ भाव भी चैतन्यमात्र आत्मा से अत्यंत दूर हैं। यह मेरा ध्येयभूत आत्मतत्त्व इन छहों द्रव्यों से परे है, दूर है। स्वयं ही प्रत्याख्यान इसका स्वरूप है। ऐसे प्रत्याख्यानस्वरूप भाव में आत्मतत्त्व को देखना चाहिए, इसी विधि से यह आत्मतत्त्व दृष्ट होता है। यह मैं आत्मा प्रत्याख्यानभावमय हूं। प्रत्याख्यानस्वरूप यह ज्ञायकस्वभाव है। इस ज्ञायकस्वरूप में यह मैं आत्मतत्त्व हूं। इस प्रकार यह भेदविज्ञानी, निर्ग्रंथ, शुद्धोपयोग का उद्यमी साधु विचार कर रहा है कि यह मेरा आत्मा कहां मिलेगा? जो आनंद का पुंज है, जिसके मिलने से आनंद ही आनंद बरसता है, सर्वप्रकार के अंधकार दूर हो जाते हैं, संकटों का जहां लेशमात्र भी नाम नहीं है- ऐसा सच्चिदानंदस्वरूप यह आत्मतत्त्व प्रत्याख्यानमय इस शुद्ध भाव में मिलेगा।
शुभाशुभवनी में आत्मतत्त्व का अमिलन- यह जो आत्मतत्त्व मिल नहीं रहा है, इसका कारण है कि शुभ-अशुभ भावों के बनने में हम घूम रहे हैं, भटक रहे हैं और वहां इस आनंदनिधि को खोज रहे हैं। जब तक शुभ-अशुभ भावों का संवर न होगा, तब तक आत्मप्रभु से मिलना नहीं हो सकता। यह आत्मतत्त्व शुद्ध ज्ञायकस्वरूप है, रागद्वेष भाव से विविक्त है। यह आत्मतत्त्व कहां देखा जाएगा? यह शुभ-अशुभ भावों के संवर में ही मिलता है। ऐसा यह पापरूप जंगल को भस्म करने के लिए प्रचंड तेजोमय साधु विचार कर रहा है कि मेरा आत्मतत्त्व इस शुभ-अशुभरूप जंगल में न मिलेगा। यह तो शुभ-अशुभ भावों से अत्यंत विविक्त निज चैतन्यस्वरूप में गुप्त है, तिरोहित है, सुरक्षित है।
गुप्तअंतस्तत्त्व का गुप्त निरीक्षण- भैया ! गुप्त वस्तु का परिचय मेरे आंतरिक ज्ञान से ही हुआ करता है। यदि दुश्मनों को वह वस्तु विदित हो जाय तो गुप्त कहां रहा? गुप्त केवल अपने हितकारी जनों को ही विदित नहीं रहता है, बैरियों को विदित नहीं रहता। यह गुप्त अंतस्तत्त्व शुभ अशुभ भाव में विदित नहीं हो सकता। ये रागद्वेषभाव इस चैतन्यस्वरूप के बैरी हैं। इन बैरियों को यदि विदित हो जाय तो फिर यह गुप्त कैसे रहे? यह स्वरूप में गुप्त है बैरियों के अगम्य है, किंतु हितकारी भाव जो ज्ञान दर्शन है वह इस ज्ञान दर्शन की परिणतियों के द्वारा ही गम्य है। ऐसे गुप्तस्वरूप में गुप्त हुए साधुजन चिंतन कर रहे हैं। ये साधु पुरुष परम वैराग्यरूपी महल शिखर की तरह हैं अर्थात् परम वैराग्य से भरे हुए हैं अथवा शिखर में लगे हुए कलश की तरह, जैसे वह महल के ऊपर विराजमान है शोभित है। इसी प्रकार ये साधु पुरुष वैराग्यमय आत्मा में विराजमान हैं, शोभित हैं। ऐसा यह परम उदासीन अंतस्व का परमरुचिया ज्ञानी संत चिंतन कर रहा है कि मेरा आत्मा शुभ अशुभ भावों के संवर भाव में मिलेगा और वह इस शुद्ध चैतन्यस्वरूप का उपयोग करके शुभ अशुभ भावों का संवरण करता है। जब भी हो जाय संवरण अर्थात् यह उपयोग शुभ अशुभ उपयोग का ग्रहण न करके केवल निज सहज शुद्ध स्वभाव का ग्रहण करे तो यह आत्मतत्त्व दृष्ट होता है।
प्रत्याख्यानमय स्वभाव में विश्रामस्थान का निर्णय- भैया ! कोई किसी चीज का त्याग करे, किसी जगह से हटे तो कहां बैठना है? वह स्थान पहिले निर्णीत कर लेता है। जैसे ज्ञानी पुरुष को इन रागद्वेष आदिक समस्त विभावों से हटने का संकल्प होता है, तो वह किस जगह बैठे, कैसे अपने को रोके, कहां विश्राम करे, वह स्थान इस ज्ञानी ने पहिले ही तलाश लिया है, उस ही स्थान का यह विवरण चल रहा है। वह कौनसा स्थान है जहां यह आत्मा विश्रामपूर्वक रह सके? यह परमब्रह्म परमात्मा चूँकि सनातन शुद्धज्ञान स्वभाव वाला है इस कारण वह इस शुद्ध ज्ञानस्वभाव में ही ठहरता है। यह कैसे ज्ञानी के उपयोग में ठहरता है? जिस ज्ञानी के उपयोग में ठहरता है वह ज्ञानी हमारा परम आराध्य साधु परमेष्ठी है। ज्ञानी श्रावक ऐसे ब्रह्मलीन साधुवों की उपासना में रहा करता है। साधु अशुभोपयोग से पराड्.मुख है। देखिये हम जिसकी शरण में जायें वह स्वयं अशरण हो, स्वयं शुभोपयोग से दु:खी हो तो हमें शरण कहां मिल सकती है? इस अशुभोपयोग के सताये हुए बाह्य पदार्थों में आनंद और ज्ञान की तलाश करने के कारण विह्वल हुए प्राणी ऐसे ही विह्वल पुरुष के पास जायें, चाहें वह श्रावक अवस्था में हों, चाहे वह साधु भेष में हों, वहां पहुंचने पर शरण क्या मिल सकता है? शरण लेने वाला भी ज्ञानी चाहिए और जिसका शरण लिया जाय वह भी ज्ञानी चाहिए तब शरण का बनना संभव है।
परमागमगंधभ्रमर- यह साधु पुरुष अशुभोपयोग से विमुख शुभोपयोग में भी उदासीन सहज बना हुआ है। वह तो साक्षात् शुद्धोपयोग के अभिमुख है। जो शुद्धोपयोग के अभिमुख हैं वे उपयोग गुण में भी यथापद बढेंगे जिनसे उनका उपयोग स्वयं उनके लिए शरण हो जायेगा। ऐसा साक्षात् शुद्धोपयोग में जो अभिमुख हैं, जो परमागम तत्त्वज्ञान के मर्मरूप गंध को सेवने में भँवरे की तरह आसक्त हैं, जिनका विषय एक तत्त्वज्ञान है। जैसे मोही उन पंचेंद्रिय के विषयों में रत होकर प्रसन्न होना चाहते हैं। न प्रसन्न हो सकें लेकिन वे यत्न करते हैं। ऐसे ही ये साधुजनपरमागम तत्त्वज्ञान के मर्म को जानने में उग्र तत्त्वज्ञान विषय के सेवने में ही प्रसन्न रहा करते हैं। प्रसन्नता का अर्थ निर्मलता है। वह तालाब प्रसन्न है अर्थात् निर्मल है। शब्द की व्युत्पत्ति से प्रसन्नता का अर्थ निर्मलता है। चूँकि जो निर्मल रहा करता है वही आनंदमय रह सकता है। इस कारण लोक में आनंद का ही नाम प्रसन्नता रख लिया है। प्रसन्नता का अर्थ आनंद नहीं है। निर्मलता और आनंद का अधिक अविनाभावी संबंध है इस कारण प्रसन्नता का अर्थ लोक में आनंद प्रसिद्ध हो गया है। ये साधु परमेष्ठी तत्त्वज्ञान के मर्म के ग्रहण करने में ही सदा प्रसन्न रहा करते हैं।
गुप्त का अमंत्रों को अपरिचय- ज्ञानी संत जानते है कि मेरा स्वरूप मुझमें गुप्त है। गुप्त स्वरूप का पता मेरे हितकारी ज्ञान, दर्शन चैतन्यगुण को ही है, रागद्वेष शुभ अशुभ भाव पुण्य पाप सुख दु:ख विकार इनको इस गुप्त तत्त्व का परिचय नहीं है। ऐसा अत्यंत सुरक्षित यह मेरा परमात्मा, ज्ञायकस्वरूप आत्मा सनातन होने के कारण सदा मेरे स्वरूप में ही विराजमान् रहता है। यह अंतस्तत्त्व कहीं बाहर नहीं मिला करता है। सब लोग आनंद चाहते हैं और उस आनंद की प्राप्ति का विकट यत्न किया करते हैं, किंतु यह आनंद बाह्य यत्नों से प्राप्त नहीं हो सकता है। यह तो अंतर्दृष्टि से ही प्राप्त होगा।
मोह बैरी का आक्रमण- भैया ! स्वयं ही तो आनंदस्वरूप है यह, किंतु आनंदमग्न नहीं रह सकता है। यही तो मोह बैरी का आक्रमण है। यह जीव उस मोह बैरी को ही बसाये रहता है और वह मोह बैरी इसे निरंतर बैचेन बनाये रहता है। इसके लिए मोह के साधन ही सब कुछ बन रहे हैं। इसे अपने आपकी सुध नहीं है। आज पुण्योदय से जो कुछ भी प्राप्त किया है, शरीर पाया है तो इसे भी मोह के साधन में ही व्यय किया जाता है। धन पाया है तो इसे भी और मन पाया है तो इसे भी मोह के साधनों के लिए ही लगाया जाता है, बल्कि व्यामोही प्राणी यह निर्णय किए हुए हैं कि धन तो इसीलिए है कि मोह के साधनों को प्रसन्न किया जाय और उन्हें अच्छा बनाया जाय। यह मोह ही एकमात्र हमारा बैरी है। जो चीज मेरी नहीं है उसको समझना कि यही मेरे सब कुछ हैं, इस संकल्प से बढ़कर मेरा दुश्मन कोई दूसरा नहीं है। इस मोह बैरी की इतनी गहन चोट सहते चले जा रहे हैं और उस मोह बैरी को ही अपने आत्मक्षेत्र में खूब स्थान दिया जा रहा है। तुम रहो खूब जिंदगी भर, जहां चाहे विराजो तुम्हारा तो यह घर है, ऐसे इस मोह बैरी को पूरे तौर से आमंत्रण दिये हुए हैं। जब तक इस मोह बैरी से मुक्ति नहीं होती तब तक आत्मा का आनंदभाव का परिचय नहीं हो सकता है।
आत्मपद- मेरा आत्मा कहां विराज रहा है? इस विवरण में इस गाथा में यह बताया है कि मेरा आत्मा मेरे ज्ञानभाव में है। जो ज्ञानस्वरूप है वह ही तो आत्मा है। मेरा आत्मा दर्शन और चारित्रमय है। जो सहज चारित्र है, सहजदर्शन है, सम्यग्दर्शन का विषय है वह ही तो मैं आत्मा हूं। यह आत्मा समस्त परभावों के संन्यासस्वरूप निश्चय प्रत्याख्यान में सन्निहित है। यह प्रत्याख्यान स्वरूप स्वयं सहज ज्ञानभावमय है। यह मैं आत्मा शुभ अशुभ भावों के संवरभाव में मौजूद हूं। शुभ अशुभभावों का निरावरण स्वरूप जो निज सहज ज्ञानभाव है, उसमें यह आत्मा हूं। यह मैं आत्मा शुद्धोपयोगमय हूं। स्वत:सिद्ध सहज शुद्ध चैतन्यभावमय उपयोग हूं, तन्मात्र ही मैं हूं, ऐसा अपना श्रद्धान रखूँ और ऐसी ही प्रतीति और ज्ञप्ति करूँ तो वहां यह मेरा परमात्मा स्थित है, यह विशद ज्ञात होता है। जिस भाव में यह अपना आत्मा दर्शन दिया करता है वह भाव ही परमकल्याणरूप है। इस कारण इसका एक निर्णय रखना चाहिए कि सबसे हटकर इस शुद्ध ज्ञानस्वरूप में हमें लगना है।
परम ज्ञान- व्यवहार प्रत्याख्यान अर्थात् बाह्य परिग्रहों का त्याग, संयम की विरोधकों का त्याग, ये सब प्रत्याख्यान निश्चयप्रत्याख्यान के लिए होते हैं अर्थात् सर्व परभावों से विविक्त केवल ज्ञायकस्वरूप निज अंतस्तत्त्व के अनुभव के लिए होता है। इस प्रत्याख्यान का जो विषय है अर्थात् निश्चयप्रत्याख्यान में जिस परमार्थ तत्त्व की ओर दृष्टि रहती है वही परम एक ज्ञान है। लोक में अनेक पदार्थों का ज्ञान करते जाइए, उससे क्या सिद्धि है? एक इस निज ज्ञानस्वभाव का ज्ञान न कर पाया तो संतोष तो न पा सकोगे। अपने ज्ञानस्वरूप से बाह्य में अपने ज्ञान का उपयोग किया जाय तो वहां नियम से तृष्णा बढ़ती है, संतोष नहीं हो सकता है।
बाह्य में शांति का अभाव- अच्छा, कल्पना कर लो कि कहां-कहां अपनी लिप्सा हो, यत्न हो, ज्ञान हो? उन सबको कल्पना में ले लो। धन के विषय में लखपति हो, करोड़पति हो, अरबपति हो, बड़े महल हों, बड़ी सवारियां हों, फौज-फाड़ा भी हो, इतना बड़ा वैभव भी हो तो भी शांति का स्थान वहां हो, यह कैसे हो सकता है? क्योंकि जिस उपयोग का विषय परपदार्थ लग रहे हैं तो परपदार्थों का विषय करके जो ज्ञान बना है अर्थात् कल्पना बनी है, उस कल्पना का स्वरूप ही आकुलता है। शांति कैसे हो सकती है?
इज्जत में शांति का अभाव- इज्जत के बारे में कल्पना कर लो कि लोग मुझे नगर में जान जायें, जिले में जान जायें अथवा प्रांत में, राष्ट्र में, सारे विश्व में समझ जायें, पर जिसकी कल्पना इस तरह से विचारों से विश्वभर में अटकी हुई है, उस कल्पना से चैन कहां हो सकती है? जो जितनी बड़ी इज्जत बनाएगा, उसको अपनी इज्जत रखने के लिए नाना यत्न और कल्पनाएँ जारी रखनी पड़ेगी। इसी प्रकार जो जितना धन संचित करेगा, उसको उतना ही अधिक चिंतन उसकी रक्षा के लिए करना पड़ेगा। कदाचित् बहुत बड़ी आय होने के बाद धन नष्ट हो जाय तो उसकी पीड़ा वही जान सकता है। कोई बड़ी इज्जत पाने के बाद यदि इज्जत नष्ट हो जाती है तो उसकी पीड़ा को वही पुरुष भोगता है।
परम दर्शन- कहां बाहर में विश्राम का स्थान है, किसको उपयोग में बसाया जाए? केवल विश्राम का साधन यह शुद्ध सहज जाननवृत्ति है। जहां कल्पना-तरंगे नहीं उठती हैं, केवल शांत विशाल सागर की तरह गंभीर एक प्रतिभाससामान्य रहता है, वह स्थिति परम विश्राम की स्थिति है। मेरा ज्ञान ही परम ज्ञान है। बाहर में कहां किसको निरखने जायें? कौनसा पदार्थ ऐसा है, जो दर्शनीय हो, जिसको देखने से हमारी सब बाधाएँ दूर हों, सर्वसमृद्धियां हों? कोई ऐसा ज्ञान आंखों से दिखने वाला है क्या, जिसको देखकर हम कृतकृत्य हो जायें? कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं है। कदाचित् साक्षात् अरहंतदेव भी दर्शन को मिलें तो भी वहां जब तक इन चर्मचक्षुवों का ही उपयोग रहेगा, वहां निरखने में मर्मभूत उनका उत्कृष्ट वैभव, उनका चमत्कार, उनकी प्रभुता दिखने में नहीं आ सकती। वहां भी एक इस अंतर्दृष्टि के बल से ही उनकी प्रभुता का दर्शन होगा और जिसका दर्शन करके वे प्रभु बने हैं, उसका दर्शन तो एक अलौकिक दर्शन है और अलौकिक परमार्थ चैतन्यस्वरूप के दर्शन में ही वास्तविक प्रत्याख्यान होता हैं।
परम आचरण- कौनसा काम ऐसा करने के योग्य है, कौनसा आचरण है, जिस आचरण के कर लेने पर फिर कोई कमी न रह सके, कोई आगे के लिए करने का प्रोग्राम न रह सके? है कोई क्या ऐसा आचरण? पाप के आचरण तो दु:ख के हेतुभूत हैं, उनसे तो विश्राम कभी मिल ही नहीं सकता है; किंतु बाह्यव्रतों के आचरण में भी करने को एक न एक काम पड़ा है। वह करना ही क्या है, जिसके बाद कुछ करने को बाकी रहे? करना तो वही उत्तम है, जिसके बाद करना कुछ बाकी न रहे। इन बाह्य समस्त प्रवृत्तियों में व्रतों की प्रवृत्तियां भी करने को पड़ी हुई बनी रहती हैं। सोध-बीनकर चले, सोध-बीनकर खाये, बड़े अच्छे प्रेम के वचन बोले और और भी बाह्य संयम किया। इनके करने के बाद फिर कुछ करना रहता है या नहीं? अरे, रोज-रोज करने को रहता है। बाह्य चारित्र तो उस चारित्र के लिए है, जिस चारित्र में फिर कुछ करना बाकी नहीं रहता है। उस चारित्र की तो खबर न हो और बाह्य चारित्र में ही अपनी वृत्ति दृष्टि फंसाए रहे तो संतोष वहां भी नहीं मिल सकता है। वह अंत: चारित्र है एक परमज्ञानस्वभाव का दर्शन ज्ञातादृष्टा रहने की निश्चल स्थिति। इसी में प्रत्याख्यान की परिसमाप्ति होती है।
परम तप- यहां एक विशुद्ध ज्ञानस्वभावमात्र है। जो पुरुष इस ज्ञानस्वभाव को अपने उपयोग में बसाए रहता है, तपाये रहता है, वह पुरूष इस परमार्थ तप के प्रसाद से अलौकिक समृद्धि पा लेता है। हमारा ज्ञान हमारे ज्ञानस्वभाव के ज्ञान में ही बना रहे, इसे परम तप कहते हैं। इसमें अभ्यासी जनों को भी घबड़ाहट होती है। अज्ञानी जन तो उसके निकट पहुंचने का साहस नहीं कर पाते हैं। ऐसा परमार्थभूत परम तप क्या है? यह ज्ञानस्वभाव परमपारिणामिक भाव है, ज्ञायकस्वरूप कारणब्रह्म कारणसमयसार है, इसका अवलंबन होने पर निश्चय प्रत्याख्यान बनता है।
परम वंदनीय- लोक में सर्वश्रेष्ठ निरंतर वंदन करने के योग्य, नमस्कार करने के योग्य एक यह परम ब्रह्मस्वभाव है। योगीजन सब कुछ त्याग करके निर्जन वन में निरंतर प्रसन्न मुद्रा से युक्त अंत:कांति संपन्न रहते हैं। वे किसके अवलंबन से रहते हैं? वह परमार्थभूत ध्रुव निजस्वभाव के दर्शन का अवलंबन है।
महत्त्व का परमस्थान- सब जगह जावो और बड़ा देखो, अंत में बड़ा अपने आपमें मिलेगा। जैसे धर्म में बड़ा देखने चलो तो ऐसा लगेगा कि हमारे ये श्रावकजन, व्रतीजन, ब्रह्मचारीजन बड़े हैं और आगे दृष्टि की तो ये साधुजन जो ज्ञान, ध्यान, तपस्या में ही सदा लीन रहते हैं, ये हैं लोक में बड़े। उनके बाद दृष्टि गई तो दिखे अरहंत भगवान्, जो बड़े विश्वज्ञ हैं सर्वदर्शी हैं। और अधिक दृष्टि गई तो जिसके शरीर का भी अभाव है, समस्त कर्मों का भी अभाव है- ऐसे सिद्धप्रभु, लो ये हैं बड़े। पर सिद्धप्रभु का बड़प्पन सोचते-सोचते, परमार्थ पद्धति से उनके अंतरंग वैभव को निरखते-निरखते वह दृष्टि वहीं उनके स्वभाव में लीन हो जाती है, क्योंकि उनके स्वभाव में और स्वभाव विकास में अंतर नहीं मालूम पड़ता है, एक हो गया है और जब स्वभाव में इस भक्त की दृष्टि पहुंचती है तो वहां पररूपता नहीं रहती है कि मैं किस परदेव की भक्ति कर रहा हूं- ऐसी पर की ओर दृष्टि नहीं रहती है, किंतु वह दृष्टि अपने ही स्वभाव को परखती हुई विलास करती है। उस समय जो एक अलौकिक अनुपम आनंद प्रकट होता है, उसके अनुभव के बाद इसे पता पड़ता है कि मैं कहां बड़ा ढूंढने चला गया था। वह बड़ा तो वहां मुझमें ‘मैं’ ही मिला। मैं किसी को ढूंढ भी नहीं सकता, जान भी नहीं सकता। जो कुछ किया करता हूं, अपने प्रदेशों में रहकर अपने आपमें ही परिणति किया करता हूं।
परम मंगल- नमस्कार के योग्य सर्वप्रकार वंदनीय यह आत्मब्रह्म है, कारणसमयसार है, चैतन्यस्वभाव है, इसी स्वभाव के अवलंबन के प्रसाद से सर्वमंगल होता है। लौकिक जन बाहरी पदार्थों में मंगल समझते हैं। परिवार अच्छा हुआ, संतान हो गई, धन बढ़ गया, कुछ मोहियों में इज्जत कर ली तो उसको ही समझते हैं कि मेरे सब मंगल कार्य हो रहे हैं, पर वे सब निरंतर अमंगलपने से भरे हुए हैं। उनमें रहते हुए प्रथम तो जो अपना उपयोग अपने प्रभु से जुदा-जुदा हो रहा है, बाहर में आकर्षण हो रहा है- यह एक बड़ी विपदा है। मंगल कार्य बाहर नहीं है। वह मेरा मंगल कार्य मेरे स्वभाव में ही व्यक्त है।
परम उत्तम- लोक में उत्तम कौन है? खूब परख करके देख लीजिए। किसको हम अपना मानकर अपना सर्वस्व समर्पण करें? किससे हम प्रीति लगाए रहें, जो मेरे हित में कारण हो? कौन है ऐसा उत्तम? कोई बाहर में शरण न मिलेगा, कोई अपने लिए आदर्श न मिलेगा। सर्वोत्तम एक अपना आत्मा ही है। इस परमपारिणामिक भावरूप चैतन्यतत्त्व का आलंबन लेने वाला पुरुष किसी भी प्रकार के संकट में नहीं आ सकता। मेरी दृष्टि, मेरा उपयोग, मेरे स्वयं संकटरहित स्वभाव में पड़ा हुआ हो तो सर्वोत्तम मेरा ‘मैं’ ही हुआ। तब मैं अपने उत्तम को ढंग से देखूं। यों तो जिसको ‘मैं’ मानकर व्यामोही जन गर्व कर रहे हैं, वे तो अमंगल हैं, अकल्याणक हैं, उत्तम नहीं हैं। उत्तम मेरा यह ज्ञायकस्वरूप है, जिस स्वरूप के उपयोग में यह निश्चयप्रत्याख्यान सहज होता है। जिसके प्रसाद से मुक्तिसाम्राज्य प्राप्त होता है।
शरण की खोज- लोक में बाहर कहां शरण ढूंढने चलें, जो मेरे समस्त संकटों को दूर कर दे और शरण हो। बचपन में बच्चे ने अपनी मां को शरण माना। जब कभी कोई संकट आता तो झट मां की गोद में जाकर छिप जाता और मां की गोद से लिपटकर दोनों आंखें बंद करके शांति का अनुभव करता है। अब मुझे क्या संकट है? मैं अपनी शरण में आ गया हूं। लेकिन जब कुछ बड़ा होता है, तब उसे शरण खेल खिलौनों में दिखने लगती है। खेल खेलने में ही वह अपना मन लगाता है। अब उसे मां की गोद न चाहिए, पर खेल खेलते रहना चाहिए। वह खेल खिलौनों से ही अपना शरण मानने लगता है। जब और कुछ बड़ा हुआ तो उसके लिए पिता शरण बन गया। कुछ संकट आया तो झट पिता की शरण रहता है। और बड़ा हुआ, किशोर बन गया तो उसको अपनी शरण अपनी स्त्री दिखती है। कुछ झंझट हुआ, कुछ दिमाग की परेशानी हुई तो स्त्री से थोडी बातें कर ली, तो परेशानी मिट गई। सर्वप्रकार से उसने स्त्री को शरण माना है, लेकिन कुछ समय के बाद स्त्री में भी चित्त नहीं रमता है, वहां भी इसके उपयोग को शरण नहीं मिलता है। अब तो संतान के बच्चों के स्वप्न देखा करता है, अब मन को रमाने वाला तो वही पुत्र होगा। अंत में चलते जावो, अब धन से उसने अपनी शरण मानी, अब उसे किसी की परवाह नहीं है, जितनी कि धन की परवाह है। धन जुड़ना चाहिए, कैसे भी जुड़े। इसके बाद इज्जत की परवाह है। सब कुछ शरण ढूंढ चुकने के बाद भी इसको कहीं शांति नहीं मिलती है।
परम शरण- सबको अपना शरण मानो, लेकिन कदाचित् सौभाग्य हो, सुभवितव्य हो तो सत्संगति मिले, ज्ञानाभ्यास कस साधन मिले, कुछ ज्ञान आए, कुछ यथार्थ स्वरूप नजर में आए, कुछ वैराग्य जगे तो अब दृष्टि अपने निजस्वरूप की ओर आने लगेगी। सारी कुंजी तो मेरा स्वरूप है। चाहे हम जगत् में भटक लें और चाहे हम संकटों से बच लें, यह सब चाभी मेरे समीप ही है। संकट और आनंद समृद्धि दोनों ही अपनी कला पर निर्भर हैं। दूसरी कोई चाभी नहीं है, जो मेरे सुख-दु:ख को उत्पन्न करे। जो लोग ईश्वर को सब कुछ कर्ताधर्ता मानते हैं, उन्हें भी अपनी करनी, अपनी भरनी का सिद्धांत मानना पड़ता है। जब यह प्रश्न होता है कि कोई मनुष्य पाप करे तो करने दो ईश्वर तो दयालु स्वभाव का होना चाहिए, वह तो सबको सदा सुखी ही करता रहे। क्यों दु:ख देता है। उसके कर्मों के खिलाफ ईश्वर कुछ भी नहीं कर पाता है। अत: मूल निचोड़ यहां यही तो निकला कि जैसी जो अपनी कला खेलेगा, उसके अनुसार ही उसका भवितव्य आगे आएगा। आनंद चाहते हो तो अपना शरण जो अपने आपमें बसा हुआ है, उसकी दृष्टि करें, उसका आलंबन लें।
संकट मिटने का मूल उपाय- भैया ! हम इस निज शरण तत्त्व को भूलकर बाहरी बातों में पड़कर दु:खी रहा करते है। किसी भी जगह बैठे हों, जिस क्षण सर्वविविक्त ज्ञानप्रकाशमात्र निजतत्त्व की ओर दृष्टि जाएगी, उस ओर तो एक भी संकट नहीं रहने का है। यह जीव संकट मानता है। हमारे मन के अनुकूल परपदार्थ नहीं परिणमे, इसका इच्छानुकूल पर परिणमन न होने की कल्पना के सिवाय अन्य कोई संकट नहीं है। जगत् के ये सब पदार्थ हैं, अपनी सत्ता से हैं। यों परिणमते हैं तो यों परिणमे और प्रकार परिणमे तो और प्रकार परिणमे। उन सबका तो मुझमें अत्यंताभाव है ना, लेकिन यह अज्ञानी जीव मन के अनुकूल दूसरे पदार्थों का परिणमन देखना चाहता है। कष्ट एक भी दूसरा नहीं है। यह कष्ट ज्ञान से ही मिट सकता है और दूसरा उपाय नहीं है। धन वैभव बढ़ता जाएगा तो क्या कष्ट कम हो जाएगा? परपदार्थों में मन के अनुकूल परिणमन हो जाने से प्रतिष्ठा हो जाएगी तो क्या कष्ट मिट जाएगा? अरे! कष्ट तो मिटेगा पर में मन के अनुकूल परिणमन देखने की वांछा न रहने में। यह तब ही हो सकता है, जबकि वस्तुस्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो। इस प्रकार शरण ज्ञानियों का एक यह परम ब्रह्म स्वरूप है।
चित्स्वभाव के आश्रय में सर्व परमकृत्यों की पूर्ति- भैया ! यथार्थ तत्त्व का ज्ञान किये रहने के सिवाय आचरण ही क्या करना है? ज्ञान का ज्ञानरूप आचरण बना रहे, यही एक शुद्ध आचरण है। अन्य और कुछ आवश्यक काम और क्या पड़ा हुआ है, जिसके किए बिना गुजारा न हो, जिसके करने से ही आत्मा को शांति मिले? ऐसा आवश्यक काम एक निजस्वभाव का ज्ञान ही है, दूसरा नहीं है। प्रमादरहित होकर एक इस ज्ञानयोग की उपासना रहे, यही वास्तविक स्व का अध्याय है। स्वाध्याय करके अवश्य शांति होगी, पर बाहर दृष्टि गड़ाकर कुछ ज्ञान का विस्तार बनाया तो वह स्वाध्याय नहीं है, किंतु जिस किसी विषय को पढ़ना हो, उसमें इस ज्ञानमात्र स्व का अध्ययन चले, चिंतन चले, मनन चले, वह है स्वाध्याय। इस तरह यह कांति, तेज, धन, वैभव, समृद्धि सब कुछ मेरा आत्मस्वभाव ही है। इस आत्मस्वभाव की आराधना से निश्चयप्रत्याख्यान होता है।
आत्मवस्तु की दर्शनज्ञानचारित्रात्मकता- प्रत्याख्यानस्वरूप धर्म परमार्थभूत परमब्रह्म मेरे इस सहज दर्शनस्वभाव में है- एक तो दर्शन की वृत्ति और एक दर्शन का स्वभाव। दर्शनस्वभाव की स्वभाववृत्ति द्वारा दर्शनस्वभाव में यह परब्रह्म दृष्ट होता है। यह निज परमार्थब्रह्म शुद्ध ज्ञानस्वभाव में विदित होता है। एक तो ज्ञान की वृत्ति, जिसे जानना कहते हैं, हम जान रहे हैं। इसको जाना, उसको जाना, पर यह जानन परिणमन जिस शक्ति से उठ रहा है, उस शक्ति का नाम है परमब्रह्म। उस ज्ञानस्वभाव में यह मेरा आत्मा विदित होता है। यह मैं आत्मा उपयोग मात्र हूं, ज्ञानस्वरूप हूं। यह उपयोग मेरे ज्ञानस्वरूप में ही अविचलरूप से रह सके तो मैं परिचित हो सकता हूं। यदि यह उपयोग मेरे मूल को छोड़कर बाहरी पदार्थों की ओर अभिमुख होता है तो वहां मेरा आत्मा कैसे मुझे परिचित हो सकता है? यह आत्मतत्त्व सहज चारित्रस्वभाव में है। उपयोग का उपयोग में स्थिर होना- यह तो है वृत्ति और यह स्थिरता जिस शक्ति के कारण होती है, उस शक्ति को कहते हैं चारित्रस्वभाव। यह आत्मतत्त्व दर्शन ज्ञान चारित्रस्वभावात्मक है।
सर्वजीवों में त्रितयात्मकता का समर्थन- जैसे मोटेरूप से यह परिचय में आता है कि यह जीव कुछ न कुछ ज्ञान करेगा ही और किसी न किसी स्थान में रमेगा भी। इस जीव में तीन स्वभाव पड़े हैं- विश्वास करना, जानना और रमना। कोई भी प्राणी ऐसा बतावो, जो इन तीन रूप न हो। कीड़ा-मकोड़ा हो, मनुष्य-पशु हो, ज्ञानी-अज्ञानी हो- प्रत्येक जीव में ये तीन स्वभाव पड़े हुए हैं। ये सभी जीव कुछ न कुछ विश्वास किए हुए हैं। अज्ञानी जीव अपने आपके संबंध में अपना अलग विश्वास लिए हुए हैं। मैं अमुक चंद हूं, अमुक प्रसाद हूं, अमुक पोजीशन का हूं, कुटुंब वाला हूं आदिकरूप अपना विश्वास बनाए हुए है, किंतु ज्ञानी मैं केवल चैतन्यस्वरूप हूं, सर्वपदार्थों से विविक्त हूं- इस तरह का विश्वास बनाए हुए हैं। कीड़ा-मकोड़ा भी अपनी पर्यायरूप अपनी प्रतीति में अपना विश्वास बनाए हुए हैं और ये पेड़, जमीन, पानी आदि एकेंद्रिय जीव भी अपने आपमें विश्वास बनाए हुए हैं। कोई भी जीव ऐसा नहीं है, जो अपना कुछ विश्वास न रखता हो।
परमार्थविश्वास में निश्चयप्रत्याख्यान- जोपुरुषइस विश्वास कीशक्तिरूप जोश्रद्धागुण है, तदात्मक अपनी प्रतीति करता है, वह निश्चयप्रत्याख्यान का अधिकारी है। मुझे त्यागना है। क्या त्यागना है? इन सबका बाह्यपदार्थों को, ये समस्त रागद्वेषादिक विचार, वितर्क, विकल्प, कल्पनाएँ- इन सबको त्यागना है, किसे त्यागना है? इनका त्याग करके भी क्या कुछ त्याग करने वाला भी बचा रहता है? यह प्रतीति जिसके नहीं है, इन सब पदार्थों से विविक्त जो स्वभावमात्र मैं विशुद्ध तत्त्व हूं- ऐसा जिसके विश्वास नहीं है, वह क्या प्रत्याख्यान करेगा? उसकी वृत्ति तो केवल बाह्यक्रियारूप ही रहेगी।
त्याज्य के त्याग का विश्वास ज्ञान आचरण- प्रत्याख्यान का अर्थ है त्याग। हमें त्याग करना है। जिस चीज का त्याग करना है, उससे न्यारा विशुद्ध मूल में कौन है? यह प्रतीति में न हो तो त्याग करना बेकार है। किसका त्याग कर रहे हैं? बाह्यपदार्थ में तो अपने आप छूटे हुए हैं। कोई पदार्थ मेरे जीव में लिपटा हुआ नहीं है। मकान हो, वैभव हो, धन हो, परिजन हों- सब पृथक् है, स्वतंत्र हैं, उनका मुझमें कोई संबंध नहीं है। ये बाह्यपदार्थ तो स्वयं ही छूटे हुए हैं। इन बाह्यपदार्थों के संबंध में जो ममता-परिणाम किए है, वह इस समय मुझमें है। अत: जो मुझमें आया है और छोड़ा जा सकता है, उसे त्यागना चाहिए। यह विकल्प, यह ममत्व, यह अहंकार, यह मिथ्याप्रतीति- इनका त्याग किया जाना चाहिए। बाह्यपदार्थ तो छूटे हुए ही हैं। इस वैभव का त्याग तो तभी किया जा सकता है, जब यह श्रद्धा हो कि इस वैभव से रहित कुछ मेरा ध्रुवस्वरूप है। ऐसी श्रद्धा बिना त्याग नहीं हो सकता है। इस कारणप्रत्याख्यान स्वरूप ही मैं स्वयं हूं। यह मैं शुभ, अशुभ, सुख, दु:ख, पुण्य, पापों से भी अलग हूं, इनको तो कुबुद्धिवश अपनाया है, स्वभाव से बाहर अपनाया है, इस रूप मैं नहीं हूं- ऐसा विश्वास हो, वहां निश्चयप्रत्याख्यान होता है। ऐसा ज्ञान और ऐसा ही आचरण हो, वहां यह प्रत्याख्यान है।
आत्मा में परमात्ममिलन- यह परमात्मा कहां मिलेगा? किसी पर्वत पर, किसी मूर्ति में, किसी प्रतिमा में, किसी योगी में, कहीं देखो यह परमात्मा अन्यत्र कही नहीं मिल सकता। साक्षात् भी कोई परमात्मा सामने हो तो भी परमात्मा बाहर न मिलेगा। हम उस पद्धति से अपने आपकी पहिचान करें तो परमात्मस्वरूप का दर्शन होगा। इस ज्ञानी संत ने अपने आपके स्वरूप को चैतन्यमात्र निर्णीत किया है, इसका काम केवल चेतने का है- सामान्यरूप से चेते अथवा विशेषरूप से चेते। यह चैतन्यतत्त्व चेतने के सिवाय अन्य कुछ नहीं करता है। ऐसा जिस ज्ञानी संत ने अपने निर्णय में आत्मतत्त्व लिया है, वह समस्त सुकृत और दुष्कृत, पुण्य अथवा पाप, शुभ अथवा अशुभ सर्वद्रव्यों का भी परित्याग कर देता है।
शांति अशांति का स्थान- भैया ! जैसे मनुष्य को दु:ख में चैन नहीं है, ऐसे ही सुख में भी चैन नहीं है। जैसे विपत्ति में शांति नहीं है, ऐसे ही संपत्ति में भी शांति नहीं है और इसी प्रकार अच्छे परिणाम करने में भी शांति नहीं है और बुरे परिणाम करने में भी शांति नहीं है, किंतु अच्छे और बुरे- इन दोनों परिणामों से परे जो सर्वविशुद्ध है- ऐसा जो शुद्ध चित्प्रकाशमात्र परिणमन है, वहां ही दृष्टि जाए तो शांति प्राप्त होती है। अज्ञानीजन भिन्न पदार्थों में मोह-राग होने के कारण उनमें मेरा-मेरा करते हैं। यह मेरा मित्र है, यह मेरा भाई है, ये मेरे वस्त्र हैं- इन बाह्यपदार्थों में मेरा-मेरा कहता है, जिन पदार्थों से रंच भी संबंध नहीं है। इसी मिथ्याव्यामोह में यह दु:खी हो रहा है।
आत्मा और परमात्मा का संबंध- अब परमात्मा और आत्मा का संबंधनिरखिये। जो आत्मा परम हो गया है, उत्कृष्ट हो गया है, उसमें जो स्वभाव है, वह स्वभाव मुझमें है, यह है एक बात। दूसरी बात यह है कि जब मैं अपने स्वभाव का आलंबन लेकर अपने आपको सुदृढ़रूप से तक सकता हूं, तब मुझे परमात्मा का भी दर्शन होता है; इस कारण से परमात्मा का मुझसे कितना निकट संबंध है? तीसरी बात यह है कि वह परमात्मस्वभावरूप ही तो मैं हूं। इन सब कारणों से यह ज्ञानी संत उस परमात्मा में यों सम्वेदन करता है कि यह मेरा परमात्मा है। यह मेरा परमात्मा कहां मिलेगा? ये शुभ-अशुभ भाव रुक जायें- ऐसे निर्दोष संवरस्वरूप ज्ञानप्रकाश में मेरा परमात्मा मिलता है। यह है उस शुद्ध तत्त्व का उपयोग। मैं अपने आपको सहजसिद्ध, स्वत:सिद्ध, स्वरूपसिद्ध मात्र ज्ञानप्रकाश को ही निरखूँ और ऐसा ही आग्रह करके रह जाऊँ। मैं ज्ञानमात्र हूं। अत: इस शुद्धोपयोग में यह आत्मपदार्थ परमात्मतत्त्व मिलता है। इस प्रभु के मिलन का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। जब तक इस प्रभु का मिलन नहीं होता, तब तक यह जीव अज्ञानी है। मिल गया लाखों का धन तो क्या मिल गया? कुछ शांति प्राप्त होती है क्या? मोहियों के वचनों में इज्जत मिल गई तो क्या मिल गई? सब बेकार हैं, सब मायास्वरूप हैं, स्वप्न की तरह हैं। इस आत्मतत्त्व में रमने वाले जीव ही ज्ञानी हैं, शांति के पात्र हैं। एक आत्मतत्त्व के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं है कि कल्याण हो सके, शांति प्राप्त हो।
आत्मावबोध- यह मैं परम ब्रह्मस्वरूप परमात्मपदार्थ गुणपर्यायात्मक हूं अर्थात् मा और या दोनों से युक्त हूं। जो दिखता है, वह नहीं है। जो आंखों से नहीं दिखता है, वह यह है। ऐसा यह मैं चैतन्यपदार्थ जब मैं पर्यायदृष्टि से इसे देखता हूं तो यह कहीं निर्मल दिखता है, कहीं मलिन दिखता है, कहीं कुछ निर्मल, कुछ मलिन दिखता है। यह तो स्वयं न निर्मल है, न मलिन है; किंतु जैसा है, सो ही है अर्थात् शुद्ध स्वरूपमात्र है। यह प्रकाश अज्ञानियों को नहीं प्राप्त होता है। उन्हें ये सब समझ, ये सब वचन गहन वनजाल की तरह मालूम होते हैं। इसमें ज्ञानियों को तो केवल अपने मोह और राग के विषय की बातें ही समझ में आती हैं।
अज्ञानियों की गति और रुचि- एक बार एक बादशाह अपने राज्य में घूम रहा था। उसे शहर के अंत में एक गड़रिये की लड़की दिखाई दी। भैया ! गरीब लोग शरीर से प्राय: पुष्ट होते हैं और शरीर की पुष्टता में ही सुंदरता है। कोई अच्छे कपड़े पहिन ले तो उससे शरीर में कोई विशेषता नहीं आ जाती। क्योंकि वह गडरिये की लड़की सुंदर थी, अत: बादशाह को वह भा गई और फिर उसने उससे शादी कर ली। जब गड़रिये की लड़की राजमहल में आयी तो उसे एक बड़ा हाँल रहने के लिए दिया और दो-चार कमरे व्यवस्था के लिए दिये गए। जब वह हाँल में गई तो देखती है कि चारों तरफ खूब चित्रावली है- पुराने वीर पुरूषों की, कुछ भगवान की, कुछ राजा-महाराजाओं की। वह सबको एक ओर से देखती जा रही थी। उसे कोई भी चित्र नहीं सुहाया, कहीं भी उसका मन नहीं रमा। इस प्रकार देखते-देखते एक जगह चित्र में उसे बहुत सुंदर बकरी और भेड़ का चित्र दिखाई दिया। उसको वह दो-चार मिनट तक एकटक सी देखती रही और फिर देखते-देखते बीच में टक टक करने लगी, जैसा कि बकरियों के लिए किया जाता है। अत: जिस प्रकार गड़रिये की लड़की का मन वीर पुरुष के, भगवान् के चित्रों में न टिका और बकरी भेड़ों में दिल रमा, इसी प्रकार अज्ञानी जीव का मन ज्ञान और वैराग्य में नहीं रमता, उन्हें तो भोगों के साधन चाहियें, उनमें ही वे रमेंगे।
अज्ञानियों द्वारा क्लेश और भोग का स्वागत- भोगों के साधन की दशा पशुओं की देखो ना। जो बछड़े फिरा करते हैं, वे किसी सागभाजी में मुँह लगा देते हैं तो सागभाजी वाला उसे डंडों से मारता जाता है। वह बछड़ा पिटता भी जाता है और सागभाजी खाता जाता है। जिस प्रकार पशु भोग भोगते जाते हैं और मार खाते जाते हैं, इसी प्रकार मनुष्य इन्हीं समागमों के कारण दु:ख सहते जाते हैं और इन्हीं समागमों में मौज मानते जाते हैं। भले ही यह मनुष्य खाने में नहीं पीट रहा है, पर खाने का तो एक दृष्टांत बताया है। भोग तो पांचों इंद्रियों के हैं। पांचों इंद्रियों के भोग को भोगता जाता है और उनके कारण जितने कष्ट, आपत्तियां आती हैं, उन्हें सहता जाता है। यह कष्ट सहना तो स्वीकार करता है, पर भोगों को नहीं छोड़ सकता है।
दृष्टि कर्णधार- यहां एक इस अपने शुद्ध स्वरूप की चर्चा चल रही है। इस आत्मब्रह्म को हम जब मायाभरी दृष्टि से देखते हैं, पर्यायदृष्टि से देखते हैं तो शुभ-अशुभ सब प्रकार के मायारूपमय नजर आते हैं और जब मायादृष्टि छोड़कर परमार्थदृष्टि ग्रहण करते हैं तो वहां यह सब जाल कुछ भी प्रतीत नहीं होता है। क्या प्रतीत होता है? उसे शब्दों द्वारा नहीं कहा जा सकता। कितनी ही बातें तो लौकिक पुरुष भी कहते हैं, पर उसका विवरण नहीं कर सकते। कोई कहे कि मुझे भूख लगी है। हम उससे पूछे कि कहां भूख लगी? जरा दिखा दो। देखें तो सही कि वह भूख कैसी है? किस ढंग की है? कहां से आती है? किस जगह रहती है? क्या कोई उसे बता सकता है? कहते सब हैं कि मुझे भूख लगी है। जैसे कहते हैं कि मुझे चोट लगी है, देखते हैं तो कहते हैं कि हां भाई, यहां चोट लगी। पर भूख कहां लगी, इसको कोई बता नहीं सकता, वह तो अनुभव की जाती है। ये मामूली सी बातें जो हमारे रोज के व्यवहार में हैं, उनका ही जब हम विवरण नहीं कर सकते तो इस परम ब्रह्मस्वरूप, जो एक शुद्ध ज्ञानप्रकाश में नजर आ रहा है, अनुभव तो हो गया, पर उसे बताया नहीं जा सकता। उसमें कितनी शक्ति है, कितने गुण, कितने रत्न है? वे सब दिख गए; अनुभव में आ गए पर न गिने जा सकते हैं और न बताए जा सकते हैं।
ज्ञानियों का बलिष्ट हृदय- यह तत्त्व अज्ञानी पुरुष के लिए बड़ा कठिन, लेकिन वही तत्त्व सत् पुरुष के हृदय-कमल में विशद विराजमान् रहता है। ज्ञानी पुरुष को कहीं कष्ट नहीं है। जो समस्त परपदार्थों से पृथक् अमूर्त अतींद्रिय ज्ञानस्वभावमात्र अपने को लक्ष्य में लिए हुए है, मैं वह ही हूं। उसे कष्ट कहां? लोग कष्ट इसी में ही मानते हैं कि मकान गिर गया। अरे, मकान गिर गया तो गिर गया, मैं तो अपने ही स्वरूपमात्र हूं। इतना धन बरबाद हो गया, डाकू ने लूट लिया या किसी प्रकार का कोई बिगाड़ हो जाने से धन चला गया। अरे, धन चला गया तो चला गया। ज्ञानी पुरुष तो गृहस्थी में रहता हुआ भी अपने को केवल अमूर्त निजस्वरूपमात्र प्रतीति में रखता है और उसी का यह महान् बल है कि ऐसी भी कठिन विपदा आ जाय कि जिसे देखकर मोही जीव दु:खी होकर मरण ही कर जाय, पर ज्ञानी पुरुष में इतना बड़ा धैर्य होता है कि वह किसी भी परिस्थिति में अधीर नहीं बन सकता है। उसे यह बल किसने दिया? क्या किसी बाह्य समागम में ऐसी कला है कि जो ऐसा बल प्रदान कर दे? वह बल तो अपने ज्ञानस्वभाव की उपासना का है। शांति के लिए लोग बड़ी कोशिश करते हैं, कमायी करते हैं, पर शांति तो शांति के ही ढंग से मिलेगी। बाह्य पदार्थों की चिंता से, संचय से कभी शांति नहीं मिलेगी। यदि बाह्य पदार्थों में शांति होती तो बड़े-बड़े चक्रवर्ती पुरुष भी इस संपदा को क्यों त्यागते? उस संपदा के त्यागने के बाद ही उन्हें शांति मिल सकी।
परम प्रकाश- ये सत् पुरूष, जिन्हें सत् असत् पदार्थ का विवेक है, उनके हृदय-कमल में यह परम ब्रह्मतत्त्व निश्चयरूप से विराजमान् हो सकता है। जहां यह आत्मज्ञान दीपक रखा हुआ हो वहां फिर अंधकार नहीं रह सकता है। जहां दीपक है, वहां अँधेरा कहां से रहेगा? इसी प्रकार जहां आत्मज्ञान है, वहां फिर यह माया पर्याय संसारी हालत, ये संकट वहां ठहर नहीं सकते। यह आत्मज्ञान ही ऐसा महान् दीपक है कि किसी भी कठिन हवा में जले तो भी बुझ नहीं सकता है। कितनी भी कठिन परिस्थिति आये, पर यह विपरीत नहीं हो सकता है। यह आत्मज्ञान ऐसा अनोखा दीपक है कि जिसमें तेल-बाती की भी जरूरत नहीं है, जिसमें चेतन और अचेतन पदार्थों के संबंध की जरूरत नहीं है। ऐसा यह परम ब्रह्मस्वरूप आत्मतत्त्व शुद्धोपयोग में विराजे, जिसके प्रसाद से निश्चयप्रत्याख्यान मिलता है और जिसके प्रसाद से मुक्ति साम्राज्य प्राप्त होता है, सारे संकट दूर हो जाते हैं। भैया ! इस आत्मज्ञान के दीपक को लेकर हितमार्ग में गमन कीजिए। आपके पथ में क्लेशों के कंटक मिलेंगे, विडंबनाओं के गड्ढे मिलेंगे तो उन सबको पार करके स्वहित सदन में पहुंच ही जावोगे।