वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 144
From जैनकोष
जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो।
तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे।।144।।
शुभभाववशीभूत के भी निश्चयपरमावश्यक का अभाव―जो संयमी पुरुष शुभ भावों में भी प्रवर्तता है वह भी अन्यवश है, इस कारण इसे आवश्यकस्वरूप कर्म नहीं होता है। निश्चय परम आवश्यक कार्य है रागद्वेष आदिक विकल्पों से रहित होकर केवल ज्ञानप्रकाशमात्र निजस्वरूप का आलंबन। यही निश्चय परम आवश्यक काम है। यह आवश्यक पुरुषार्थ जैसे रागद्वेष के अशुभ विकल्पों में रहने वाले साधु के नहीं होता है इस ही प्रकार दया, परोपकार, स्तवन, वंदन, यात्रा आदिक शुभ कामों में लगे हुए साधु के भी यह परम आवश्यक काम नहीं होता अर्थात् शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के उपयोगों से रहित होने पर ही इस आत्मा के आवश्यक पुरुषार्थ बनता है। जो पुरुष शुभोपयोग के भी अधीन है उस अशुद्ध अंतरात्मा जीव के यह आवश्यक कर्म नहीं होता है। है यह अंतरात्मा संयमी, किंतु शुद्ध भावों में इसने उपयोग किया है, अत: इसे भी अशुद्ध कहा है।
शुभअशुभ भावों की बंधन में समानता―शुभभाव से कर्मबंधन होता है, अशुभभाव से भी कर्मबंधन होता है। शुभभाव से कर्म का बंध हुआ, अशुभभाव से पाप का बंध हुआ, किंतु पुण्यभाव और पापभाव जैसे ये दोनों ही सांसारिक भाव हैं, विकार भाव हैं, इसी प्रकार पुण्यकर्म और पापकर्म ये दोनों भी संसार की बेड़ियाँ हैं। जैसे किसी रईस पुरुष को जेलखाना किया जाय और सोने की बेड़ी बाँध दी जाय और किसी गरीब को लोहे की बेड़ी कस दी जाय तो बंधन में तो दोनों ही बराबर हैं। सोने की बेड़ी से कैद में रहे तो परतंत्रता, लोहे की बेड़ी से कैद में रहे तो परतंत्रता। ऐसे ही जिसके पुण्यकर्म का उदय है वह भी परतंत्र है और जिसके पाप का उदय है वह भी परतंत्र है। इसीलिए तो संसार एक गोरखधंधा है। पुण्य के उदय में जीव मौज मानता है, अपने को सुखी समझता है लेकिन यह पुण्य उसे फिर इस संसार में डूबा देता है।
पुण्यपाप का परिणाम―भैया ! क्या होगा पुण्यकर्म से? पुण्यकर्म का उदय है। धन,संपदा विशेष मिल गयी तो धन,संपदा मिलने पर प्राय: विषयकषाय भोगने का ही यह जीव परिणाम किया करता है। ऐसे बिरले ही ज्ञानीपुरुष हैं जो पुण्य के उदय से पाये हुए धनसंपदा में भी अपने परिणामों को संभालकर रख सकें। प्राय: करके जीव धनसंपदा पाकर भ्रष्ट ही हो जाता है धर्म की पंक्ति से। तो पुण्य के उदय से धनसंपदा मिली, विषयभोगों में आसक्ति हुई। विषयभोगों में आसक्ति होने से तीव्र पाप का बंध हुआ और उस पाप के उदय में नरकादिक दुर्गतियों में जन्म लेना पड़ा। तो यह पुण्य कौनसी भली बात हुई जिस पुण्य के कारण कुछ समय बाद इसे दुर्गतियों में जाना पड़े?और देखो पाप का उदय आया, उपद्रवउपसर्ग आये और यह जीव उन उपद्रवउपसर्गो में कुछ प्रभु की ओरआया, कुछ ज्ञान जगा, ज्ञानबल बढ़ा,शुद्ध परिणाम किया, मोक्षमार्ग मिल गया, निर्वाण का रास्ता तय करके मुक्त हो जायेगा सभी पापपुण्य रहित होकर। पाप के उदय ने कौनसा बिगाड कर दिया और पुण्य के उदय ने कौनसा सुधार कर दिया? सुधार होता है, जीव के शुद्ध ज्ञानभाव के कारण। पुण्य पाप दोनों ही बेड़ियाँ हैं, संसार में रुलाने वाली हैं।
ज्ञानी की अवशता―जो ज्ञानी पुरुष है वह न परपदार्थों के अधीन होता है, न अशुभ भावों के अधीन होता है और न शुभ भावों के अधीन होता है। अशुभभाव में जकड़कर रहना, अशुभभाव के करने में मौज मानना, अशुभ भाव से हित समझना, यह है अशुभभाव का बंधन और दया, दान, पूजा, वंदना, यात्रा परोपकार आदि परिणामों में मौज मानना और इन शुभ भावों से हित समझना, इन शुभ भावों को करना अपना कर्तव्य मानना―ये सब हैं शुभभाव के बंधन। जो शुभभाव के बंधन में है उसके निश्चय परमआवश्यक काम नहीं होता है।
प्रभु का निष्पक्ष उपदेश―देखो ! जिनेश्वरदेव ने स्पष्ट बताया है कि हे भक्त लोगों ! तुम लोग जब तक मेरी भी भक्ति,आराधना, पूजा करते रहोगे तब तक निर्वाण न पावोगे । कवि लोगों की कल्पना में मानो कोई भगवान कह रहे हैं कि तुम लोग हमारी शरण में आवोगे तो हम तुम्हें मुक्ति दे देंगे, जबकि जिनेश्वरदेव का यह उपदेश है कि भक्त जनो ! जब तक मेरी भक्ति का भी तुम विकल्प रक्खोगे तब तक निर्वाण न पा सकोगे। जिसकी कृपा से, जिसके उपदेश के प्रसाद से निर्वाण के मार्ग में हम लगे हैं उनका भी भेदभाव छोड़कर, विकल्प तोड़कर एक शुद्ध निज ज्ञानस्वरूप में रम जाने पर निर्वाण मार्ग की प्रगति होती है। जो जीव शुभभाव के भी अधीन है उसके भी परमआवश्यक कार्य नहीं होता है।वे योगी पुरुष जो कर्म और संसार के कर्मों को नष्ट करने के लिए उद्यमी होते हैं,वे जिनेंद्रदेव के निरूपित परम आचार शास्त्रों में लिखी हुई विधि के अनुसार अपना आचरण बनाते हैं।
साधु का त्रयोदशांग व्यवहारचारित्र―जैन आगम में साधु के तेरह अंग का चारित्र बताया है। हिंसा का पूर्ण त्याग, असत्य का पूर्ण त्याग, चोरी का पूर्ण त्याग, ब्रह्मचर्य का पूर्ण पालन और परिग्रह का पूर्ण त्याग, ये तो 5 महान् व्रत हैं। और चलो तो देखभालकर चलना, अच्छे परिणामों से चलना, किसी जीव को कष्ट न पहुंचे, इस प्रकार से गमन करना यही ईर्यासमिति है। हितकारी,मधुर,परिमित वचन बोलना यह 7वां आचरण है। भोजन करने जायें तो निर्दोष विधि से भिक्षा आहार ग्रहण करना यह एषणा समिति है। कोई चीज धरना उठाना कमंडल, शास्त्र आदिक अथवा उठें, बैठें, लेटें तो प्रासुक जमीन देखकर अथवा उस धरने उठाने वाली चीज को देखभालकर धरना उठाना यह आदाननिक्षेपण समिति है। कभी शौच जाना हो, मूत्रक्षेपण करना हो, थूक, खकार, नाक आदि को फेंकना हो तो जमीन शुद्ध निरखकर फेंकते हैं ताकि जमीन पर पड़े हुए किसी भी जीव को बाधा न पहुंचे। इस प्रकार से क्षेपण करना यह उनका 10वां चारित्र है और मन को वश करना,कोई विकल्प न होने देना, अथवा मन न माने तो वंदन,पूजन,चिंतन इन ही शुभ भावों में लगाना, वचनों का निरोध करना या वचनों से बोलना भी पड़े तो एक धर्म की ही बात बोलना, शरीर को वश में रखना आदिक तीन गुप्तियों को मिलाकर 13 आचरण होते हैं।
निर्दोष बाह्यचारित्र में भी परमावश्यक का भाव―त्रयोदशविध आचरणों में यह संयमी सावधान रहता है। यों यह शुभोपयोग में भी चलता है। व्यवहारिक जो प्रक्रियाएँ हैं, धर्मध्यान के आचरण हैं उनमें भी लगता है और चारित्र के चरणानुयोग के जो कुछ भी प्रवर्तन हैं उनमें भी चलता है, याने समस्त व्यवहार क्रियावों में सावधान रहता है। समय पर स्वाध्याय करता, रोज एक बार ही भोजन करके अथवा उपवास आदि का पालन करके चारों प्रकार के आहारों का त्याग कर देते हैं दूसरे दिन तक के लिए। जो जो क्रियाएँ उसे करनी चाहिये प्रवृत्ति में उन सब क्रियावों में वह सावधान रहता है। सुनने में अच्छा लग रहा होगा कि वह संयमी बड़ा अच्छा काम कर रहा है, लेकिन संयमी पुरुष को ऐसा भला आचरण करके भी उन आचरणों से संतोष ही नहीं है, उसे तो ज्ञान के अनुभव में ही संतोष आता है। इस मन, वचन, काय की चेष्टावों को करनातो कर्मों के उदय का फल है, मेरे आत्मा का स्वाभाविक काम नहीं है। देखा ! आपने स्वभाव का परिचय रखने वाला भावलिंग साधु जब शुभोपयोग से भी विराम लेकर एक शुद्ध स्वभाव के आलंबन में आता है तब उसके परमआवश्यक काम होता है। यही है आवश्यक काम।
आवश्यक शब्द का दुरुपयोग―भैया ! मोहीजन तो लड़ने,भिड़ने को भी आवश्यक काम बताते हैं। मुझे बहुत जरूरी काम है। क्या जरूरी काम है? फलाने की खबर लेना है, उसकी ठुकाईपिटाई करना है, वह जरूरी है। घरगृहस्थों में प्रेम करना है यह जरूरी काम है।इस आवश्यक शब्द की इन मोही जीवों ने मिट्टी पलीत की है। जो अर्थ ‘आवश्यक’ शब्द के किसी भी हिस्से से नहीं निकलता है उन सब दुष्कर्मों को मोहियों ने आवश्यक काम बताया है। अरे !ज्ञानीजन जानते हैं कि उपवास अथवा वंदन स्तवन अतितत्त्वों का पालन―ये तक भी निश्चय परम आवश्यक नहीं हैं। शब्दार्थ से देखिये,जो केवल परमब्रह्म ज्ञायकस्वरूप के अवलंबन में ही हैं अर्थात् स्ववश हैं, उनका जो काम हो रहा हो उसका ही नाम आवश्यक है। ये साधु जब चाहें भगवान अरहंत परमेश्वर की स्तुति करने में भी व्याप्त रहते हैं, कितनी ही स्तुतियां कर रहे हैं और तीन काल में कुछ करने योग्य काम हैं उन सबको करते हैं। यह उन साधुवों की बात कह रहे हैं जो बड़ी निर्दोष क्रियावों से चल रहे हैं और जो जो साधु के करने योग्य काम हैं उनमें बस रहे हैं लेकिन जब तक बाह्य क्रियावों में हैं, अपने ज्ञानस्वरूप के आलंबन में नहीं हैं उस समय भी परम आवश्यक काम नहीं कहा है।
प्रतिक्रमणविकल्प में भी निश्चयपरमावश्यक का अभाव―प्रतिक्रमण 7 प्रकार के होते हैं। रात्रिक प्रतिक्रमणरात्रिभर में जो अपराध होते हैं उन अपराधों को दूर करना, उनकी आलोचना करना, उन अपराधों से रहित आत्मस्वभाव का ध्यान करना, प्रायश्चित्त लेना, ये सब रात्रिक प्रतिक्रमण है। दैवसिक प्रतिक्रमण दिनभर में जो कुछ अपराध किया है रात्रि के प्रारंभ में प्रतिक्रमण करना प्रायश्चित्त करना, ये सब दैवसिक प्रतिक्रमण है। एक अपराध कितनी बार पछतावे में लिया जाता है सो ध्यान करिये। रोज-रोज तो करता ही था पर उन सब अपराधों को 15 दिन में एक बार फिर से अपने सामने लेता है। उनकी निंदा करता है, उनसे निवृत्त होता है। फिर इस तरह चार महीने व्यतीत होने पर उन समस्त अपराधों को फिर अपने प्रायश्चित्त में लेता है। फिर एक साल व्यतीत होने पर पुन: एक बार सालभर के समस्त अपराधों को फिर ख्याल करके उनको दूर करता है, फिर अंत में जब मरणकाल आता है तो जीवन भर के समस्त अपराधों को प्रतिक्रांत करता है। इन प्रतिक्रमणों को बोलतेसुनते हुए शुभ विकल्प में रहते हुए साधु के भी निश्चय परमावश्यक नहीं है।
ज्ञानी के निरपराधस्वरूप का चिंतन―अहो !यह मैं आत्मा रागद्वेषादिक समस्त अपराधों से रहित केवल ज्ञानस्वरूप हूँ। इसमें अपराधों का स्वभाव नहीं है, किंतु उपाधि का संसर्ग पाकर अपने आपकी सुध भूलकर इन रागद्वेषादिक अपराधों को भ्रमवश कर रहा हूँ,करता था, अब ये मेरे मिथ्या हों। मैं अपने निरपराध स्वरूप कोही ग्रहण करूँगा। निरपराध स्वभाव में तीन शब्द हैं, नि: अप राध। निर उपसर्ग है, अप उपसर्ग है और राध संज्ञा शब्द है। राध संसिद्धौं धातु से राधो शब्द बना है। राधा अर्थात् आत्मसिद्धि। यह राधा जब पास में नहीं रहती है तो उस भाव को अपराध कहते हैं। राधा नाम है सिद्धि का आत्मानुभव का, आत्मोपलब्धि का। राधा न हो तो वह अपराध हो गया और अपराध अलग हो जाय तो वह निरपराध हो गया, अर्थात् अब इस साधक के राधा का समागम हुआ है। निरपराध रहना इस आत्मा का स्वभाव ही है लेकिन इस शब्द को भूलकर यह जीव अपराधी बन रहा है। उन अपराधों का यह साधु प्रतिक्रमण भी करता है। जिस प्रतिक्रमण के स्वरूप से ऐसा संतोष उत्पन्न होता है जिससे यह धर्मरूप शरीर रोमांचित हो गया है निरपराध होने के लिए और धर्ममय बनने के लिए उत्साहित हो गया है, ऐसा भी यह पुरुष जब तक प्रतिक्रमण के सुनने में,बांचने में,बोलने में लग रहा है तब तक उसके यह निश्चय परमआवश्यक काम नहीं है।
निश्चय परमावश्यक कार्य व उसका सहयोगी व्यवहारचारित्र―भैया ! यह बहुत भीतर के पते की बात कही जा रही है। तब समझ लीजिए कि केवल पूजन,वंदन अथवा कुछ परोपकार के काम,साधुसेवा इतने ही मात्र से संतोष नहीं करना है। यह तो हम कुपथ में न चले जायें और सुपथ में हमारी दृष्टि बनी रहे उसका एक उपाय है। करने योग्य काम तो अपना जो सहज स्वरूप है उस सहजस्वरूप में उपयुक्त होकर मग्न रहने का है, लेकिन यह उत्तम कार्य गृहस्थजनों से कुछ कम बनता है, साधुजनों से विशेष बनता है, इस कारण आवश्यकजनों को मंदिर और अनेक विधिविधान का आश्रय करना बताया है। यह गृहस्थ साकार है, सागार है और साधु निराकार है, अनगार है। इन सब संसार के संकटों के लिए हम सबका यह कर्तव्य है कि संसार की छोटीमोटी बातों में भी हठ न करें और यहाँ की गुजरी हुई घटनावों से सम्मान,अपमान न मानें यह तो मोहनिद्रा की स्वप्न जैसी बात है। हम अपनी प्रकृति ऐसी बनाएँ कि कोई अपराध करे तो भी उसे क्षमा कर दें। हम न क्षमा कर सकें तो आत्मा का कोई लाभ न पायेंगे। बल्कि कुछ शल्य रखने के कारण हम अपना बिगाड़ ही कर लेंगे। हम अपना लोकव्यवहार इतना पवित्र रक्खें कि कभी कुछ व्यग्रता करने की जरूरत न रहे। जो पुरुष न्यायवृत्ति से रहता है उसको कोई फिक्र नहीं होती है, चिंता और शोक नहीं होता है। जो अन्यायवृत्ति से रहता है उसे चिंता और शोक क्षणक्षण में सताते रहते हैं।
यथार्थ आनंदलाभ का उद्यम―भैया ! क्या चाहिए तुम्हें? आनंद ना? आनंद तो ज्ञान की स्वच्छता से मिलेगा। सोना,चाँदी से आनंद का रस निकलता हुआ कभी किसी ने देखा है क्या? यदि देखा हो तो बतावो।वहाँ पर भी यह जीव कल्पित मौज मनाता है। मौज एक ज्ञान की कल्पनारूप उपयोग से उत्पन्न होता है, उस धन से मौज नहीं उत्पन्न होता है। अपनी अनंतनिधि को भूलकर साधारणसी कल्पित निधि में अपना उपयोग जमाया है, उससे आनंद में बाधा ही डाली है, आनंद नहीं लुटा है। हम सबका कर्तव्य है कि छुटपुट बातों पर ध्यान न रखकर जैसे इस एक शुद्ध ज्ञान का ही हमारा विकास हो, उसका ही हमें उद्यम करना चाहिए। अध्ययन करें, स्वाध्याय करें, परिणामों को निर्मल रक्खें तो इस उपाय से उद्धार का मार्ग मिलेगा।
अनशनऊनोदर तप करने पर भी पर्यायबुद्धि का खेद―मोक्ष में साक्षात् कारण अपने आत्मा के आश्रय होने वाला सहज भाव है। अपने को ज्ञानमात्र अनुभव में जो नहीं ले सकता ऐसा पुरुष निर्ग्रंथ दिगंबर साधु होकर और बड़ी-बड़ी तपस्यायें करके भी इस परमावश्यक अमूर्त तत्त्व को प्राप्त नहीं कर सकता है। बाह्य तत्त्व भी कितना दुर्धर काम है कि अनेक साधुजन दो चार दिन भी नहीं, 6 माह तक का भी लगातार निर्जल उपवास कर लिया करते हैं। आज न हों इतनी ऊंची तपस्या के साधक, किंतु निकट पूर्व में कभी थे। भूख से कम खाना भी एक बड़ा तप है। कम नहीं खाया जा पाता, पेट भरने के बाद भी कोई इस बात का खेद करते हैं कि यह मटका भर गया, नहीं तो और खा लेते। ऐसी दृष्टि वाले मोही जगत में पेट से कम खाना भी कितना बड़ा तप है? साधुजन कहो एक ग्रास ही लें, दो चार ही ग्रास लें, इस तरह वे सूक्ष्म भोजन करते हैं और 32 ग्रास से कम ही ग्रास लेते, ऐसा उत्कृष्ट तपश्चरण भी करते, पर हाय रे मोही प्राणी, पर्याय बुद्धि हो जाय कि मैं साधु हूँ,मुझे तप करना चाहिए, ऐसा सोचे तो उसका मोक्षमार्ग रुद्ध हो जाता है।
रसपरित्याग तपकरके भी पर्यायबुद्धि का खेद―मोक्ष अथवा मोक्षमार्ग क्या बाहरी चेष्टावों से मिलेगा? अरे ! वह तो ज्ञान में मिलेगा। पर ज्ञान का प्रकाश उत्कृष्ट रूप से तब ही हो सकता है जब ज्ञान के बाधक परिग्रह, जो कि ममता के साधन हैं, न रहें। निर्ग्रंथ दिगंबर भेष में रहकर मोक्षमार्ग की साधना बन सकती है लेकिन कोई उस दिगंबर भेष से ही प्रेम करने लगे और शरीर की बुद्धि में अटक जाय तो वहाँ मोक्षमार्ग नहीं मिलता है। रसपरित्याग भी कितना कठिन तप है? रस का त्याग करना तो दूर रहो, रसीले मिष्ट पकवान के खाने की ही धुन बनी रहती है। ऐसे इस मोही जगत में रसपरित्याग भी कितना दुर्धर तप है? वैसे हिसाब सबका एकसा ही बन जाता है। आप चार दिन पकवान खायें तो 8 दिन मूंग की दाल पर ही रहना पड़ेगा। हिसाब सब बराबर हो जायेगा, पर यह मोही जीव अपने विवेक का संभाल कर नहीं रखता। बारहों महीने सात्त्विक भोजन खायें, रसीले व्यंजन न खायें तो कोई हरज नहीं है पर कितना अज्ञान है कि मिष्ट, स्वादिष्ट, रसीले चीजें खायें बिना चैन नहीं पड़ती।
विविक्तशय्यासन से पर्यायबुद्धि को अलाभ-एकांत निवास भी बड़ी तपश्चर्या है। यह तपश्चरण भी बड़ा महत्त्व रखता है। विषयों की दृष्टि में आत्मा कायर हो जाता है, ज्ञानबल घट जाता है, शांति और आनंद के लिए यह मोही जीव विषयों का प्रसंग जुटाता है, किंतु फल उल्टा निकलता है, क्लेशजाल ही बढ़ता है। ये बाह्य तपश्चरण भी बड़ा महत्त्व रखते हैं, लेकिन धन्य है यह आत्मज्ञान जिसके बिना इतने दुर्धर तप करके भी इस संसार में ही भटकना पड़ता है। कितने बड़े दुर्धर क्लेश साधु सहते हैं?
विविध कायक्लेश तप करने पर भी पर्यायबुद्धि का खेद―साधुजन शीतकाल में जहाँ कि झंझावात चल रहा है, नदी के किनारे अथवा किसी मैदान में अविचलरूप से एक आसन मारकर आत्मा की सुध के लिये यत्न करते हैं। ग्रीष्मकाल में जहाँ घर के बाहर पैर भी रखना कठिन पड़ता है, साधुजन पहाड़ की शिखर पर, छायारहित प्रदेश पर अपने आसन को स्थिर करके तपश्चरण करते हैं। ऐसे भी अनेक तपश्चरण किए जाते हैं। इन बाह्य तपों में निरंतर उत्सुकता भी बढ़ रही है, किंतु जो तपस्वी निरपेक्ष नहीं है, अर्थात् शुभभाव का आलंबन होने से यह परभाव के अधीन हुआ है उसे स्ववश नहीं करते हैं। उसके कर्तव्य को आवश्यक कर्तव्य नहीं कहते हैं। कोई पुरुष किसी परवस्तु के स्नेह से बँध जाय और कोई अपने आपमें जो रागद्वेषादिक भाव हैं उनसे बंध जाय, जीव बंधता रागद्वेष से ही है, परवस्तु से नहीं बँधता है और कोई अपने आपमें जो धर्म के नाम पर दया, दान, तप, भेष जो कुछ मानता है उसके भाव में ही बँध जाय तो ये सब परतंत्र जीव हैं। परतंत्रता भावों से होती है। जिसका उपयोग स्व की ओरलगा है, वह शरीरादिक के अनेक बंधनों में पड़ा हुआ भी स्वतंत्र है। जिसका उपयोग परद्रव्य और परभाव की ओर लगा है वह धर्म के नाम पर बड़े कठिन तपश्चरण भी करे तो भी वह परतंत्र है। मोह में साधुभेष का भी नाटक किया जा सकता है।
आत्मज्ञान के बिना तपश्चरण करके भी लाभ का अभाव―यद्यपि यह बात निर्विवाद है कि साधु भेष में आए बिना निर्वाण नहीं होता है, उत्कृष्ट धर्मध्यान और शुक्लध्यान नहीं किया जा सकता है, पर ऐसे भेषमात्र से ही तो निर्वाण नहीं हो जाता। जो निरपेक्ष तपोधन निश्चय से निज परमात्मतत्त्व में विश्रांति लेता है, अपना स्वात्माश्रित धर्मध्यान और शुक्लध्यान को जानता है वही स्ववश है, स्वतंत्र है। उसके ही परमावश्यक काम होता है। अरे ! एक आत्मज्ञान बिना ऊँचे तपश्चरण करने का फल क्या होगा? अधिक से अधिक स्वर्ग में उत्पन्न हो जायेगा। क्या स्वर्ग में क्लेशों से बच जायेगा यह जीव? यद्यपि वहाँ खानेपीने,ठंडगर्मी का क्लेश नहीं है, वैक्रियक शरीर है, पर सबसे अधिक क्लेश तो मन का हुआ करता है। लोग शारीरिक सुख की दृष्टि से स्वर्ग की उत्सुकता मानते हैं, स्वर्ग मिल जाय, वह तो स्वर्ग ही गया होगा, पर यह नहीं जानते कि स्वर्ग में इस लोक से भी अधिक क्लेश संभव है। जैसे यहाँ लखपति धनी पुरुष बड़ी मौज में हैं, पर तृष्णा ऐसी बसी है कि उनके आगे जो दूसरे धनी हैं उनको देखकर मन में क्लेश बना ही रहता है। कहां वहाँ सुख है?
यहाँ के संपन्नजनों के क्लेश से देवों के क्लेश का अनुमान―भैया !यहीं देख लो,एक भिखारी से लेकर करोड़पति तक के प्राय: सभी लोग दु:खी मिलेंगे। दृष्टि डाल लो ऊँचे से ऊँचा धनी हो, उसकी चर्या निरख लो,सुखी कोई न मिलेगा। सुख संपदा से नहीं होता। आनंद तो ज्ञान से प्रकट होता है। आनंदमय जो स्वयं है उस स्वयं के परिचय से ही आनंद प्रकट होता है। देखिये―आपका किसी पर यदि 40 हजार का कर्जा है, आपको इतना उससे लेना है और वह गरीब हो जाय, पंचायत करे। लोग यह तय कर दें कि तुम इनसे 100) रु. लेकर फारकती लिख दो,39 हजार 900 छोड़ दो तो आप वहाँ क्या यह नहीं कह देते कि मुझे ये 100 रुपये भी न चाहियें। यों ही जब आपने अनेक भवों में अरबों, खरबों की संपत्ति को पा करके भी छोड़ दिया तो अब इस थोड़ीसी संपदा की भी क्या इच्छा कर रहे हो? अब इस तुच्छ संपदा में क्या तृष्णा करना और यहाँ भी प्रकट देख ही रहे हैं कि सब कुछ किसी दिन छूट जायेगा इससे ही अनुमान कर लो कि स्वर्गों में काहे का आनंद है? क्लेश परंपरा यहाँ भी है। वे निरंतर अपने से अधिक वैभव बालों को निरखकर मन ही मन कुड़ते रहते हैं, जलते रहते हैं।बड़े देव छोटे देवों पर हुकूमत करके दु:खी होते हैं और छोटे देव दूसरों की हुकूमत पाकर दु:खी होते हैं। वहाँ भी कौनसा सुख है? आत्मज्ञान बिना जो तपश्चरण किया जाता है उससे मानो स्वर्ग मिला जो कि शुभोपयोग का फल है। वहाँ शुभ राग के अंगारों में तपता रहा। कितनी मूढ़ता है वहाँ? देवों में और देवियों में उनके शरीर में हाड़, मांस, खून, रज वीर्य कुछ नहीं है। अच्छा वैक्रियक शरीर है, बड़ा रूपवान देह है, फिर भी वे काम वासना में मस्त त्रस्त रहते हैं।
परम गुरु के प्रसाद का लाभ―इन जीवों की संसार सीमा निकट आए, आसन्नभव्यता का गुण प्रकट हो तब ही इसे परमगुरु का लाभ प्रकट होता है। सच्चे गुरु की प्राप्ति होना समस्त पुण्यों में महान पुण्य का फल है। गुरुजन निरपेक्ष बंधु होते हैं। मित्रजन, परिजन तो किसी स्वार्थ के माध्यम पर अपना स्नेह जताते हैं, किंतु गुरुजन तो एक आत्महित की स्पृहा से ही लोक के भले की बात के प्रतिबोधन से ही वे जगत का उपकार करते हैं। कोई निकटभव्यता आए, होनहार निकट ही अच्छा होने की हो तो परम गुरु का प्रसाद मिलता है। लोग कहते हैं कि गुरु जिस पर प्रसन्न हो जायें उसका भला हो जाता है। गुरु प्रसन्न वहाँ ही होते हैं जिस शिष्य को गुण रुचे हों। स्वयं गुरु आत्मगुण में रुचि रखता है अत: ऐसे शिष्य को देखकर प्रसन्न हो जाता है। इस प्रसन्नता में उसके मन, वचन, काय की चेष्टा इस प्रकार होती है कि वे शिष्यजन आराम से ही कोई ऐसी कुंजी पा लेते हैं कि जिससे निज परमात्मतत्त्व के दर्शन में अटक नहीं रहती है। जिसका होनहार निकटकाल में ही उत्तम हो उसे परम गुरु के प्रसाद का लाभ होता है। उस प्रसाद से इस परमात्मतत्त्व का श्रद्धान, परिज्ञान और अनुष्ठानरूप शुद्ध निश्चय रत्नत्रय के परिणमन में उत्साह जगता है, यह निकट भव्य ही निर्वाण को प्राप्त होता है।
यथार्थरुचि के विषय का निर्वाचन―देखो भैया !खुद का खुद ही में घुलमिल जाना है? इतना सस्ता सीधा काम, स्वाधीन काम कितना विकटपहाड़सा जँच रहा है और जिस परवस्तु में हम त्रिकाल भी घुलमिल नहीं सकते उसमें घुलनेमिलने का काम कितनाआसान जंच रहा है? निज ब्रह्म में ही लीनता हो तो इसका कल्याण हो सकता है। बाह्यपदार्थ में स्नेह जगे यह तो दावानल में जलभुनकर खत्म होने के समान है,किसमें स्नेह करते हो? जो पवित्र हो, पूज्य हो, जिस स्वरूप में हित है उस स्वरूप का जहाँ विकास हो उसमें स्नेह करिये। इस घिनावने शरीर में क्या स्नेह किया जाय? जो अपनी ओर से विरुद्ध परिणमन करे उसमें स्नेह करना फालतू है। जगत के ये सभी जीव मुझसे विरुद्ध परिणमन करने वाले हैं, किसमें दिल कब तक साधोगे, किसकी कषाय कब तक पूरी करोगे? दिल साधतेसाधते भी तो रोज-रोज दिल बिगड़ता है, किससे स्नेह किया जाय? स्नेहरहित ज्ञानप्रकाशमात्र निज सहजस्वरूप में रुचि जगावो। यह ही पुरुषार्थ आत्महित के लायक है। इस ही आत्मपरिणति से निर्वाण प्राप्त होगा।
वैमानिकता में भी सार का अभाव―हे कल्याणार्थी जनो ! संसार की चारों गतियों में क्लेश ही क्लेश है,उसकी रति छोड़ो। स्वर्ग लोक का भी प्रेम छोड़ो, वहाँ भी क्लेश ही क्लेश है। आखिर वहाँ से भी च्युत होकर इस भूलोक में ही जन्म लेना पड़ता है। लोक में एक प्रसिद्धि है कि तपस्या करके जीव बैकुंठ में पहुंचता है और चिरकाल तक बैकुंठ में रहकर फिर वहाँ से कोई शक्ति ढकेल देती है, फिर संसार में जन्ममरण करना पड़ता है। इसमें मर्म और है क्या? यह मर्म कि यह मनुष्य साधु बनकर निर्ग्रंथ भेष रखकर बड़ी ऊँची तपस्या करे किंतु ब्रह्मज्ञान न हो, आत्मसुध न हो, पर्यायबुद्धि बनी हो, मैं साधु हूँ,मुझे तपस्या करनी चाहिए, ऐसा उत्साहसहित तपश्चरण हो तो वह तप के प्रभाव से बैकुंठ में जन्म ले सकता है।बैकुंठ नाम है गैवेयक का। लोक की रचना में जहाँ इस मनुष्याकार लोक में कंठ का स्थान पड़ा वहाँ से यही महाशक्ति बैकुंठ का ही नाम ग्रीवा है। ये साधु बाह्य तपस्या करके बैकुंठ में पैदा होते हैंऔर उसे कहते हैं बैकुंठ। जो छिपी हुई शक्ति थी, यह इसे नीचे ढकेल देती है और संसार में जन्ममरण लेना पड़ता है। स्वर्ग के प्रति भी क्या स्नेह करें? हे कल्याणार्थी जनो ! स्वर्ग की भी प्रीति तज दो और निर्वाण का कारण जो शुद्धोपयोग है उसका आश्रयभूत जो निज सहज परमात्मतत्त्व है उसकी निरंतर उपासना करो।
निष्पक्ष अनुभवरूप पुरुषार्थ का निर्देशन-यह परमात्मतत्त्व परमानंदमय है। इसमें सर्वत्र निर्मल ज्ञान का विकास है यह सहजज्ञानस्वरूप निरावरण है, किंतु यह आत्मतत्त्व किसी पक्ष दृष्टि को रखकर अनुभव में नहीं आता है। मैं मनुष्य हूँ,मैं अमुक कुल का हूँ,इस प्रकार की जब तक दृष्टि है तब तक यह आत्मतत्त्व अनुभव में नहीं आता है। कहां जाति है, कहां कुल है? वह तो मनुष्य भी नहीं है, देवता भी नहीं है, कोई जंतु प्राणी भी नहीं है, वह तो केवल ज्ञानपुंज है। ऐसी शुद्ध दृष्टि मेंदेह ही नहीं रहता तो अन्य पक्षों की तो चर्चा ही क्या करें? समस्तपक्ष इस देह के देखने से उत्पन्न होते हैं, समस्त नाते समस्त रिश्तेदार, इस देह को ‘यह मैं हूँ’ऐसा मानने से बनते हैं। समस्त विपत्तियां और विडंबनावों की जड़ इस देह की बुद्धि है,जो देह परिजनों के द्वारा किसी दिन बेरहमी के साथ जला दिया जायेगा। इस देह में जो आत्मबुद्धि लगी है बस यह कुबुद्धि ही समस्त विडंबनाओं का मूल है। किसी क्षण यदि देहरहित केवल ज्ञानपुंज आत्मतत्त्व का अनुभव करो तो संसार के सारे संकट नियम से कट जायेंगे।किसी भी नाम पर पक्षपात न करो और आत्मतत्त्व के नाते से आत्मस्वरूप को जानकर आत्ममग्न होने का अपना पुरुषार्थ बनावो, यह व्यवसाय ही हमारा सत्य पुरुषार्थ है और हमें आनंद पद में पहुंचा देगा, अन्य सब रागद्वेष की चेष्टाएँ केवल विडंबनामात्र हैं।