वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 143
From जैनकोष
वहदि जो नौ समणो अण्णवसो होदि असुद्दभावेण।
तम्हा तस्स हू कम्मं आवससयलक्खणं ण हवे।।143।।
अशुभभाववर्ती साधु के आवश्यक का अभाव―जो साधु अशुभोपयोग से सहित वर्तता है वह साधु अन्यवश है, इसी कारण उसके आवश्यक कर्तव्य हो सकता है। खोटे भाव रागद्वेषादिक हैं, उन रागद्वेष भावोंकरिके सहित जो मुनि वर्तता हैवह वास्तव में मुनि ही नहीं है, उसे भ्रमणाभास कहते हैं,झूठा मुनि अथवा द्रव्यलिंगी कहते हैं।वह तो अपने स्वरूप को त्यागकर अन्य परद्रव्यों के वशीभूत हुआ है। दूसरी बात जो मूल गुण का भी भली भांति पालन करता है और रागद्वेष, मोह की विशेष बात भी जिसकी प्रवृत्ति में नहीं आती है और श्रद्धान भी ठीक है, तथापि अपने पद की सीमा के बाहर रागद्वेष कर रहा हो तो वह जघन्य रत्नत्रय में परिणत है,ऐसे जीव के स्वात्माश्रित निश्चयधर्मध्यान नहीं होता, इससे इस अन्यवश साधु के निश्चय परमावश्यक कर्म कैसे हो सकता है? जो द्रव्यलिंगी साधु है,जिसके सम्यक्त्व नहीं जगा है, केवल उदरपूर्ति के अर्थ द्रव्यलिंग को ग्रहण कर लेता है, आत्मकार्य के विमुख है, तपश्चरण आदिक के प्रति भी उदासीन रहता है, ऐसा द्रव्यलिंगी साधु जिस मंदिर में रहे, जिस क्षेत्र में रहे उससे संबंधित जो पदार्थ हो उसको अपना मान लेता है, यह मेरा है, ऐसे साधुजनों के आवश्यक कर्म नहीं होता, मोक्षमार्ग नहीं होता।
भावपूर्वक त्याग का निर्वाह―जो पुरुष किसी बात में समृद्ध हो और वह गृह, परिवार का त्याग करके साधुव्रत ग्रहण करे तो उसकी साधुता भली प्रकार टिक सकती है। जैसे कोई धनिक पुरुष वैराग्य से वासित होकर लाखों की जायदाद का त्याग कर साधु हुआ है तो उसके परिणामों में निर्मलता बढ़ने का अवसर है। वह छोटी-मोटी बातों में दिल न लगा पायेगा, क्योंकि वह एक बड़ी समृद्धि और संपन्नता को त्याग करके साधु हुआ है, ऐसे ही जो ज्ञानकरिके समृद्ध हैं, विद्वान हैं, ऐसे पंडितजन जिनको कोई कष्ट भी न था, वे गृह-परिवार को त्यागकर साधु हों तो उनकी साधुता भी टिक सकती है, लेकिन प्राय: जो न तो ज्ञान से सहित है और न जिसके पास धन, संपदा भी कुछ है, खाने-पीने को भी तकलीफ रहती हो, वह अपने मतलब से ऐसे ही साधु हो जाय तो वहाँ साधुता न निभ सकेगी। परिणामों में उज्ज्वलता कहां आ पायेगी? जिसका प्रयोजन ही खोटा है वह कहां निर्मलता को पैदा कर सकता है? जो मनुष्य यों ही द्रव्यलिंग को ग्रहण करके आत्मकार्य से विमुख होकर कल्पनावों को अपनाता फिरता है, धन संपदा को अपनाता फिरता है उस पुरुष के परमआवश्यककर्म नहीं होता है।
साधुवों के स्नेहबंधन का अभाव―साधुजन कोई शास्त्र भी पढ़ रहे हों और कोई पुरुष आकर यह कहे कि महाराज !यह शास्त्र तो बड़ाअच्छा है, यह तो हम लोगों के लायक भी है, क्या यह हमें मिल सकता है? तो साधु उसकी अंतर में अपनी अटक न रक्खेगा। यह मेरी किताब है, यह तुम्हें कैसे देंगे, तुम्हें हम कोशिश करेंगे मंगाने की, बन सकेगा तो दिला देंगे, यह नहीं दे सकते, ऐसा परिणाम साधु के आये तो वह शास्त्र परिग्रह में शामिल हो जाता है। साधुजन तो उस समय शास्त्र को देकर एक विश्राम पाते हैं,अपने विकल्पों से हटकर एक शुद्ध ज्ञानानुभव का यत्न करते हैं। जो साधु शुभोपयोग में लिप्त होते हैं वे पराधीन हैं। स्नेह करना एक बहुत बड़ा पाप है, इसमें सुबुद्धि हर ली जाती है और खुद भी स्वतंत्र नहीं रह पाता, जिससे स्नेह किया है उसके ही अधीन बने रहना पड़ता है। स्नेह से मिलता कुछ नहीं है, नुकसान ही सारा है।स्नेह के बंधन में किसी को लगा दो तो उससे बड़ा बैर और कुछ नहीं हो सकता है। जिन्हें हम मित्रजन,परिजन समझते हैं उनका यत्न यही तो होता है कि स्नेह के बंधन में बंधा रहे यह। लाभ क्या मिलता है? कुछ भी नहीं। तो ऐसे ही स्नेह और द्वेष के भाव से जो साधु अपना उपयोग बिगाड़ता है उसके साधुता नहीं रहती।
मोह की विचित्रता―मोह की कितनी विचित्र लीला है कि जिन्हें कभी वैराग्य जगा था, जिसके फल में अपने घर को छोड़ दिया था और उसे घास का घर हो ऐसा मानकर त्याग दिया था, अब फिर जिस कुटी में, जिस झोंपड़ी में, गुफा में रहे उसमें यह बुद्धि कर ले कि यह मेरी गुफा है, यह मेरी झोंपड़ी है, यह तीव्र मोह की विचित्र लीला है। देखो तो सब कुछ छोड़ा, अब जिस स्थिति में रह रहा है उसी में मोह करने लगा। घरबार परिजन को तो छोड़ा है और समाज के प्रजा के लोगों में अंतरंग से मोह बना लेता है, ऐसी मोह की विचित्र लीला है। यह आत्मा ऐसे अनुपम गृह में निवास करता है परमार्थत:, जिसकी उपमा तीन लोक में कोई नहीं मिल सकती है, वह घर है एक ज्ञानप्रकाश, ज्ञानपुंज। जिस घर में किसी भी प्रकार के रागादिक तिमिर का सद्भाव भी नहीं ठहर सकता, ऐसे ज्ञानस्वरूप में रहने वाला यह साधु अपने इस शाश्वत अनुपम घर की सुध भूलकर जहाँ बाहर रह रहा है उस ही में स्नेह जमाये तो ऐसे साधु के मोक्षमार्ग नहीं रहता है।
पदविरुद्ध वृत्ति में पतन―श्रावकजन, गृहस्थ लोग इतना मोह,आरंभ,रागद्वेष रखते हैं, धनसंचय करना, उसकी ममता होना, इतने पर भी गृहस्थ कुछ भी धर्म के लिए बुद्धि लगाये है तो वह गृहस्थ भला है, किंतु वह साधु जो गृहस्थ के राग के मुकाबले हजारवां हिस्सा भी राग करता है तो वह साधु अपने साधुपद में नहीं रहा। लोग जैसे यह कह देते हैं कि ये साधु हमसे तो अच्छे हैं, ये नाराज होते हैं तो हो जाने दो, अटपट काम करते हैं तो कर लेने दो, हमसे तो सैकड़ों गुणा अच्छे हैं, लेकिन बात यह जानना चाहिए कि जो जिस स्थिति में है उस स्थिति से नीचे गिरे तो वह उस लायक नहीं कहला सकता। जो पुरुष बड़ा शांत रहा करता है, वह किसी दिन क्रोध कर बैठे तो लोगों को यह विस्मय होता है और एक रातदिन झगड़ने वाला पुरुष कुछ भी क्रोध करता रहे, पर उस पर लोगों को विस्मय नहीं होता है, न खेद होता है। जो कपड़ा उज्ज्वल है, साफ है उस पर एक भी धब्बा लगे तो वह कपड़ा कलंकित माना जाता है और जो मैला कुचैला कपड़ा है उसमें न जाने कितने धब्बे लगे हैं,वह कपड़ा लोगों की दृष्टि में कलंकित नहीं माना जाता है। ऐसे ही जिन साधुवों को हम पंचपरमेष्ठी में शामिल करते हैं, जिनका नाम जपते हैं, माला फेरते हैं वे साधु कितने निर्मल होने चाहियें? इसका अनुमान कर लो। वे जिनेश्वर के लघुनंदन माने गए हैं, छोटे परमात्मा माने गए हैं। यों कह लीजिए कि जो परमात्मा हो गए हैं वे तो परमात्मा हैं ही, पर साधु भी परमात्मा के निकट के पूज्य पुरुष हैं, वे परमेष्ठी अन्यवश हो जायें अर्थात् रागद्वेष के अधीन हो जायें तो उनके मोक्षमार्ग नहीं कहा है, उनका परमेष्ठीपना भी कैसा?
सांप्रत भी तपस्वियों का सद्भाव―इस काल में भी कहीं-कहीं कोई भाग्यशाली जीव मोह के कीचड़ से हटकर अपने आपके धर्म की रक्षा करने में समर्थ आजकल भी पाये जा सकते हैं। जिसने समस्त परिग्रहों का विस्तार त्याग दिया है, जो पाप-वन को जलाने के लिए प्रचंड अग्नि के समान है, ऐसे मुनिराज इस पृथ्वी पर मनुष्यों के द्वारा व देवों के द्वारा भी पूजे जाते हैं, अर्थात् स्वर्गवासी देव भी स्वर्ग से आकर इस मनुष्य लोक में आकर ऐसे साधुजनों की पूजा करते हैं और अनेक मुनियों के द्वारा वे साधु पूजे जाते हैं। साधु नाम उसका है जो आत्मा को साधे, अर्थात् रागद्वेष से रहित होकर शुद्ध ज्ञानप्रकाश में ही उपयोग लगाये रहे, उसे साधु कहते हैं। वास्तविक तपश्चर्या यही है अपने आपके शुद्ध ज्ञानस्वरूप में अपने उपयोग को बसाये रहना। उस परमतपश्चर्या के लिए ही उपवास आदिक अनेक बाह्य तपश्चर्याएँ की जाती हैं।
कार्य के मर्म की अनभिज्ञयता में विडंबना―भैया ! कोई काम तो करता रहे और उसका मर्म न जाने तो वह काम बिगड़ जाता है। कोई एक सेठ था, उसने घर में एक बिल्ली पाली हुई थी। उस सेठ की लड़की की शादी जब हो रही थी तो वह बिल्ली इधरउधर निकले। बिल्ली का इस प्रकार से आनाजाना ऐसे कार्यों में अशगुन माना जाता है। सो उस लड़की की शादी में उस बिल्ली को पिटारे में बंद करके भांवर पारी गई। एक दो शादियां ऐसे ही तो गयीं। सेठ तो अब गुजर गया। सेठ के लड़केबड़े हुए, उनको जब अपनी लड़कियों की शादी करनी पड़ी तो भांवर का समय आने पर वे सेठ के लड़के कहते हैं, ठहरो, अभी भांवर नहीं पड़ेगी। जब एक बिल्ली लाकर पिटारे के नीचे बंद की जायेगी तब भांवर पड़ेगी। जब एक बिल्ली कहीं से पकड़कर लाये, पिटारे के नीचे बंद किया, इस प्रकार का जब दस्तूर बना लिया तब भांवर पड़ी। यह तो है बुद्धि की बलिहारी। अरे ! किसलिए पिटारे में बंद किया जाता था? इस बात को तो भूल गए और यह दस्तूर बन गया कि जब बिल्ली पिटारे में बंद की जायेगी तब भांवर पड़ेगी।वास्तव में बिल्ली तो स्वयं साक्षात् अशगुन है, वह चूहे आदि जानवरों से ही अपना पेट पालती है। बहुत क्रूर जानवर बिल्ली मानी गयी है।
शकुन का आधार―शकुन और अशकुन का निर्णय ज्ञान और अज्ञान के प्रतीक से होता है। कोई मरा हुआ मुर्दा सामने दिख जाय, जा रहा है तो आप लोग उसे शकुन मानते हैं। जब कभी मुर्दा दिख जाय तो लोग कहते हैं कि आज शकुन हुआ है। किसी मुर्दे को देखकर एक बार तो अपने कल्याण की सुध आ ही जाती है, ज्ञान जग ही जाता है, कुछ वैराग्य की बात मन में आ ही जाती है। इस कारण उसे शकुन माना गया है। ऐसे ही जितनी भी चीजें शकुन मानी गयी है उन सबके भीतर ज्ञानप्राप्ति की बात पड़ी हुई है, इसलिए शकुन माना जाता है। सामने से कोई पानी से भरा घड़ा लिए हुए आ रहा है तो उसे लोग शकुन मानते हैं। वह किस प्रकार का शकुन है? वह घड़ा यह याद दिलाता है कि जैसे इस घड़े में पानी ऐसा लबालब भरा हुआ है कि इसके बीच एक सूत की भी जगह खाली नहीं है, पानी भरा हुआ है तो क्या पानी के बीच में कोई जगह भी रह सकती है कि जहाँ पानी न हो? जितने में पानी भरा हो वह पूरा घन है। पानी पानी से ही रचा हुआ क्षेत्र है, ऐसे ही यह मेरा आत्मा ज्ञान से ही रचा हुआ क्षेत्र है, इसके बीच में कोई भी दिशाप्रदेश नहीं है जहाँ ज्ञानगुण न हो। तो जैसे यह घड़ाभीतर में जलघन है इसी प्रकार यह आत्मा भी ज्ञानघन है। इस ज्ञानघनता का स्मरण दिलाने में वह जलपूर्ण कलश एक सहयोग देता है इस कारण शकुन माना गया है। गाय का बछड़ा कहीं दूध पीता हुआ दिख जाय तो लोग उसे शकुन मानते हैं। किस बात से उसे शकुन मानते हैं? वह याद दिलाता है कि जैसे गाय बछड़े की प्रीति निष्कपट होती है, उसमें स्वार्थ की कोई बात नहीं होती है, ऐसे ही निष्कपट प्रीति एक धर्मी दूसरे धर्मी से करे तो उसका उद्धार होता है। इस वात्सल्य की स्मृति दिलाने में कारण होने से वह गाय का बछड़ा शकुन माना जाता है। शकुन उसे कहते हैं जो हमारे इस ज्ञानानंद स्वरूप की स्मृति दिलाये।
आत्मा की प्रियतमता―अपने आपके ज्ञानस्वरूप में अपना उपयोग रमाये यह है उत्कृष्ट तपश्चर्या, यह तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियों को प्राणप्रिय है। बतलावो,सबसे अधिक प्रिय वस्तु क्या हो सकती है? प्रिय वस्तु की परीक्षा का यह विधान है कि दो चीजें सामने रक्खी हुई हों, उनमें से जिस किसी की उपेक्षा कर दें उसमें तो प्यार नहीं है ऐसा समझ लो और जिस चीज को ग्रहण कर लें, समझ लो कि उसमें प्रेम है। देखो―जब वह मनुष्य बच्चा रहता है तो इसे सबसे प्यारी अपनी माँ की गोद रहती है। उसे लाखों,करोड़ों की संपदा प्रिय नहीं रहती है। जब वह कुछ और बड़ा हो जाता है तो उसे फिर अपनी मां की गोद भी प्रिय नहीं रहती है, उसे खेलखिलौने प्रिय लगते हैं, अब उसको सबसे प्यारे खेलखिलौने लगते हैं, माता की गोद अप्रिय हो जाती है। कुछ और बड़ा हुआ तो खेलखिलौने भी उसे प्रिय नहीं रहते हैं, उसे पुस्तक,बस्ता, पढ़ने के साधन इनमें चित्त लगता है। कुछ और बड़ा हुआ तो अब उसे ज्ञान की भी रुचि नहीं रहती। अब तो मुझे परीक्षा में पास होना है अर्थात् उसे परीक्षा में पास होने की रुचि हो जाती है। उसे तो डिग्री प्रिय हो जाती है। डिग्री मिलना चाहिए कैसे भी मिले? ज्ञान से उसे रुचि नहीं रहती है। कुछ और बड़ा हुआ तो उसे डिग्री भी अप्रिय हो जाती है, उसे स्त्री प्रिय हो जाती है। विवाह करता है। जब कोई पुत्र पैदा हो जाता है तो उसे पुत्र प्रिय हो जाता है, अब उसे स्त्री भी प्रिय नहीं रही। कदाचित् कभी घर में आग लग जाय और बच्चे भी भीतर पड़े हुए हों तो वहाँ वह अपनी जान बचायेगा, अपनी जान के मुकाबिले बच्चों से भी प्रेम न रहेगा। अब उसे सबसे प्यारी अपनी जान हो गयी। वही पुरुष कभी वैराग्य में बढ़ जाय, साधु हो जाय, स्वानुभव का आनंद लूट रहा हो, कोई दुश्मन आकर उसे बाधा दे, जान ले तो क्या वह अपनी जान बचाने के लिए उस दुश्मन से लड़ाई ठानता है? अरे !वह तो अपने आपके आत्मा के ध्यान में ही लीन हो जाता है। अब वह अपनी जान की परवाह नहीं करता है, अब उसे अपने प्राण भी प्यारे नहीं रहे, उसे अपना आत्मा सबसे प्यारा रहा। ऐसे आत्मा को अपने उपयोग में लगाना, यही है परमतपश्चर्या। यही सबसे अधिक प्रिय वस्तु है। ऐसी योग्य तपश्चर्या सैकड़ों इंद्रों के द्वारा भी सतत् वंदनीय है।
अन्वयवशता से विघात व स्ववशता से उद्धार―तपश्चर्या के पद को प्राप्त करके कोई साधु अथवा कोई पुरुष कामांधकार से अंधा बनकर सांसारिक सुख में रमे तो वह जड़मति है और अपने आपके आचरण से अपने आपका घात करने वाला है। मुनि भेष धारण करके भी यदि वह रागद्वेषों के वश हो जाय जो उसे संसारी वस्तु समझो। जो किसी भी परवस्तु के या रागादिक परभावों के वश नहीं होता है वही पुरुष जीवनमुक्त है और प्रभुता के करीब-करीब में है। जो मुनि स्ववश होता है, आत्मध्यान का अनुरागी होता है उसकी इस जैनमार्ग में शोभा है और जो दूसरे के वश हो जाता है वह यों समझिये कि जैसे कोई राजसेवक हो, इस तरह परवस्तुवों की, परजीवों की वह सेवा कर रहा है, उसके तपश्चरण नहीं है। प्रकरण तो साधुवों का है, इससे हम आपको भी यही शिक्षा लेनी चाहिए कि हम व्यर्थ कल्पना बनाकर अंतरंग से किसी परवस्तु के अधीन न बनें। अपने को सबसे न्यारा केवल ज्ञानानंदस्वरूप निरखें तो इस सर्वज्ञता के यत्न में मोक्षमार्ग प्राप्त होगा।