वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 139
From जैनकोष
विवरीयाभिणिवेशं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु।
जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो।।139।।
सुतत्त्वयोग में योगभक्ति- जो ज्ञानी पुरुष विपरीत अभिप्राय को त्याग करके जैन के द्वारा कहे गए तत्त्वों में अपने को लगाता है, ऐसा जो उसका निज भाव है उसका नाम योग है। यहाँ जैन से मतलब है रागद्वेष जीतने वाले जिन अर्थात् प्रभु के भक्त। वे होते हैं गणेश, महावीर स्वामी के समय में गौतम गणेश उनके मुख्य उपासक थे। प्रत्येक तीर्थंकर के समय में गणेश होते हैं, जो अपने गण के ईश अर्थात् नायक होते हैं उनका नाम गणेश है। उनका दूसरा नाम गणधर भी है। ये गणधरदेव समस्त गुणों के धारण करने वाले गण के भी नायक हैं। ऐसे जैन मुनियों के द्वारा कहे गए तत्त्व में विपरीत अभिप्राय न रखना, विपरीत आशयरहित जो आत्मा का परिणाम होता है उसे निश्चयपरमयोग कहा है।
सप्ततत्त्वों में मूल तत्त्व- मोक्षमार्ग के प्रयोजनभूत तत्त्व 7 होते हैं। संसार के संकटों का नाश करने में समर्थ 7 तत्त्वों का यथार्थ परिज्ञान है। इस प्रकरण को ध्यान से सुनो। यह संकटहारी उपायों का कथन है। हम आप आत्मा से संबंधित मूल में दो तत्त्व है एक तत्त्व तो स्वयं है और एक तत्त्व उपाधि का है, जो हेय है अर्थात् जीव और अजीव का यह सारा झमेला है। न केवल जीव में झमेला होता है और न केवल अजीव में झमेला होता है, किंतु जीव और अजीव जब मिलकर अपने-अपने स्वभाव को त्यागकर दोनों बिगड़ जाते हैं तब यह झमेला बनता है। मूल में दो तत्त्व हैं- जीव और अजीव।
पंचपर्यायतत्त्वों के निरूपण का आधार- इस प्रकरण में जीव का अर्थ तो चेतन सहित है और इस समय सहज शुद्ध ज्ञायकस्वरूप की दृष्टि न रखकर सोचो, क्योंकि इस जीव में 5 पर्यायों का वर्णन किया जायेगा और दूसरा तत्त्व बताया है अजीव। अजीव में यद्यपि धर्म, अधर्म, आकाश और काल, ये 5 पदार्थ आते हैं, पर उन पांचों में से केवल पुद्गल को लेना और पुद्गल में भी कार्माणवर्गणा को लेना। धन, वस्तु, संपदा, सोना, चाँदी, मकान इनका ग्रहण न करना, किंतु कर्मों को लेना। जीव मायने यहाँ जीव और अजीव मायने कर्म। जीव और कर्म का जो संबंध है उस संबंध के संयोग अथवा वियोगरूप निमित्त को लेकर 5 तत्त्व बनते हैं- आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष।
आस्रव और बंध- जीव में अजीव का आना, सो आस्रव है। आने का नाम आस्रव, आस्रवण है। आने के अर्थ में अनेक शब्द हैं, आ गये, सरक आये, धमक आये, बोलते जाइए, आखिर आने के ही तो ये शब्द हैं और सब शब्दों से जुदे-जुदे अर्थ हैं। आ गये, इसका अर्थ है कि सभ्यता जैसी चाल से जैसे आना होता है उस तरह आ गये। सरक आये, मायने इष्ट तो न था, पर धीरे-धीरे आखिर जान पर आ ही पड़ा। धमक आया, इष्ट भी न था और बड़े वेग से यह बढ़ पड़ा। आने के शब्द कितने ही हैं, आने के शब्द से यहाँ आस्रव दिया है। कर्मों का आस्रवण होना, सो आस्रव है। इस आस्रवण का अर्थ है धीरे-धीरे निरंतर सिलसते हुए आना, जैसे किसी पहाड़ में छोटा झरना झरता है तो निरंतर अपनी धार में आता रहता है, निरंतर बहकर आने का नाम है आस्रवण। ये कर्म आत्मा में आत्मा के ही स्थान में वहीं के वहीं चूकर, बहकर, रिसकर कर्मरूप पर्याय में आते हैं। जीव में कर्मों का आना, सो आस्रव है और आये हुए कर्मों का बहुत काल तक के लिए आत्मा में ठहर जाना, इसका नाम बंध है।
संवर, निर्जरा व मोक्ष- कर्मरूप होने के योग्य कार्माणवर्गणाएँ तो अनेक बैठी हैं पहिले से ही, वहाँ कर्मरूप न हो सके, ऐसे आत्मनियंत्रण का नाम है संवर। अब कर्म रुक गये, कर्मरूप न हो सके, संवर के अर्थ में कुछ लोग यों कहते हैं कि कर्मों का आना रुक जाना, सो संवर है और कोई यह कहते हैं कि आते हुए कर्मों का रुक जाना, सो संवर है। सुनने में दोनों एकसी बातें लग रही होगी, पर इनमें बड़ा अंतर है। अरे आते हुए कर्मों को रोक कौन सकता है, इसलिए यह ठीक नहीं है। कर्मों का आना रुक जाना अर्थात् आना न हो सके, इसका नाम संवर है और बंधे हुए कर्मों का झड़ जाना, इसका नाम निर्जरा है और जब समस्त कर्म जीव से अलग हो जायें, झड़ जायें तो मूलत: इसका नाम मोक्ष है। यह है सात तत्त्वों की एक स्थूल परिभाषा।
व्यवहार व निश्चय के प्रतिपादन की पद्धति- अब इस प्रसंग को निश्चयनय के रूप से देखिये। यह हुई है व्यवहारनय की परिभाषा। व्यवहारनय कहते हैं उसे, जहाँ दो चीजों का संबंध बताकर, नाम लेकर उसकी बात कही जाय, इसका नाम है व्यवहार। इन 5 प्रकारों में से कहीं तो जीव और अजीव का संबंध बताया, कहीं वियोग बताया और कहीं विविक्तता बतायी। तो यह व्यवहारनय का प्रतिपादन है। निश्चयनय के प्रतिपादन में एक पद्धति होती है, वह यह कि जिसकी बात कहना, उसमें ही बात कहना, उसकी ही कहना, एक में दूसरी न मिलाये, दूसरे का नाम लेकर न कहना, एक में कुछ ही कहना, वह है निश्चय प्रतिपादन।
व्यवहारिक पद्धति का एक दृष्टांत- जैसे गाय को गिरवाँ में बाँध दिया है तो लोग यह कहते हैं कि गाय गिरवाँ से बँधी है। जैसे सुतली का एक छोर रस्सी के छोर से बाँध दिया जाय, इस तरह से गाय के गले को गिरवां से बांधा है क्या? अरे ऐसे कोई बांधने लगे तो गाय मर जायेगी। गाय का गला गिरवां से नहीं बँधा है, गाय का गला पूरा का पूरा वैसा का वैसा ही है, गिरवां का एक छोर गिरवां के ही दूसरे छोर से बंधा है, वहां यथार्थ तो यह है कि गिरवां ने गिरवां को बांधा है और उस स्थिति में यह मरखनी गाय परतंत्र हो गयी है, ऐसे ही कर्मों में कर्म आते हैं, कर्मों में कर्म बँधते हैं और उस स्थिति में यह मलिन जीव परतंत्र हो जाता है।
अजीव विषयक पंचतत्त्व- अब यों निरखिये कि कर्मों में, कार्माणवर्गणाओं में कर्मत्व आना, इसका नाम अजीव है और उन कर्मों में स्थिति भी पड़ जाना कि ये कर्म इतने समय तक अमुक प्रकृतिरूप रहेंगे, इसका नाम है अजीवबंध। कार्माणवर्गणा में कर्मत्वरूप न होने देना, न आना, इसका नाम है अजीवसंवर और उन कार्माणवर्गणावों में कर्मत्व का झड़ जाना, इसका नाम है अजीव निर्जरा और वे कर्म कर्मरूप न रहे, अपने मूलस्वरूप में पहुंच गये, इसका नाम है अजीवमोक्ष। निश्चय के प्रतिपादन में ये अजीव के 5 परिणमन हैं।
जीवविषयक पंचतत्त्व- अब जीव के 5 परिणमन देखिये- जीव मूल में है ज्ञायकस्वरूप, ज्ञानानंदस्वभावमात्र, अविकारी, अविकार स्वभाव वाले जीव में रागादिक विभावों का आना, सो है जीवास्रव और रागादिक विभावों का कुछ भी संस्कार बनाना, यह है जीव बंध। रागादिक विभावों का न होने देना, सो है जीव संवर। रागादिक विभावों का झड़ने लगना, सो है जीवनिर्जरा और रागादिक भाव मूलत: अलग हो जायें, फिर कभी भविष्य में रागादिक का अंशमात्र भी आ ही न सके, इसका नाम है जीवमोक्ष। ये हैं निश्चयनय की दृष्टि से 5 तत्त्वों की व्यवस्थाएँ। अब ये 10 पर्यायरूप तत्त्व हो गये- अजीव आस्रव, अजीवबंध, अजीवसंवर, अजीवनिर्जरा, अजीवमोक्ष, जीवास्रव, जीवबंध, जीवसंवर, जीवनिर्जरा, जीवमोक्ष।
ज्ञानविलास में पंचतत्त्व- अब इस निश्चयनय में भी केवल निजस्वरूप और निजस्वरूप के विलास में इन 5 तत्त्वों को देखो तो वहाँ एक समृद्धिवर्द्धक एक रचना मालूम पड़ेगी। यह आत्मा ज्ञानस्वरूप है, सहज निजज्ञानाकाररूप है, सहज ज्ञानस्वभावमय है। यह ज्ञायकस्वरूप आत्मा अपने आपमें परवस्तुवों के जानने का परिणमन करता है, इसमें अन्य पदार्थ ज्ञेयरूप प्रतिभास होते हैं। इस ज्ञान में परज्ञेय आता है। जो शाश्वत है वह तो होता है आधार और जो आए जाए उसको कहते हैं आना-जाना, अध्रुव चीज। इस ध्रुव ज्ञान में यह अध्रुव ज्ञेय आता है। ध्रुव में अध्रुव का आना, सो आस्रव है। यह अंत:निश्चय की बात कही जा रही है। इस ज्ञान में ज्ञेयों का रह जाना अर्थात् उनका बने रहना, सो है बंध। ज्ञान में ज्ञेय का न आना, किंतु ज्ञान केवल ज्ञानरूप को ही ग्रहण करके ज्ञान-ज्ञान में एकरस रहा करे इसका नाम है संवर और उन ज्ञेयाकार का छोड़ना निर्जरा और चिरकाल तक ज्ञान ज्ञानाकार रूप ही बना करे, उनकी ओर न झुके, इसका नाम है मोक्ष। भैया कई प्रकारों से इन जीवादिक 7 तत्त्वों का परिज्ञान करना और उनके स्वरूप में विपरीत आशय को त्याग देना इसका नाम है योग और आत्मकल्याण की साधना।
व्यामोह में विडंबना- जगत के प्राणी अपने आपके यथार्थस्वरूप को न पहिचानकर पुत्र, मित्र, स्त्री, धन, संपदा इनमें आत्मीयता का अभिप्राय करते हैं, यह तो प्रकट विपरीत आशय है, मिथ्यात्व है। कितने ही पुरुष तो धन, संपदा से ऐसा तीव्र मोह रखते हैं कि न वे अपने लिए भी आराम से खा पी सकते हैं और न किसी पर के उपकार में भी कुछ दे सकते हैं। अंत में उनकी स्थिति ऐसी बुरी होती है कि मरण समय में अत्यंत संक्लेश होता है। जिस द्रव्य को न भोग सका, न दे सका यह सारा का सारा समूचा द्रव्य अब मुझसे छूटा जा रहा है, ऐसी कल्पना में उस समय का संक्लेश इसके बहुत कठिन होता है। एक कवि ने मजाक में सबसे बड़ा दानी कंजूस को बताया है। सबसे बड़ा दानी है वह कंजूस पुरुष, जिसने कभी दान देने का परिणाम तक भी नहीं किया, किसी को दे नहीं सका और न खुद खा सका। चना मटर खाकर गुजारा किया, ऐसा अपने इह लोक व परलोक के लिए तो कुछ नहीं करता और सारा का सारा समूचा छोड़कर दूसरे को देकर चला जाता है, ऐसे कंजूस को बताया है कि वह महादानी है। अरे ! जो अपने लिए तो कुछ नहीं करता है, समूचा दूसरों को दे जाता है, ऐसा भी कोई आसक्त मोही पुरुष होता है? वह तो प्रकट मिथ्यात्व है, इसकी तो चर्चा ही क्या करें? किंतु धर्मबुद्धि होने पर कुछ कल्याण की बात में भी चित्त दें और वहां सही रास्ता न मिलना, अयथार्थ बुद्धि वाले जो तीर्थनाथ हुए हैं, गुरु हुए हैं उनके द्वारा कहे गए जो विपरीत उपदेश हैं उनमें दुराग्रह होना, इसका नाम विपरीत अभिप्राय है जिसका निषेध इस गाथा में किया जा रहा है।
विपरीताशयवियुक्त निजभाव में योगभक्ति- विपरीत अभिप्राय को छोड़कर जैन कथित तत्त्व को निश्चय और व्यवहारनय से जानना चाहिये। जो सकल जिन हैं, तीर्थंकर, अरहंत परमात्मा हैं उन भगवान तीर्थकर नाथ के चरण-कमल की सेवा करने वाले जो गणेश होते हैं उनका नाम है जिन। उन गणधरों के द्वारा कहे गये समस्त जीवादिक तत्त्वों में जो योगीश्वर अपने आत्मा को जोड़ता है उसके जो यह शुद्ध निज भाव है उसे परमयोग कहते हैं। हे मुमुक्षु पुरुषों ! इस विपरीत अभिप्राय को त्यागकर परवस्तु में, परपदार्थ में अंतस्तत्त्व के मानने के दूराग्रह को त्यागकर गणधर आदिक जिन मुनिनाथों के मुखारबिंद से जो तत्त्व उपदेश प्रकट हुए हैं उनमें अपने उपयोग को लगावो। राग, द्वेष, मोह के विनाश के कारणभूत उस तत्त्वमर्म में अपने उपयोग को एकाग्र करो, यह ही एक निज भावयोग कहलाता है। राग, द्वेष, मोह को त्यागकर शुद्ध ज्ञानानंद स्वभावमात्र अपने आपको अनुभव करना, ‘मैं तो यह हूं’ ऐसी बुद्धि करना इसका नाम है योग। जो इस योग की उपासना करता है वह कभी परमयोगी होकर अवश्य निर्वाण को प्राप्त करेगा।