वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 140
From जैनकोष
उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं।
णिव्बुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं।।140।।
भक्ति का उपसंहार- भक्ति अधिकार का उपसंहार करने वाली सह अंतिम गाथा है। इसमें भक्ति का उपसंहार अथवा उपन्यास किया गया है। उपसंहार शब्द का अर्थ है- उप मायने समीप, सं मायने भली प्रकार, हार मायने ग्रहण करे, अपने आप में भक्ति को ग्रहण करना, सो भक्ति का उपसंहार है और उपन्यास का भी अर्थ वही है, उप मायने अपने समीप में, न्यास मायने रख लेना। यहाँ भक्ति के उपन्यास में यह कहा जा रहा है कि जिनेंद्र, ऋषभादिक जो निर्वाण के सुख को प्राप्त हुए हैं, वे इस परमयोगभक्ति को करके हुए हैं। इस कारण हे मुमुक्षु पुरुषों ! तुम सब भी इस उत्कृष्ट योगभक्ति को धारण करो।
कालविभाग- आजकल जो काल चल रहा है यह पंचमकाल है, इससे पहिले चतुर्थ काल था, जिस समय में मुक्ति का मार्ग खुला हुआ था। चतुर्थ काल से थोड़े ही पहिले भी मुक्ति होने लगी थी और चतुर्थ काल के उत्पन्न हुए चतुर्थकाल के कुछ बाद भी मुक्त हुए थे, पर वह समय चतुर्थकाल से ही संबंधित है। उससे पहिले जघन्य भोगभूमि भी, जहां भोगसाधनों के आराम थे और भोगसाधनों के प्रेम की वजह से मोक्ष का मार्ग नहीं चल रहा था। उससे पहिले मध्यम भूमि थी, वहां भोगों के साधन इससे भी ज्यादा बढ़कर थे और उससे पहिले प्रथम काल था, वहां भोगों के साधन और अधिक थे। कुछ लोग काल को 4 हिस्सों में बांटते हैं- सतयुग, द्वापर, त्रेता और कलियुग। इसका अर्थ भी इन्हीं 6 कालों से संबंध रखता है। वर्तमान, यह पंचम काल है, इसके आगे छठा काल आयेगा। इसमें प्रथम काल को सतयुग माना, दूसरे काल का नाम द्वापर, तीसरे काल का नाम त्रेता और चतुर्थ काल का नाम कलयुग हो गया, क्योंकि कृषि, मसि आदिक कलावों का चतुर्थ काल में प्रादुर्भाव हुआ था और यह सिलसिला पंचमकाल में भी है, कुछ छठे काल तक भी चलेगा।
आदि देव- ऋषभ आदिक जिनेंद्र इस चतुर्थ काल से संबंधित थे, जिनमें ऋषभदेव तृतीय काल के अंत में उत्पन्न हुए हैं और चतुर्थ काल प्रारंभ होने में जब कुछ भी समय शेष रह गया था, तब उनका निर्वाण हुआ था। ऋषभदेव के समय से जनता में आजीविका के साधनों का और नाना प्रकार की आजीविका के साधनों का प्रसार हुआ था। मोक्ष का मार्ग भी उनसे ही प्रकट हुआ है। इस कारण ये ऋषभदेव सृष्टिकर्ता के रूप में माने जाते हैं। वस्तु के सत्त्व की सृष्टि नहीं की, किंतु एक नया-सा जमाना बनाया। भोगयुक्त समय से निकलकर एक धर्म ज्ञानप्रकाश का साधन बनाया तो इतनी बड़ी जबरदस्त जब पलटन होती है तो लोगों की दृष्टि में एक नई सृष्टि बनी है, यह ख्याल आना प्राकृतिक है।
कैलाशपति आदिम महाशिव- ऋषभदेव चूँकि कैलाशपर्वत से मोक्ष पधारे हैं, इसलिए उन्हें कोई कैलाशपति कहते हैं, ये ऋषभदेव इस कलियुग से पहिले धर्मप्रकाश की आदि में उत्पन्न हुए हैं इसलिए कोई इन्हें आदमबाबा कहते हैं। जो आदि में उत्पन्न हुआ उसे आदिक कहते हैं। शिवस्वरूप और शिवसुख को उत्पन्न उन्हीं ने किया इस कारण ये शिव कहलाते हैं और समस्त देवों में, समस्त जिनेंद्रों में ये प्रथम हुए है अत: ये महादेव कहलाते हैं। ऋषभदेव के समय से समस्त जनसमूह की भक्ति भावना प्रारंभ से रही आयी है। उनके विषय में समयानुसार स्वरूपविकल्पना होती गई है जिससे अनेक रूपों में मान्यता हो गई है। जो शिवरात्रि के नाम से प्रसिद्ध है, वह ऋषभनिर्वाण की प्रथम रात्रि की माघ बदी 13 का रूप है। गुजरात में आजकल भी एक महीना पहिले का नाम चलता, जो आपके यहाँ फागुन बदी 13 है वह उनकी है माह बदी 13 और आज भी उसे माह बदी 13 बोलते हैं। माह बदी 13 की रात्रि व्यतीत होने के बाद ऋषभदेव को निर्वाण हुआ था। जो महाशिवस्वरूप ऋषभदेव निर्वाण को पधारे उनकी भक्ति में लोगों ने रात्रिजागरण और धर्मध्यान किया था। ऋषभदेव के समय में कितनी बातें बतायी जायें? जो कुछ भी सनातन अर्थात् पूर्वरूप है वह ऋषभदेव को लक्ष्य में लेकर होता है। धीरे-धीरे कोई किसी रूप में मानने लगे, कोई कुछ स्वरूप मानने लगे।
योगभक्ति से महापुरुषों का निर्वाण- सकलजनपूजित ऋषभदेव आदि जो जिनेंद्र हुए हैं और उनके तीर्थ में जो भी मुक्ति पधारे वे सब इस योगभक्ति को करके मुक्त हुए हैं। श्रीराम, हनुमान, इंद्रजीत, नल, नील, सुग्रीव आदि जो भी महापुरुष मुक्ति को प्राप्त हुए हैं, उन्होंने इस परमयोगभक्ति को अंत में प्राप्त किया था। जैनसिद्धांत में श्रीराम का जो चरित्र बताया है- श्रीराम का अंतिमरूप क्या रहा और सीता का भी अंतिमरूप क्या रहा, तहाँ एक वर्णन है। बीच में नहीं छोड़ा गया है, कुछ बताकर बीच में बंद कर दिया गया हो, ऐसा नहीं हुआ। श्रीराम बलभद्र थे, इन्होंने उत्कृष्ट योगभक्ति करके निर्वाण को प्राप्त किया। यह इस भारतवर्ष की बात कही जा रही है, अन्य क्षेत्रों में भी अनेक महापुरुष मुक्ति पधारे। इस देश का नाम जो भारतवर्ष रक्खा है, उसका कारण इतिहासकारों ने बताया है कि ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष रक्खा गया था और भरतक्षेत्र नाम यह अनादि नाम है और चूँकि इस भरतक्षेत्र पर भोगभूमि के महान् अंधेरे समय के बाद प्रथम ही प्रथम पूर्ण भरतक्षेत्र पर विजय भरत चक्रवर्ती ने किया था, इसलिए वे भरत नाम से प्रसिद्ध हुए। इस भारतवर्ष में पहिले ऋषभदेव को लेकर वर्द्धमान पर्यंत चौबीस तीर्थंकर परमदेव हुए हैं।
नाभेय ऋषभदेव- ऋषभदेव का नाम नाभेय है। कुछ बंधु ऐसी कल्पना करते हैं कि भगवान की नाभि से कमल निकला और उस कमल पर ब्रह्म पैदा हुए। यह ब्रह्म ऋषभदेव है, क्योंकि मोक्षमार्ग की विधि ऋषभदेव ने प्रवर्ताई है और भूली भटकी, विपदा में पड़ी हुई जनता को असी, मसी, कृषि, वाणिज्य, शिल्पी और सेवा के साधन बताकर एक नवीन प्रकाश की सृष्टि की है। ये नाभि नाम के राजा के पुत्र हैं इसलिये इनका नाम नाभेय है। ये नाभि से उत्पन्न हुए हैं, नाभि तो पिता थे मरुदेवी महारानी के कुक्षि से ये पैदा हुए थे। वह पेट में इस प्रकार विराजे रहे जैसे मानो कोई कमल के आसन पर बैठा हुआ हो। जैसे हम आप साधारण लोग गर्भ के जेर में लिपटे रहते हैं, महादुर्गंधित, अपवित्र, घिनावने जेर में हम आप लिपटे रहते हैं और उत्पन्न होते हैं तो जेर सहित उत्पन्न होते हैं, किंतु एक नाभिदेव ही क्या, समस्त तीर्थंकर निर्लेप उत्पन्न होते हैं, इनका जन्म भी शास्त्रों में पोतजन्म माना गया है। जैसे हिरण और सिंह पैदा होते ही निर्लेप निकलते हैं और निकलते ही दौड़ने, भागने लगते हैं, मानो इसी प्रकार ऐसे ये महापुरुष निर्लेप उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनका आसन कमल कहा गया है। सभी तीर्थंकर कमलासन माने गये हैं अथवा समवशरण में कमल के ऊपर अधर विराजमान् रहते हैं, इससे कमलासन कहे जाते हैं। ये सर्वज्ञ वीतराग जिनकी तीन लोक में कीर्ति फैली हुई है, महादेवाधिदेव परमेश्वर ऐसे आत्मसंबंधी परमयोगभक्ति को करके निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
जैनेंद्रमार्ग के आश्रय का अनुरोध- हे मुमुक्षु जनों ! तुम भी उसी मार्ग का आश्रय लो, जिस मार्ग से ये महापुरुष चलकर परम आनंद को प्राप्त हुए। कुछ लोग कभी यह शंका करने लगते हैं कि निर्वाण में क्या सुख है? अकेले रह गये, न घर, न पैसा, न खाना, न पीना, न कोई बोलने-चालने को, यहाँ कभी कोई अकेला रह जाय तो दिन नहीं कटता और वे अकेले अनंतकाल तक कैसे रहते होंगे? क्या है सुख यहां? लेकिन यह नहीं जाना कि जिन समागमों से हम सुख मानते हैं, सुख के साधन जानते हैं वे वास्तव में सुख के साधन नहीं हैं, किंतु आनंद में बाधा देने वाले हैं।
विषयों की आनंदबाधकता का दृष्टांतपूर्वक समर्थन- जैसे किसी नल का पानी बहुत तेजी से निकलता हो और उसमें कोई हाथ की गद्दी अड़ा दे तिस पर भी थोड़ा बहुत पानी की धार अगल-बगल से निकले और कोई पुरुष यह मान ले कि इसने अपनी हथेली से पानी निकाला तो यह कितनी भूल भरी बात है? हथेली ने तो पानी में बाधा डाली, निकाला नहीं। इसी तरह आत्मा का सहज आनंद अपने आप बड़े। वेग से निकलने को निरंतर तैयार रहता है, किंतु उस आनंद में इन विषयभागों ने एक गद्दी लगाने का जैसा काम किया। वहां आनंद में बाधा आयी तिस पर भी चूँकि यह आत्मा आनंदमय है, सो किसी न किसी रूप में यह आनंद फूट निकलता है, जिसे लोग सांसारिक सुख बोलते हैं। अब वे भ्रम करने लगे हैं कि इन विषयों से, विषय साधनों से सुख मिलता है। सुख यहां नहीं है, सुख तो आत्मा की निराकुलता में है। जहां निराकुलता हुई वहीं आत्मा का हित है, वही वास्तविक आनंद है। आकुलता उत्पन्न होती है किसी परद्रव्य के संबंध से। जहां अणुमात्र भी परद्रव्य का संबंध नहीं है, वहां आकुलता का क्या काम है? पूर्ण निराकुल दशा निर्वाण की होती है।
पुराण पुरुषों की शुभ स्मृति- शुद्धज्ञानानुभूतिजन्य परम-आनंद अमृतरस से जो निरंतर तृप्त रहते हैं, समस्त आत्मप्रदेशों में जो आनंदमय रहते हैं उन्होंने इस योगभक्ति को किया था, जिस परमभक्ति का वर्णन इस अधिकार में बहुत दिनों से चल रहा है। ज्ञानप्रकाश करके, परद्रव्यों की उपेक्षा करके एक सहज स्वभाव में अपनी दृष्टि स्थित करना और परम विश्राम पाना, इसमें है यह उत्कृष्ट योगभक्ति। उस योगभक्ति के प्रसाद से ये योगी निर्वाण को प्राप्त होते हैं। कोई लड़का कुछ गलत रास्ते पर चलने लगे तो लोग उसे समझाते हैं- देख तेरे बाबा-दादा कैसे बड़े कुल के थे, कितनी प्रतिष्ठा थी, कैसा सदाचार था। तुम उस कुल को नहीं निभाते? जरा अपनी भी बात देखो- हम-आप विषयों में, कषायों में और कितने ही लोक अन्यायों में मस्त रहते हैं, दुराचार की प्रवृत्ति कर रहे हैं, अरे कुछ अपने पुराण पुरुषों का ध्यान तो करें। तुम उस कुल के हो जिस कुल में ऋषभनाथ, महावीर, श्रीराम, हनुमान आदि महापुरुष हुए हैं। उनके कुल की परंपरा में हम, आप पैदा हुए हैं, अपने पुरुषों का चरित्र तो निहारों, कैसी उनमें उदारता थी, कैसा धैर्य था, कैसी न्यायप्रियता थी? वे पर के उपकार के लिए अपना सर्वस्व लगाने में उद्यत रहा करते थे, अंत में सरल संन्यास करके अपने परमब्रह्म की परमभक्ति की थी और सर्वसंकटों से मुक्त होकर परम आनंद प्राप्त किया।
पुरखा का अर्थ- पुरुखा का अर्थ है पुरुष। पुराने समय में ष को लोग ख बालते थे। षट्पद को खट्पद बोलते थे। ये बहुत से शब्द जिसमें मूर्धन्य ष आये उसे लोग ख बोला करते थे तो पुरुष शब्द का बहुवचन है पुरुषा:, जो महापुरुष होते हैं उनको बहुवचन बोलने की पद्धति है, जैसे कोई साधु आ जाय तो लोग बोलते हैं कि महाराज आ गये, ऐसा कोई नहीं बोलता कि महाराज आ गया है। एक होने पर भी सम्मान भरे शब्दों में बहुवचन का प्रयोग किया जाता है। जो पुराण पुरुष होते हैं उनका नाम बहुवचन से लिया जाता है, बहुवचन में बोला जाता है पुरुषा: और पुरानी बोली में बोला जाता है पुरुखा:। जो अपनी इस परंपरा में पहिले पुराण पुरुष हुए हैं उन्होंने क्या किया था, सो ही हमें करना चाहिये।
पुरखों का आदर्श ग्रहण- हम अपने पुरखों को तुध तो न लें और नये पुरखों की अटपट बातों को देखकर उनकी हठ कर लें, हमारे दद्दा ने तो ऐसा ही जीवन बिताया था, हम भी ऐसा ही जीवन बितायेंगे, कोई ज्यादा उन्नति न की हो। दो, तीन पीढ़ियों का उदाहरण लेकर अपने को अवनति में ले जाय, इसके लिए तो उन पुरुषों का उदाहरण लेते हैं और धन कमाने में उदाहरण नहीं लेते हैं कि हमारे दद्दा-बब्बा ने ज्यादा धन की कमायी न की थी, गरीबी से जीवन बिताया था, वैसे ही गरीबी से हम भी जीवन बिताये और कोई ओछी बात मिल जाय तो उसके लिए उन पुरुषों का उदाहरण पेश करते हैं। जरा ध्यान से तो सोचो, कुछ ऐसी भी बात हो सकती है कि दिखने में वह ओछी लगती हो, किंतु उनका उद्देश्य लक्ष्य ऊँचा हो, उसका क्यों पता नहीं रखते? हमें अपने पुराण महापुरुषों की स्मृति करना चाहिये, आखिर हम उनके ही कुल में उत्पन्न हुए हैं।
वास्तविक कुपूती और सुपूती- कुपूत नाम उसका है जो अपने कुल को डुबाये। व्यवहार में हमारा कुल है मोक्षगामियों का। जो व्रतधारी पुरुष थे, उनका कुछ भी अनुकरण न करें तो हम व्यवहार में कुपूत हैं। निश्चय से हमारा कुल है एक चैतन्यस्वरूप। कुल उसे कहते हैं जो चिरकाल तक अपनी संतान बनाये रहे। हमारी संतान शरीरों के रूप में नहीं चलती, आज मनुष्य हैं, गुजरकर कल हो जायें घोड़ा तो कहां रही वह संतान है? आज मनुष्य हैं, पहिले न जाने पशु थे कि पक्षी थे कि मनुष्य थे, न जाने किस जाति के थे, किस कुल के थे। शरीर की परंपरा हमारा कुल नहीं है। हमारा कुल तो चैतन्यस्वरूप है। हम इस चैतन्यस्वरूप को कभी भी न छोड़े। अपना चैतन्यस्वरूप ज्ञानानंदमय जो पवित्र शुद्ध भाव है, शुद्ध कुल है उसकी रक्षा करें तो इसमें उत्पन्न हुए हम सपूत कहला सकते हैं। अगर भोगविषयों में ही उपयोग बना रहा तो हमने परमार्थ से कहाँ सुपूती की? सुपुत्र तो उसी का ही नाम है जो वंश को पवित्र करे। हमारा वंश है चैतन्यस्वरूप। हम चैतन्यस्वरूप का शुद्ध विकास करने का यत्न करें तो हम वास्तव में सपूत हैं। स्मरण करिये, प्रथमानुयोग के अध्ययन करने से यही बल तो मिलता है कि हमें इस चैतन्य कुल की उन्नति की निरंतर भावना करनी चाहिये।
परमभक्ति का प्रसाद पाने का उपदेश- इस अंतिम गाथा में यह उपदेश किया जा रहा है कि हमारे पुराण पुरुषों ने इस परमभक्ति को धारण करके निर्वाण के सुख को उत्पन्न किया है। हमारा भी यही कर्तव्य है कि भीतर में श्रद्धा से अंतरंग में इस ही निज ज्ञानप्रकाश को बनाएँ, मैं एतावन्मात्र हूं, मैं अन्यरूप नहीं हूं और मेरा तो स्वरूप ही मेरा है। घर, मकान, कुटुंब, परिवार कुछ भी मेरा नहीं है। इसकी ओर जितनी प्रीति उत्पन्न होती है वह सब इसके लिये कलंक है और दुर्गतियों में ले जाने का कारण है। हम कुछ ध्यान तो करें अपने शुद्धस्वरूप का और उस स्वरूप की उपासना करके इस परमभक्ति का प्रसाद पायें।
परमभक्ति अधिकार की समाप्ति का योग- आज यह परमभक्ति अधिकार समाप्त हो रहा है। समाप्त होने का भाव मिट जाना नहीं है। जैसे कि लोकव्यवहार में लोग कहने लगते हैं कि यह तो समाप्त हो गया अर्थात् खत्म हो गया। समाप्त का अर्थ खत्म नहीं है, किंतु सम् का अर्थ है भली प्रकार से, आप्त मायने प्राप्त हो जाना, जो खूब अच्छी तरह से पूरा मिल चुकना है, उसको समाप्त कहते हैं। इसी तरह संपूर्ण उसका नाम है जो पूरी तरह से भरपूर हो गया। आज यह परमभक्ति भाव संपूर्ण हो रहा है अर्थात् भली प्रकार से प्राप्त हो रहा है। अवसर की बात है कि आज ही यह भक्ति अधिकार भी समाप्त हो रहा है और आज ही ऋषभदेव का निर्वाण दिवस भी आया है, इसमें जितने भी साधुवों ने निकटभूतकाल में मुक्ति पायी है उन सबका स्मरण किया है। इस चतुर्थकाल के आदि से लेकर चतुर्थकाल के अंत तक ऋषभदेव से लेकर 24 तीर्थंकर, अनेक चक्रवर्ती जिनमें भरत प्रसिद्ध हैं, अनेक बलभद्र जिनमें श्रीराम प्रसिद्ध हैं और अनेक महापुरुष निर्वाण को पधारे, उन सबने भी इसी परमभक्ति को प्राप्त किया था। आत्मा को जो शुद्ध ज्ञानस्वरूप है, जहां केवलज्ञान है, ऐसे उस स्वरूप को प्राप्त किया। धर्म तो यही है।
संबोधन- हे कल्याणार्थी जनों ! धर्म के नाम पर भेद मत डालो, उससे कोई सिद्धि न होगी। धर्म तो आत्मा का है, आत्मा को करना है, आत्मा में मिलेगा, आत्मा के द्वारा धर्म किया जायेगा और वह आत्मा के लिए ही होगा। तुम आत्मा हो, तुम्हें अपना भला चाहिए या नहीं? भला चाहिए तो इस आत्मा के नाते आत्मा का चमत्कार निरखो, इस ही में परमात्मतत्त्व का दर्शन है, इस ही में वह समस्त योग है जिससे अद्भुत आनंद प्रकट होता है।
गुणगुरुवंदन- जो गुणों में बड़ा है, तीन लोक में जो भी पुण्य है उस समस्त पुण्य की राशि है, ऐसे नाभेय आदिक जिनेश्वरों को भक्तिपूर्वक हम वंदन करते हैं। जिनेश्वर अथवा जिनेंद्र भगवान, इसका अर्थ यह है कि जिस आत्मा ने रागद्वेषादिक शत्रुवों को जीत लिया है, जो केवल जानन-देखनहार है, विश्वज्ञ और विश्वदर्शी है, उस आत्मा को जिनेंद्र कहते हैं, उसमें नाम कुछ भी नहीं लेना, नाम लेने से तो एक भेद सामने आकर खड़ा हो जाता है। व्यवहारभक्ति में नाम लेकर भक्ति की जाती है, किंतु परमभक्ति में नाम, कुल, जाति, शरीर, ये सब ध्यान में न लेना, केवल ऐसे ज्ञानपुन्ज जिन्होंने रागादिक विभावों को नष्ट किया है और अपने शुद्ध स्वभाव को प्राप्त किया है उसका इसमें स्मरण करना। यह जिनेश्वरदेव देवेंद्रों के द्वारा पूज्य है।
वीतरागता का प्रभाव- भैया ! जरा विचार तो करो- उन देवेंद्रों को क्या मिल रहा है इस प्रभु के भजन में? अपना सारा तन, मन, न्यौछावर किए जा रहे हैं और यहां मनुष्यों को क्या मिल रहा है प्रभु की भक्ति भजन में? अपना तन, मन, धन सब कुछ न्यौछावर किए जा रहे हैं। कुछ भी तो साक्षात् नहीं मालूम होता। घंटों पूजा करो तो भी वह एक रूपया तक देने में भी समर्थ नहीं है, भूख लगी हो तो वह कुछ चनों का साधन दे दें, ऐसा भी नहीं होता, पर क्या वजह है कि ये मुनिनाथ, ये देवेंद्र सब कोई प्रभु के चरणों में झुकते चले जा रहे हैं? वह है एक वीतरागता का प्रताप। जीव की ऐसी आदत है कि जिसे वह रागी समझता है उसमें अंतरंग से प्रेम नहीं करता और जिसे निष्पक्ष, रागद्वेषरहित समझता है उस पर वह लट्टू हो जाता है। वीतरागता सब आकर्षणों में प्रधान आकर्षण की चीज है। हम सब भी आत्महित चाहते हैं और आत्महित इस वीतरागता में मिल सकता है, अतएव सब कुछ साधन न्यौछावर करके इस वीतरागता की पूजा करना है।
वीतरागता उपनाम अहिंसा- वीतरागता क्या है? रागद्वेषरहित शुद्ध ज्ञानप्रकाश। वही अहिंसा है, वही सत्य है, वही परमशील है, वही प्रभु और वही हमारा आराध्यदेव है। निष्पक्ष होकर रागद्वेष तजकर एक इस परमात्मा की शरण आएँ, अन्यत्र कहीं बाहर में आँखें पसारकर देखने में वह परमात्मा न मिलेगा, किंतु इंद्रियों को संयत करके अपने आपमें निर्विकल्प परमविश्राम लेने से इस प्रभु के स्वानुभव की पद्धति से दर्शन होंगे, ये प्रभु वास्तविक सौंदर्य के स्वामी हैं, वास्तविक सौंदर्य पदार्थ अपने-अपने सहजस्वरूप में है, परवस्तुवों की लपेट करके जो सुंदरता बनायी जाती है उसमें आभा नहीं होती है। जैसे कुछ स्त्री पाउडर या सफेद चीजें पोतकर अपनी सुंदरता को दिखाना चाहती हैं, पर देखने वाले की समझ में जब आता है कि इसने तो पाउडर पोता है तो उसकी दृष्टि में सुंदरता नहीं विराजती, उसे तो उसका रूप विरस लगने लगता है। बनावटी परद्रव्यों का संबंध बनाकर सुंदरता नहीं बनती। वास्तविक सौंदर्य तो पदार्थ के अपने ही सहजस्वरूप में बसा हुआ है।
सुंदर शब्द की व्युत्पत्ति- शब्दव्युत्पत्ति से देखो सुंदरता कोई भली चीज नहीं है। सुंदर शब्द ही इस अर्थ को बताता है। सुंदर शब्द में 3 विभाग हैं- सु, उंद और अर, सु उपसर्ग है, उंदी क्लेद ने धातु है, अरच् प्रत्यय है, जिसका अर्थ है जो भली प्रकार तकलीफ दे, क्लेश दे, सो आप जान ही गये होंगे कि लोक में जिन चीजों को हम सुंदर कहते हैं वे ही चीजें लौकिक जनों को खूब तड़फा-तड़फा कर काट दिया करती हैं, लेकिन इस सुंदर शब्द का प्रयोग मोही जीवों ने एक मनोरम वस्तु के लिए किया है।
मनोरम स्वरूप- मनोरम शब्द अच्छा है, जो मन को रमाये उसे मनोरम कहते हैं। मनोरम अथवा अभिराम तो यह आत्मस्वरूप है। जिसका ज्ञान तीन लोक, तीन काल के समस्त द्रव्य गुण पर्यायों को जानता है, उससे बढकर और कुछ भी चमत्कार हो सकता है क्या? यह अनंत चमत्कार, एक ज्ञायकस्वरूप इस अंतस्तत्त्व की उपासना में है, इस शुद्ध ज्ञानानंद के परमविकासरूप प्रभु को हमारा वंदन हो।
जिनसिद्धांत, उपनाम आत्मसिद्धांत- एक बात ध्यान में लाने की है कि जैन सिद्धांत को अर्थात् धर्मसिद्धांत को राग-द्वेष को जिन्होंने जीता है, ऐसे जिनेंद्र भगवान ने कहा है इसलिए इसे जैन सिद्धांत कहते हैं। कहा उन्होंने वही है जो प्रत्येक वस्तु के स्वभाव में बसी हुई बात है। इसे आत्मसिद्धांत कहो, चाहे धर्मसिद्धांत कहो, इस सिद्धांत में एक शुद्ध ज्ञानस्वरूप की पूजा है। किसी आत्मा ने जिस किसी भी मनुष्य पर्याय को पाकर इस ज्ञानस्वरूप का आराधन किया है वे महापुरुष कर्मजाल को नष्ट करके निर्वाण को प्राप्त हुए और उन्होंने यह अनंत ज्ञानस्वरूप का विकास पाया। अतएव हम नाम लेकर पूजते हैं ऋषभदेव, महावीर, श्रीराम, हनुमान आदि करोड़ों मुनि मुक्ति गये हैं हम नाम लेकर पूजते हैं, पर नाम पर आग्रह नहीं करना है, वह तो हमारी व्यवहारभक्ति है। जो भी अंतस्तत्त्व है, जिसका शुद्ध विकास है उसका स्मरण करना, उससे ही धर्म मिलता है और शुद्ध आनंद का झरना झरता है। मैं इस ज्ञानपुन्ज की भक्ति क्यों करता हूं? इसलिए कि हमारा अपुनर्भव हो। पुनर्भव कहते हैं, फिर से जन्म लेना और अपुनर्भव उसे कहते हैं कि फिर से जन्म न लेना पड़े।
अपुनर्भव का ध्येय- हे कल्याणार्थी पुरुषों ! अपने आपमें यह निर्णय बनावो कि मुझे मनुष्य जीवन से जी कर क्या करना है? अपुनर्भव की प्राप्ति करना है। ये महल, मकान अंत में मेरा साथ न देंगे, यहां के मायामय प्राणियों में अपना नाम जाहिर करके नर-भव नहीं खोना है, जिनमें नाम जाहिर करेंगे, वे स्वयं मर मिटने वाले हैं और जो जाहिर की सोचते हैं वे भी नर मर मिटने वाले हैं, कौन-सा लाभ मिलेगा? मुझे तो अपुनर्भव की प्राप्ति चाहिए। फिर इस जीवन में यदि लौकिक हानि हो जाय, कुछ पैसा घट रहा है अथवा कोई इष्टजन मर गये हैं या अन्य कुछ भी इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग हो रहा है तो पक्का चित्त करिये, उससे हानि कुछ न समझो और इस संपदा के लाभ में लाभ कुछ न समझो।
समागम की असारता- भैया ! दृश्यमान् यह सब तो मोह की नींद का एक स्वप्न है। जैसे स्वप्न में देखी हुई चीज केवल कल्पना है, वह मेरी नहीं हो जाती, इसी प्रकार यहाँ भी देखी हुई चीजें एक कल्पना है। वे मेरी नहीं हो सकती हैं। यह देह तक भी मेरा नहीं है और की तो बात क्या कही जाय? अपने आपमें यह निर्णय बनावो कि हमने जीवन पाया है तो धर्ममय होने के लिये, अपुनर्भव प्राप्त करने के लिये आत्मसाधना करने के लिए जीवन पाया है और किसी अन्य प्रयोजन के लिए नहीं। यह प्रयोजन पक्का बनावो, नहीं तो धोखा ही धोखा खाना पड़ेगा।
अंतस्तत्त्व के अनुभव का चिंतन- यहाँ योगी चिंतन करता है कि मैंने गुरु के सांनिध्य में रहकर निर्मल हितकारी धर्म को प्राप्त किया। मैंने ज्ञान द्वारा इस समस्त मोह को नष्ट किया है। अब उस रागद्वेष की परंपरा को तजकर अपने चित्त में वैराग्य की वासना बनाकर आनंदमय इस ज्ञानस्वरूप तत्त्व में स्थित होकर मैं परमब्रह्म में लीन होता हूं। देखिये अपने आपका जितना बाह्य अंतरंगरूप से परिचय हो जायेगा वैसे ही वैसे ये विशेष भाव विकल्प तरंगे बुझती चली जायेंगी और निर्विकल्प स्थिति होने पर जो कुछ इसे ज्ञानप्रकाश नजर आता है उसे तो ‘यह मैं हूं’ इतना तक भी विकल्प करके ग्रहण नहीं होगा, किंतु एक ज्ञानप्रकाश का अनुभव और आनंद होगा। यह परमब्रह्मस्वरूप एक है, इतना तक भी विकल्प योगी के नहीं होता। जो इस ब्रह्मस्वरूप का अनुभव करता है उसके यह भी विकल्प नहीं है कि वह एक है और सर्वप्राणियों में व्यापक है। वह तो एक विशुद्ध आनंदरस का भोक्ता होता है। मैं इस आनंदमय अंतस्तत्त्व का अनुभव करूँ और इस ही में लीन होऊँ।
आत्मवैभवप्राप्ति के साधन- बड़े-बड़े योगीश्वरों ने भी जो कुछ आत्मवैभव पाया है वह इन चार प्रबल साधनों द्वारा पाया है। प्रथम तो उन्होंने शास्त्रों का गहन मनन किया, द्वितीय बात- अनेक युक्तियों का अवलंबन किया, जिसमें कोई दोष नहीं, अविनाभाव से परिपूर्ण ऐसी युक्तियों द्वारा भी इस परमब्रह्म का परिचय पाया है। तीसरी बात- गुरुवों के चरणों की निश्छल, निष्कपट, अंतरंग हृदय से उपासना की है, उनके प्रसाद से यह परमवैभव मिला है और चौथी बात यह है- फिर स्वयं भी अपने अनुभव से उस ज्ञान का ऐसा स्वाद लिया है कि जहाँ से यह आनंदरस स्वत: ही झरता है।
यतिपना- भैया ! अपने हृदय में इतनी बात तो लावो कि यह संपदा तृणवत् है, असार है, इससे इस अनुपम आत्मा को कुछ लाभ नहीं होता है। यह आत्मा तो अपने आत्मस्वरूप को संभाले तब इसको लाभ प्राप्त होगा। अपने जीवन का दृष्टिकोण बदल दो और दिगंबरता का अपने चित्त में प्रोग्राम बनावो। इस जीवन में यदि ऐसी निर्ग्रंथ अवस्था भी न हो सके, किंतु दृष्टि आकिन्चन्य की बनाने से कुछ लाभ प्राप्त कर लिया जा सकता है। जिन योगीश्वरों को इंद्रियलोलुपता नहीं रही, किंतु एक तत्त्वलोलुपता ही रही अर्थात् अंतरज्ञान का मर्म प्रकाश में पायें, ऐसा ही जिनका यत्न रहे उनके निरंतर आनंद झरता है, एक अद्भुत निराकुल स्वरूप आनंद प्रकट होता है। यति उसे ही कहते हैं जो इस निज परमब्रह्म की उपासना से उत्पन्न होने वाले आनंद के लिये यत्न किया करता है, वह ही वास्तव में जीवन-मुक्त है, संसार के क्लेशों से दूर है।
परमप्रियभक्ति का उत्साह- इस परमभक्ति के उपन्यास में एक अपना संकल्प बनाएँ, यह एक स्वरूप परमतत्त्व जो रागद्वेषादि द्वंद्व से भिन्न है, जो किन्हीं दो रूप नहीं है, निष्पाप है, उस अंतस्तत्त्व की मैं बारबार भावना करता हूं। क्या प्यारा है तुम्हें सबसे अधिक? ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर यह आना चाहिए कि हमें तो इस नर-जीवन का लाभ उठाना है, वह लाभ जिसमें हो, यही हमें सबसे प्रिय है। जिसे केवल परिजन, धन, संपदा ही प्रिय हैं उसने समझो अपने जीवन को खो दिया है। जो स्वाभाविक आनंद का अनुभव कर लेता है, मुक्ति की ही जो चाह रखता है उसका तो यही उत्तर रहता है कि मुझे न चाहिएँ संसार के सुख। जैसे ताजी पूड़ियाँ परोसी जा रही हैं और कोई चार दिन की बासी बफूड़ी पुड़ियाँ परोसने लगे तो उन्हें कोई भी लेना नहीं पसंद करेगा। ऐसे ही जिसे आत्मीय आनंद प्रकट हुआ है वह संसार के सुखों को न चाहेगा। मैं भी इस एकाकी ज्ञानस्वरूप तत्त्व की स्पृहा करता हूं। मुझे संसार का कोई सुख न चाहिए। उसे कोर्इ कितना ही धन-संपदा का प्रलोभन दे, पर उसके प्रलोभन में वह न आयेगा, वह तो अपने परमहितस्वरूप ज्ञानानंदस्वरूप आत्मतत्त्व की ही भक्ति करेगा। इस प्रकार परमभक्ति अधिकार समाप्त होता है अर्थात् भरपूर होता है।
नियमसार प्रवचन नवम भाग समाप्त