वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 138
From जैनकोष
सव्ववियप्पाभावे अप्पाणं जो हु जुंजदे साहू।
सो जोगभत्तिजुत्तो इदरस्स य कह हवे जोगो।।138।।
निर्विकल्प आत्मयोग में योगभक्ति- सर्वविकल्पों का अभाव होने पर जो आत्मा को आत्मा में लगाता है अर्थात् जो साधु अपने उपयोग को उपयोग के स्रोतभूत ज्ञानस्वभाव में जोड़ता है और विकल्पों से विविक्त होता है वही पुरुष परम योगभक्ति वाला है, अन्य अपने आत्मस्वरूप से विमुख होने वाले किसी भी प्राणी के यह योग किसी भी प्रकार नहीं हो सकता है। इस गाथा में भी निश्चय योगभक्ति का वर्णन किया है। विकल्पों का अभाव समाधिभाव द्वारा होता है, समाधिभाव आत्मा के सहजस्वरूप के दर्शन में होता है, आत्मा के सहजस्वरूप का दर्शन तब हो जब इसका परिचय हो। इसका परिचय भेदविज्ञान से ही हो सकता है। यह मैं आत्मा उपरागरहित हूं, ऐसा अंतरंग में शुद्धस्वभाव का परिचय मिले तो उसका दर्शन भी होगा।
शुद्धस्वभाव का परिचय- जैसे एक दर्पण है, जिसके सामने लाल-पीली चीज का प्रतिबिंब पड़ रहा है, वह लाल-पीली वस्तु भी जो सामने है वह बहुत लंबी चौड़ी है, इस कारण वह दर्पण भी सारा लाल-पीला हो रहा है, तिस पर भी समझदार आदमी जानते हैं कि लाल-पीला होना इस दर्पण का स्वभाव नहीं है, लाल-पीला हो तो रहा है, परंतु दर्पण में स्वभाव लाल-पीलेपन का नहीं है, दर्पण में स्वच्छता का स्वभाव है। यदि स्वच्छता का स्वभाव न हो तो यह लाल-पीला प्रतिबिंब भी न आ सकता था। भींत में स्वच्छता का स्वभाव नहीं है तो यह प्रतिबिंब भी नहीं पड़ता। प्रतिबिंब से रंगे हुए दर्पण में भी प्रतिबिंब को लक्ष्य से हटाकर दर्पण की स्वच्छता का जैसे आप भान कर लेते हैं ऐसे ही इस आत्मा में कर्मों के उदयवश जो रागद्वेष का रंग चढ़ रहा है, रागद्वेष प्रतिबिंबित हो रहे हैं। ज्ञानी पुरुष उस रंगीले प्रतिबिंब को लक्ष्य में न लेकर यह जान लेते हैं कि आत्मा का स्वभाव रागद्वेष भाव का नहीं है। इसका स्वभाव तो ज्ञानात्मक स्वच्छता का है, जिसमें ज्ञानात्मक स्वच्छता नहीं होती है उसमें रागद्वेष, सुख-दु:ख आदिक भी नहीं प्रकट हो सकते हैं। पुद्गल में, जड़ में ज्ञानात्मक स्वच्छता नहीं है तो इसमें कभी सुख-दु:ख हो सकते हैं क्या? ज्ञानी पुरुष रागादिक विकल्पों को लक्ष्य में न लेकर मूलभूत ज्ञानात्मक स्वच्छ भावों को परखते हैं।
मायाव्यासंग में योग का अभाव- वह आत्मतत्त्व निजस्वरूप सत्तामात्र है, चिद्विलासमय है, मात्र प्रतिभास है, वही मेरा स्वरूप है, यही मेरा सर्वस्व धन है, यही समृद्धि है, यही सब कुछ है। इसके अतिरिक्त जितने जो कुछ परिकर हैं वे सब मायारूप हैं। जो जीव इस स्वरूप को भूलकर इन मायामय स्कंधों में अपने को लगाते हैं अर्थात् रागद्वेष करते हैं उनके योग कहाँ संभव है? परमसमाधि द्वारा जब मोह रागद्वेषादिक नाना विकल्पों का अभाव हो जाता है तो उस समय यह भव्य जीव इस उपयोग को इस कारणसमयसार में जोड़ता है। वही वास्तव में निश्चययोगभक्ति है। यह निष्पक्षधर्म का स्वरूप कहा जा रहा है, जिसमें किसी प्रकार का हठ नहीं, पक्ष नहीं, केवल एक सत्य का आग्रह है।
गुलामी और उससे मुक्त होने के दो उपाय- किसी विपदा में उलझ जाने पर सुलझने के लिये सभ्यता के दो उपाय होते हैं- एक तो सत्याग्रह और दूसरा असहयोग। कभी कोई अपने पर अन्याय हो रहा हो और उस अन्याय का हम किसी प्रकार निराकरण करना चाहें तो इसके दो ही उपाय बढ़िया हैं- सत्याग्रह कराना और असहयोग करना। हम भावकर्म और द्रव्यकर्म के बंधन से जकड़े हुए हैं। भला बतलावो तो सही कि चिदानंदस्वभाववां होकर भी यह अमूर्त ज्ञानप्रकाश एक देह में जकड़ा है और सुख-दु:ख आदिक अनेक विकल्पों में बस रहा है, यह क्या कम विपत्ति है? लोग मन के अनुकूल-प्रतिकूल कुछ बात न होने पर वेदना अनुभव करते हैं क्या यह बड़ी विपदा है? अरे बड़ी विपदा तो यह है कि जो द्रव्यकर्म, भावकर्म और शरीर में बँधे पड़े हुए हैं, ऐसे इस बंधनबद्ध गुलाम जीव का क्या कर्तव्य है कि गुलामी से मुक्त होकर आजाद बन जाय, बस दो ही उपाय हैं- सत्याग्रह और असहयोग। जो सत्य तत्त्व है, जिस सत्य पर इसने अपना लक्ष्य बनाया है उस सत्य का तो जबरदस्त हमारा आग्रह हो। ये कर्म सरकार थोड़े-थोड़े विषयभोगों का प्रलोभन देकर हमें बहलाना चाहें तो हम न बहलेंगे, हमें तो सत्य का आग्रह है।
सत्याग्रह का संकल्प- जैसे जो चतुर सरकार होती है, वह किसी देश को गुलाम बनाये तो उन देशवासियों में जो कुछ भड़कने वाले लोग होते हैं उन्हें पद, अधिकार, सम्मान देकर उन्हें वश किये रहा करते हैं, उन्हें उभरने नहीं देते, ऐसे ही ये कर्म इस गुलाम जीव को जो कि कुछ थोड़ा बहुत समझदार बन जाता है उसे कुछ अधिक विषयभोगों के साधन देकर और कुछ संपदा का प्रलोभन देकर इसे बहला देते हैं और यह जीव बहल जाता है, सो संसार में रुलता रहता है, गुलामी से मुक्त होने की फिर यह आवाज नहीं उठाता है तो प्रथम तो हमें सत्य का आग्रह करना चाहिए। उस सत्य के आग्रह के मुकाबले में कोई कितना ही प्रलोभन दे उसमें न भूलना, किंतु एक सहज ज्ञानांदस्वरूप जो आत्मा का शुद्ध तत्त्व है उसका ही आग्रह करना, गुलामी से मुक्त होने का प्रथम उपाय तो यह है।
असहयोग का प्रभाज्ञ- गुलामी से मुक्ति का दूसरा उपाय है असहयोग। जो भार मुझ पर लादा जा रहा है विषयकषायों के परिणाम का, इनका सहयोग न करें, यही असहयोग है। जो जीव तत्काल भले लगने वाले और अपनी समझ के अनुसार यही एक मनोरम स्थान है, ऐसी एक सुंदरता सजावट बताने वाले इन विषयकषाय के परिणामों को जो अपना लेते हैं वे पुरुष गुलामी से मुक्त नहीं हो सकते। जैसे भारत-स्वातंत्र्य-आंदोलन में भारतीयों ने बहुत सुंदर सुसज्जित, महीन, विलायती कपड़ों का खरीदना बंद कर दिया था। किसी व्यवस्था में, किसी कार्य में सहयोग न देंगे, ऐसे ही यह ज्ञानी पुरुष इन विषयकषायों के परिणामों में सहयोग नहीं देता है, वह उन्हें बोझ समझता है, अन्याय जानता है। यह सब मुझ चैतन्यस्वरूप परमात्मतत्त्व पर अन्याय हो रहा है, इन्हें मैं क्यों अपनाऊँ? यह मेरा भाव नहीं है, मेरा स्वरूप नहीं है। इस प्रकार का इन परभावों के साथ असहयोग किया जाय तो इन दो उपायों से यह आत्मा असत्य परतंत्रता बंधन को त्यागकर अपने सत्य, स्वतंत्र और निर्ग्रंथ अवस्था को प्राप्त हो जायेगा।
भक्ति में दासोऽहं का प्रथम रूप- जो योगी पुरुष सर्व प्रकार से अंतर्मुख जो निज कारणसमयसारस्वरूप आत्मतत्त्व है उसको अपने उपयोग से जोड़ता है समाधि के द्वारा, उस ही के यह निश्चय योगभक्ति होती है, अन्य पुरुषों के नहीं। भक्ति की उत्कृष्ट रूपता वहाँ होती है जहाँ भेदभाव भी नहीं रहता है। जहाँ भेदभाव बन रहा है वहाँ परमभक्ति नहीं है, किंतु दासता है। भक्त पुरुष सर्वप्रथम अपने को दासोहं का अनुभव करते हैं। प्रभु मैं तेरा दास हूं और प्रभु का दास बनकर, सेवक बनकर प्रभुस्वरूप की उपासना करते हैं, वे प्रभुस्वरूप पर आसक्त, अनुरक्त, मोहित होते हैं, अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देते हैं।
भक्ति में सोऽहं व अहं के अनुभव का विकास- दासोहं की निश्छल लगन होने पर यह भक्त परमात्मा के और निकट पहुंच जाता है। जब और निकट पहुंचा तो दासोऽहं का दा खत्म हो जाता है, अब सोहं रह जाता है। जो वह है, सो मैं हूं। देखो सोहं की कैसी प्राकृतिकता है कि हम आप सभी मनुष्य श्वास-श्वास में सोहं बालते रहते हैं और अनुभव नहीं करते। जब श्वास भीतर को खींचते हैं तो सो की ध्वनि निकलती है और जब श्वास को बाहर निकालते हैं तो हं की ध्वनि निकलती है। जब यह सोहं-सोहं के भवपूर्वक ध्यान के प्रसाद से प्रभु के उस शुद्ध ज्ञानपुंज स्वरूप को निरखकर और अपने आपके इस ज्ञायकस्वरूप को देखकर जब और अति निकट पहुंचता है तब सो का भी अभाव हो जाता है, केवल अहं का अनुभव रहता है। परमभक्ति यहाँ पूर्ण हुई जहाँ केवल अहं का अनुभव रह गया। दासोऽहं में दासता थी, सोहं में अनुराग था, मित्रता थी और अहं में परमभक्ति हुई है। जो पुरुष अपने आपके स्वरूप में अभेदभासना पूर्वक अपने को जोड़ लेता है उस पुरुष के योगभक्ति होती है।
हितपूर्ण आंतरिक निर्णय और साहस- भैया ! एक बार तो अंतरंग से यह निर्णय कर लो कि नाक, थूक, मल-मूत्र, हाड़-मांस के लोथड़ वाले इन परिजनों से आत्मा का हित नहीं होता है। यह जड़ संपदा, धन, सोना, चाँदी जो प्रकट अचेतन हैं, इन अचेतन पदार्थों से आत्मा का हित नहीं होता है, यह बात पूरे पते की कही जा रही है। इसमें जब तक लुभाए रहेंगे तब तक संसार का रुलना ही बना रहेगा। एक बार आत्मतत्त्व की झलक तो लावो, जैसा यह आनंदरस से भरपूर आत्मा स्वयं है, वैसा यथार्थ अनुभव करें, वहाँ योगभक्ति बनेगी। यह योगभक्ति साधु-संतों के बन पाती है। कारण यह है कि उनके वैराग्य भाव के कारण सर्व प्रकार का संग छूटा हुआ है और केवल ज्ञान, ध्यान, तप का ही वातावरण है, उनका उपयोग इस परमशरण अंतस्तत्त्व में स्थिर रह सके, इसका अवकाश है और गृहस्थजनों के चूँकि सभी विडंबनाएँ साथ लगी हुई हैं इस कारण चित्त स्थिर नहीं रह सकता, लेकिन कितने भी समागम साथ जुटे हुए हों जिनको ज्ञानबल से इस विविक्त ज्ञानस्वरूप का पता लग गया है वह तो किसी भी क्षण बड़ी विपदा और विडंबना के वातावरण में भी जरा दृष्टि फेरी, भीतर को दृष्टि दी कि आकुलताओं को नष्ट कर डालता है।
आत्ममहत्त्व का स्वीकार- इस अभेद ज्ञानस्वरूप सहज अंतस्तत्त्व का परिचय होने पर ही समझिये कि हमने सर्वस्व पाया है। यह सब जो कुछ पाया है मेरे क्लेश का कारण है, इससे अपना बड़प्पन न कूतें, किंतु मैं अपने आपमें कितना रम सकता हूं उससे अपना बड़प्पन कूतें। जितने भी आनंद हैं वे सब आनंद इस आनंदमय आत्मा से निकल कर परिणत होकर अनुभव में आया करते हैं। क्या किसी बाह्य पदार्थ से आनंद निकल कर आत्मा में आता है? अरे जो आनंदस्वरूप है वही आनंदरूप परिणत हो सकता है। अपने ज्ञानानंदस्वरूप का विश्वास रखो और इसी समय ही यह स्वीकार कर लो कि मेरे को जगत में एक भी कष्ट नहीं है।
वस्तुत: क्लेश का अभाव- देखो भैया ! संसार में जिन पदार्थों का समागम हुआ है क्या इनका कभी वियोग न होगा? होगा वियोग। वियोग होने पर क्या उसकी सत्ता मिट जायेगी? न मिटेगी। जब तक संयोग था तब तक भी न्यारे-न्यारे वे समस्त समागम हैं। क्या कोई आत्मा में प्रवेश किए हुए है? यह आत्मा तो समागम के काल में भी केवल अपने स्वरूपमात्र था, है, रहेगा। कहाँ संकट है? कल्पना से मान लिया कि मेरा अमुक इष्ट मिट गया। अरे जगत में कोई पदार्थ मेरा इष्ट अनिष्ट भी है क्या? सभी जीव अपने-अपने आशय के अनुसार अपने में आनंद पाने का प्रयत्न कर रहे हैं, हमारा कोई विरोध नहीं कर रहा है। जगत में जितने भी पदार्थ हैं वे सब अपनी बुद्धि के अनुसार अपने आपको सुखी होने का काम कर रहे हैं। मन, वचन, काय की चेष्टा अपने सुख के अर्थ कर रहे हैं। जैसे वे अपने सुख के अर्थ अपने भाव बना रहे हैं, मैं भी अपने सुख के अर्थ अपने भाव बना रहा हूं। अज्ञानवश किसी भी परतत्त्व को अपने सुख का बाधक मानकर किसी को विरोधी मान लूँ तो अब अनिष्ट समागम का क्लेश होने लगा, यह क्यों मेरे सामने है, यह क्यों नहीं हट जाता? अरे ! जगत में अन्य कोई पदार्थ अनिष्ट है ही नहीं, फिर क्लेश क्या है? हम रागद्वेषवश इष्ट-अनिष्ट बुद्धि करते हैं तो क्लेश होता है अन्यथा वहाँ क्लेश का कोई काम ही नहीं है।
आत्मा के यथार्थ अनुभव का कर्तव्य- एक बार तो ऐसा अनुभव कर लो कि मैं ज्ञानघन, आनंदमय, क्लेशों से रहित, पवित्र, स्वच्छ ज्ञानपुंज हूं, मेरे में किसी परतत्त्व का लगाव नहीं है, ऐसा किसी क्षण अनुभव कर लो। यह अनुभव ही संसार के समस्त संकटों को दूर कर सकेगा, अन्य सब ख्याल केवल विडंबना हैं और विपत्ति हैं, ये योगीश्वर संत पुरुष ऐसी उत्कृष्ट सर्वश्रेष्ठ योग भक्ति करते हैं। जिसके द्वारा इन योगियों के आत्मा की उपलब्धि होती है, यही मुक्ति है। मेरी सही-सही आत्मा नजर आ जाय और जैसा यथार्थ सहज है तैसा ही रह जाय, इस ही का नाम मोक्ष है। अब ऐसा बनने के प्रयत्न में क्या-क्या करना होता है, उस ही को रत्नत्रय कहते हैं। ऐसी परमभक्ति की हम आपकी उपासना हो और विश्वास रख लो कि मेरा जगत में परमाणुमात्र भी कुछ नहीं है, अपने आपको प्राप्त कर लो तो इससे आत्मा सर्वसंकटों से मुक्त हो जायेगा। यही कर्तव्य हम आप सबके मनुष्य-जन्म की सफलता का कारण है।