वर्णीजी-प्रवचन:नियमसार - गाथा 146
From जैनकोष
परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं।
अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भणंति आवासं।।146।।
जो श्रमण परभाव को त्यागकर निर्मल स्वभाव वाले आत्मा को ध्याता है वह ही वास्तव में आत्मवश है, स्ववश है, अवश है और ऐसे ही श्रमणश्रेष्ठ के आवश्यक कर्म होता है, ऐसा भगवंतदेव ने कहा है।
पर, परभाव व परोपाधिजभाव से विविक्त आत्मभाव का ध्यान―आत्मा में वे परभाव कौन-कौन हैं जिनका विकल्प तोड़ना है और वह निजभाव कौनसा है जिसका आलंबन करना है?परभाव के अनेक अर्थ हैं, भाव का नाम पदार्थ भी है। परभाव अर्थात् पर-पदार्थ। एक अपने आत्मतत्त्व को छोड़कर, आत्मपदार्थ को छोड़कर जितने भी अन्य पदार्थ हैं वे सब परभाव हैं। यथा―धन,संपदा,परिजन,कुटुंब,देह,मित्रजन आदि। परभाव का दूसरा अर्थ है पर का भाव। जो परपदार्थ हैं उनका जो परिणमन है, स्वरूप है वह भी परभाव है। ये परभाव उन्हीं परपदार्थों में तन्मय हैं। परभाव का तीसरा अर्थ है पर-उपाधि के निमित्त से जायमान विरुद्धभाव, विभाव। ये परभाव रागद्वेष मोहादिक हैं, ये परभाव औदयिक भाव हैं। इन परभावों का परित्याग करके यह योगी आत्मस्वभाव को ध्याता है।
क्षायोपशमिक विलासों से विविक्त आत्मतत्त्व का ध्यान―अब इन परभावों से भी और अंत:परभावों को तकिये आत्मा में जो विकल्प,वितर्क,विचार,छुटपुट ज्ञान उठते हैं वे भी आत्मा के निजभाव नहीं हैं। ये कर्मों के क्षयोपशम का निमित्त पाकर आत्मविकास रूप भाव हैं, यह है क्षायोपशमिक भाव। अब इससे और अंत: चलिए। तो आत्मा में जो मिथ्यात्व आदिक प्रकृतियों के उपशम से उपशम सम्यक्त्व अथवा चारित्र मोह के उपशम से उत्पन्न हुआ औपशमिक चारित्ररूप भाव है यह भी परभाव है। यद्यपि यह औपशमिक भाव आत्मा का एक विकास है किंतु इस भाव का आविर्भाव कर्म के उपशम को पाकर होता है और उपशम होने पर इसकी जितनी स्थिति हो सकती है उतनी गुजरने पर यह उपशम भाव मिट जायेगा। इस कारण यह औपशमिक भाव भी परभाव है।
क्षायिकभाव से विविक्त आत्मभाव का ध्यान―अब और अंत: चलिए। तो कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला जो क्षायिक भाव है यह भाव यद्यपि आत्मा का शुद्ध विकास है, कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने के कारण इस भाव का फिर कभी अभाव भी नहीं होता है, क्योंकि कर्मों का क्षय भी सदा के लिये हो चुका है। अब कोई भी कर्म प्रादुर्भूत न होंगे और न यहाँ किसी प्रकार का विकार भी आविर्भूत होगा। इतनी शुद्धता है किंतु भाव की दृष्टि सापेक्ष है, क्षायिक भाव याने कर्मों के क्षय से उत्पन्न होने वाला परिणाम। इस प्रकार क्षायिकता के नाते से यह क्षायिक भाव भी परभाव है। इन समस्त विकल्पों का परित्याग कर जो श्रवण निजभाव में अपना उपयोग लगाता है, उसका ही आश्रय लेता है उसके ही परमआवश्यक काम होता है।
आत्मा का सहज निजभाव―वह निजभाव क्या है जिसके आश्रय में परमावश्यक होना है? वह है चित्स्वभाव, परमपारिणामिकभाव, सहजस्वरूप। यह सहज चैतन्यभाव किसी पर की अपेक्षा से नहीं है, न किसी पर की सत्ता से प्रादुर्भूत होता है, न पर के वियोग से प्रादुर्भूत होता है। यही आत्मा का शाश्वत प्राण है अथवा स्वभाव स्वभाववान् में भेद नहीं होता है। स्वभाव स्वभाववान् से अलग नहीं है, फिर स्वभाव को किसी भी दृष्टि से स्वभाववान् से भिन्न प्रतिपादन करना, धर्मधर्मी की रीति भी बताना, यह सब व्यवहार का प्रतिपादन है। व्यवहार से ही यहाँ अखंड वस्तु को खंड करके समझाया गया है।
व्यवहार से पारंगत निजभाव के ध्यान में आवश्यक―भैया ! व्यवहार के दो काम होते हैं, जोड़ करना और तोड़ करना।जोड़ करना यह तो व्यवहार की जघन्य दृष्टि है और तोड़ करना यह व्यवहार की उससे उत्कृष्ट कक्षा की दृष्टि है, फिर भी जोड़ करना और तोड़ करना―ये दोनों ही व्यवहार हैं। जैसे जो आत्मा के भाव नहीं हैं, परभाव है, रागद्वेषादिक हैं उन्हें आत्मा में जोडना ये रागादिक आत्मा के हैं, ऐसा बताना यह जोड़रूप व्यवहार है और आत्मा में ज्ञान, दर्शन, श्रद्धा, चारित्र, आनंद आदिक गुण, ये अभेदरूप हैं। इनमें आत्मा शाश्वत तन्मय है, फिर भी प्रतिबोध करने के लिए हमें तोड़ करके कहना पड़ता है। जैसे आत्मा में ज्ञान,दर्शन,श्रद्धा,चारित्र आदिक अनंत गुण हैं, यह तोड़रूप व्यवहार है। इस परमपारिणामिकभाव में जो जोड़ लगावे, तोड़ लगावे ऐसी पद्धति न बनाकर, किंतु स्वयं निरपेक्षता का प्रयोग करके अपने अनुभव में उतारे, वहाँ जो कुछ इसे अनुभूति होती है वह निजभाव है। ऐसे निजभाव को जो योगी ध्याता है वह आत्मवश है, अपने अधीन है अर्थात् स्वतंत्र है। उसके ही ये समस्त आवश्यक कर्म होते हैं।
परमजिन योगीश्वर का स्वरूप―इस गाथा में ऐसे योगीश्वर का स्वरूप कहा गया है जो रागद्वेषादिक विभावों को जीतने वाला है और एक सहज चैतन्यप्रकाश के अतिरिक्त अन्य किसी भी तत्त्व का आलंबन नहीं ले रहा है, ऐसा साक्षात् अवश परमजिनयोगीश्वर का इसमें स्वरूप कहा गया है। ऐसा शुद्ध जिसका उपयोग है, इस सहजस्वरूप में रम रहा हो, जिसे इस शुद्ध आत्मतत्त्व के दर्शन के सिवाय अन्य कुछ भी न रुचता हो, यही साधु परमेष्ठी है, पूज्य है, आराध्य है, उपास्य है, ऐसे योगीश्वर का ज्ञान द्वारा सत्संग करने में वह फल मिलेगा जो इस योगीश्वर को असीम आनंद मिला है। यह योगीश्वर निरुपराग निरन्जन स्वभाव को उपयोग में लिए हुए है। इसके देह लगा है, पर देह की इसके दृष्टि ही नहीं है, देह का कुछ ख्याल ही नहीं है, हमारे देह भी लगा है इतना तक भी विकल्प नहीं है, यह तो रागद्वेषरहित केवल ज्ञानप्रकाशमात्र अपने आपमें अनुभवा जा रहा है।
सहजनिजभाव की मनोवाक्कायागोचरता-यह परमजिन योगीश्वर औपशमिक आदिक भाव का परित्याग करके ऐसे निर्मलस्वभाव का ध्यान करता है जिसका ध्यान काय की क्रियावों के व वचनों के अगोचर है। शरीर द्वारा जो क्रियाकांड किये जाते हैं धर्म के प्रसंग में भी वे क्रियाकांड एक शुद्धभाव के अनुमापक हैं, किंतु वे शुद्ध ध्यान के साधन नहीं हैं। कोई पुरूष अपने आप में अपने सहजस्वरूप का ध्यान दृढ़ बनाये रहता हो, और उसको कदाचित् शरीर धर्म के कारण बाह्य में कुछ क्रियाएँ करनी पड़ती हैं तो वे क्रियायें इस प्रकार होती है कि वे सब आत्मशुद्धि के अनुमापक हैं। जैसे जो पुरूष अन्याय करता हो, अभक्ष्य खाता हो, अयोग्य आचरण करता हो तो यह अनुमान होता है कि इसे धर्म की श्रद्धा नहीं है। धर्म की श्रद्धा न होना यह भीतर के परिणामों का कार्य है, बाह्यप्रवृत्ति का नहीं है, किंतु वह बाह्य प्रवृत्ति उस अश्रद्धा का, मिथ्यात्व का अनुमापक है। इस ही प्रकार ज्ञानियों का यह समस्त चरणानुयोग, चारित्रपालन साधुवों की अंतरंग स्वच्छता का अनुमापक है। आवश्यक कर्म अथवा कर्म विनाश का साधनभूत परिणाम इस अंतरंग में ज्ञायकस्वरूपक उपयोग है। यह ध्यान काय को क्रियावों के द्वारा नहीं हो सकता है। इस ध्यान के लिए कुछ पात्रता विवेकी मन से जगती तो है, किंतु इस मन का भी कार्य निरावरण निरुपमज्ञायकस्वरूप का अनुमान कर देना नहीं है, किंतु इस ज्ञायकस्वरूप का अनुभव जगता है तब वह मन उस परिणमन प्रसंग से अलग हट जाता है।वहाँ केवल इस निरपेक्ष उपयोग का इस निरपेक्ष स्वभाव में मिलन होता रहता है, ऐसे निरावरण निर्मल स्वभाव का जो योगीश्वर ध्यान करता है, वही वास्तव में स्वतंत्र है, स्ववश है।
आत्माश्रयण की शिक्षा―इस प्रकरण से हमें यह शिक्षा लेनी है कि हम जानबूझकर अपने श्रम से कितनी परतंत्रता बढ़ाये चले जा रहे हैं, बाह्यपदार्थों का विकल्प मचाकर परतंत्र बने हैं और अपने आपमें उठने वाली कषायों को अपनाकर परतंत्र बने हैं, इन विषयकषायों के परिणामों से रहित एक ज्ञानप्रकाश ही जहाँ विस्तृत हो रहा है ऐसे ज्ञानप्रकाशमात्र अपने आपका आश्रय हो तो वह आत्मा स्वतंत्र है, ब्रह्मज्ञ है, ब्रह्मनिष्ठ है, आत्ममग्न है। जो आत्ममग्न पुरुष है वही वास्तव में स्वतंत्र है। इस स्वतंत्रता के बिना, इस आजादी के बिना समस्त पापरूप बैरी अपनी विजय-पताका फहरा रहे हैं अर्थात् इस जीव में ये सर्वविषयकषायों के पाप स्वच्छंद उमड़ रहे हैं और इसे बरबाद किए जा रहे हैं। इन समस्त बैरियों की सेना की पताका को ध्वस्त कर देने में समर्थ यह कारणसमयसार का ध्यान है। जहाँ शुद्ध विधि से निज ब्रह्मस्वरूप का आलंबन लिया वहाँ कोई पाप नहीं ठहर सकता है। इस प्रकार जो आत्मस्वभाव का ध्यान करता है वही वास्तव में आत्मवश पुरुष है। ऐसे ही पुरुष के यह परमआवश्यक कर्म होता है अर्थात् ज्ञातादृष्टा रहनेरूप अंत:क्रिया उसके ही प्रकट होती है।
योगीश्वर का उत्तरोत्तर उन्नतपदनिवास―यह योगीश्वर व्यवहारश्रद्धान,व्यवहारज्ञान,व्यवहारचारित्र के प्रसाद से इससे भी ऊँचे चलकर निश्चयश्रद्धान, निश्चयज्ञान और निश्चयचारित्र की पदवी में आया है और यह भी भेदोपचाररूप रत्नत्रय से उठकर एक अभेद अनुपचाररूप रत्नत्रय में आया है, ऐसे पावन श्रमण के यह महान् आनंद का देने वाला निश्चयधर्मध्यान और निश्चयशुक्लध्यानरूप आवश्यककर्म होता है। यह ज्ञानाश्रयरूप पुरुषार्थ समस्त बाह्य क्रियाकांडों के आडंबर से अतीत है नाना विकल्प कोलाहलों का प्रविपक्षभूत है। ऐसा उत्कृष्ट ज्ञान रखने वाला साधुपुरुष कैसा श्रद्धानी है कि जिनेंद्रमार्ग से ही चल रहा है, अपने व्रत,तप क्रियावों में सहज सावधान बन रहा है, फिर भी इसकी दृष्टि इन समस्त क्रियाकांडों से पार होकर एक निज सहज ज्ञानस्वभाव में ही रमती है, ऐसे ही योगीश्वर के यह परमआवश्यक कर्म होता है।
निश्चय परमावश्यक कार्य―इस अधिकार में निश्चय से उत्कृष्ट काम क्या है, उसका वर्णन किया जा रहा है। आवश्यक का अर्थ अन्य भाषा के अनुवाद में ‘‘जरूरी’’ कहा गया है, पर जरूरी अर्थ तो फलित अर्थ है, व्युत्पत्तिक अर्थ नहीं है। आवश्यक शब्द में मूल में तो ‘अ’ और ‘वश’ ये दो शब्द हैं। जो किसी भी परतत्त्व के वश में नहीं है ऐसे पुरुष को अवश कहते हैं। उसके प्रवर्तन को आवश्यक कहते हैं अर्थात् आत्मकल्याण के लिए जो अंत: शुद्ध पुरुषार्थ चलता है वह है आवश्यक काम। यह ही है कल्याणार्थी पुरुष का जरूरी काम। बाकी सब काम अनावश्यक है।
मोहनिद्रा के स्वप्न का एक दृष्टांत―जिन्हें लोग अधिकाधिक चाहते हैं, धन,संपदा,परिजन,मित्रजन,यश,प्रतिष्ठा ये सब अनावश्यक चीजें हैं। ये सब मोहनिद्रा में देखे गये स्वप्न हैं। जैसे नींद में किसी को खराब स्वप्न आ जाय, जंगल में फंस गये हैं, सिंह सामने आ गया है, वह हमला करना चाहता है, ऐसा स्वप्न दिखे तो वह पुरुष कितना घबराता है, कितना कष्ट पाता है? पड़ा हुआ है वह अपने घर के सजावट वाले कमरे में, सोया हुआ है वह कोमल गलीचों पर,वहाँ न सिंह है, न जंगल है, किंतु स्वप्न में कल्पना आ गयी जंगल की और भयानक सिंह की, सो उसके बड़ी तीव्र वेदना चल रही है। उसकी नींद खुल जाय तो उसका सारा भय काफूर हो जाता है, सब भय नष्ट हो जाता है। उसे स्पष्ट यह प्रतीत होता है कि कहाँ है यहाँ सिंह, कहां है यहाँ जंगल, यह तो मैं अपने ही घर में स्वरक्षित बसा हुआ हूँ।
मोहनिद्रा का स्वप्न―ऐसे ही जिन्हें मोह की निद्रा आयी है उसे इस मोहनींद के स्वप्न में सब दृश्य दिख रहे हैं कि यह घर मेरा हैं, परिजन मेरे हैं, यह वेदना आयी है। धन कम हो गया है, यह बड़ा संकट है, ये लोग अनुकूल नहीं चलते हैं, आज्ञा नहीं मानते हैं। जिस जीव से पूछो, जिस मनुष्य से पूछो प्राय: वह अपना कोई न कोई दु:ख उपस्थित करता है, मुझे बड़ा क्लेश है। क्लेश की चर्चा सुनो तो वह यही कहेगा कि परवस्तु का यों परिणमन हो रहा है। अरे ! हो रहा है तो होने दो, परिणमन तो किसी का रुकता नहीं है, पर का जो परिणमन है चलने दो, उसमें उसकी कौनसी बाधा आती है लेकिन इस मोही जीव ने जो परवस्तुवों को अपना रक्खा है, उसके कारण क्लेश ही क्लेश हम पर गुजरता है। यह सब मोह की नींद का स्वप्न है। कभी गुरुप्रसाद से यह मोहनिद्रा भंग हो जाय और इस ज्ञाननेत्र से स्पष्ट तत्त्व अनुभव में आ जाय, ओह ! यह मैं आत्मा तो केवल ज्ञानानंदस्वभावमात्र हूँ,इसके कहां मकान है, यह तो अमूर्त निज प्रदेशमात्र है, इसके कहाँ देह है, धन का कहाँ संबंध है? यह मैं तो अपने ही प्रदेशग्रह में स्वरक्षित बसा हुआ हूँ। इसे न कोई छेद सकता है, न कोई किसी शस्त्र से भेद सकता है, न आंधी तूफान इसे उड़ा सकती है, न अग्नि जला सकती है और न जल डुबो सकता है। यह आत्मा तो अमूर्त है, केवल ज्ञानानंदपुंज है,इस पर कहाँ विपदा है? जब यह अपने ही घर में बसा हुआ अपने आपको स्वरक्षित पाता है तोये समस्त क्लेश उसके दूर हो जाते हैं।
आत्मप्रतिष्ठापकों का जयवाद―जो ज्ञानी पुरुष है वह जो कुछ अपने आपमें अपने आपकी प्रतिष्ठा के लिए,अपने आत्मा के उपयोग में प्रसिद्धि के लिए जो अंतरंग में ज्ञानपुरुषार्थ करता है वह है आवश्यक काम, बाकी जगत में मोही जीवों ने जिन-जिन कामों का नाम आवश्यक रक्खा है वे सब अनावश्यक हैं। जो मुनि स्ववश है, आत्मवश है वह ही श्रेष्ठ है, वह जयवंत हो।
प्रमाद न होने देने की सावधानी―यह स्नेहभाव थोड़ा भी तो जगे फिर यह बढ़-बढ़कर इसे फिसला देगा। जैसे किसी रपट वाली जगह में थोड़ा भी तो पैर फिसले फिर यह रपट कर गिर ही जाता है। कोई थोड़ा फिसलने पर अपने आपको सावधान कर ले तो आसान काम है, पर वहाँ प्रारंभ में ही प्रमाद रहा, अपनी सुधबुध न रक्खी तो यह फिसलकर पूरा गिर पड़ता है, ऐसे ही जो ज्ञानी संत पुरुष हैं, कदाचित् उनके रागादिक भाव उमड़े भी तो वे तुरंत सावधान होते हैं। जो अपने आपमें उठे हुए रागादिक विभावों से भी राग नहीं रखते हैं और उन्हें हटाये जाने की कामना करते हैं ऐसे पुरुष किसी परपदार्थ में कहां परतंत्र हो सकते हैं? वह तो अपने आपमें उठे हुए रागादिक विभावों से भी राग नहीं रखता है और उन्हें हटाये जाने की कामना करता है, ऐसा पुरुष किसी परपदार्थ में कैसे परतंत्र हो सकता है? वह तो अपने आपमें उठे हुए रागादिक कलुष परिणाम के बंधन में नहीं है। हो रहे हैं रागादिक,उनके यह ज्ञात हो रहा है, यह सब इस सहज ज्ञायकस्वरूप के अनुभव का प्रसाद है।
अंतर्वृत्ति की सार्थकता―ज्ञायकतत्त्व का अनुभव तो न जगे और बाहर में ज्ञानीपुरुष जैसा इसका विधान करे तो उसका उत्थान नहीं हो पाता है। जो प्रकट समस्त मायाजालों को असार समझता है, जिसकी बाह्यवृत्ति भी उदारता का अनुमापक बन रही है, ऐसे पुरुष को अंतरंग में ज्ञान का आलंबन हुआ है ऐसा अनुमान होता है। मोह में तो फर्क न डाले, ममता में तो अंतर न करे, इंद्रिय के विषयों की अधीनता वैसी ही बनाये रहे, कुछ बोलनेचालने की कला पाकर विषयों में और अधिक फंस जाये, ऐसे पुरुष के न ज्ञानदृष्टि है और न इस आवश्यक कर्म की झलक भी है।
व्यवहारवृत्ति और अंत:पुरुषार्थ―हमें बहुत सावधान होकर चलना है; मोहममता पर विजय पाकर ज्ञानार्जन के लिए अपना ध्यान बढ़ाना है और इस गृहस्थावस्था में जो आचार्यदेवों ने षट्कर्म बताये हैं उन क्रियावों में भी रहते हुए हमें अपना अंत:पुरुषार्थ जगाना है। यह स्थिति ऐसी नहीं है कि इस गृहस्थ के षट् आवश्यक कर्मों को तिलांजलि देकर हम अपने में उन्नति बना सकें। जो व्यवहारधर्म के कर्तव्य हैं वे सब कुछ करके भी हमें शुद्ध दृष्टि जगाना है।
श्रमणश्रेष्ठ का जयवाद―जो श्रमण भेदविज्ञान के बल से समस्त परभावों से हटकर एक निज अभेद ज्ञायकस्वरूप में उपयोगी होता है उसके ही निश्चय परमआवश्यक है और ऐसे परमपुरुषार्थ में उद्यमी श्रमण, श्रमणों में श्रेष्ठ कहा गया है। इस श्रमणश्रेष्ठ के उत्तम उदार बुद्धि है। जगत के समस्त जीवों में एक स्वरूपदृष्टि करके समानता दृष्ट हुई है। भव का कारण तो इस ज्ञायकस्वरूप का अपरिचय था। अब निज आत्मतत्त्व का परिचय होने से संसार में रुलाने का कोई कारण नहीं रहा और इसी कारण भवभव के बाँधे हुए कर्म इसके नष्ट हुए जा रहे हैं। अब यह बहुत ही शीघ्र ज्ञायकस्वरूप सदा आनंदमय मुक्ति को प्राप्त करेगा। इसमें परमविवेक प्रकट हुआ है। ऐसे विवेकी मुनिश्रेष्ठ सदा जयवंत रहो, जिनके सत्संग से, जिनकी सेवा से पाप नष्ट होते हैं।
गुरुवचनपालन का सौभाग्य―स्ववश अध्यात्मयोगी गुरुजनों के वचन अलौकिक संपदा के कारण होते हैं। वे भाग्यहीन पुरुष हैं अथवा उनका होनहार अच्छा नहीं है जिनको गुरु के वचन रुचते नहीं हैं। जिन गुरुवों ने कामदेव को ध्वस्त कर दिया है, जो निरंतर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप और आत्मशक्ति के आचार में निरंतर वर्त रहे हैं, जिन्होंने इस आत्मदृष्टि के पुन: पुन: आलंबन और अभ्यास के द्वारा अनुपम आनंद का अनुभव किया है ऐसे गुरुजन निष्पक्ष,निर्दोष,रागविरोधरहित वर्तते हैं। उनकी मुमुक्षुजन भक्तिपूर्वक उपासना करते हैं। जो लोग दुष्ट प्रवृत्ति के होते हैं जिन्हें गुरुदर्शन व गुरुवचन नहीं सुहाते हैं वे हीनभाग्य हैं, उन्हें संसार में रुलना अभी शेष है। जो भक्तजन गुरुजनों के वचनों को सिर पर धारण करते हैं और बड़े विनय सहित उन वचनों का पालन करते हैं वे निकट काल में ही मुक्तिसंपदा को प्राप्त करेंगे। यह रागद्वेष के विजय का मार्ग मुक्ति का कारण है।
सम्यक् दर्शन में एकत्व का आश्रय―भैया ! इस जीव को अंत में अपने आपमें अकेले में ही रमण करना होगा तब इसे शांति मिलेगी। इस अलौकिक शांति का जिसने लक्ष्य बनाया है वह इस एक को ही चाहता है। एक ही है अंत याने धर्म अथवा स्वभाव जिसका, ऐसा यह एकांत आत्मा यही जिसका अभीष्ट है, प्रिय है, उसे जनसमुदाय से क्या प्रयोजन है? निर्वाण उसके ही प्रकट होता है जो अपने आपको सबसे न्यारा केवल ज्ञायकस्वरूप ही प्रतीत करता है और उसमें ही लगने का उद्यम करता है। सम्यग्दर्शन होने पर सब समस्त सम्यग्दृष्टियों का मूल में इस एक ही के आलंबन से पुरुषार्थ रहता है। परिस्थितियां जुदी-जुदी होने से भले ही कोई किसी वातावरण में है तो वह उतने की उपेक्षा करता है। किसी के चारित्र का विकास हुआ है तो वह कम संग में है, वह उस संग से उपेक्षा करता है, पर अन्य वस्तुवों से उपेक्षा करने का माद्दा समस्त सम्यग्दृष्टियों में स्वरसत: उत्पन्न होता है। मुनिजन केवलज्ञान, शौच और संयम के उपकरण के संग में हैं अथवा एक धर्मचर्चा के साधनभूत शिष्यजनों के, गुरुजनों के, सधर्मीजनों के संग में हैं, फिर भी वे इस समस्त संग में उपेक्षित रहते हैं। गृहस्थ लाखोंकरोड़ों की संपदा के वातावरण में हैं और वह उस समस्त संपदा से उपेक्षित रहता है। सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होने पर यह परम उपेक्षा परिणाम स्वभावत: उत्पन्न हो जाता है। यह जैनेंद्रमार्ग अर्थात् रागद्वेष पर जिसने विजय की है ऐसे योगियों के द्वारा बताया हुआ यह साधुमार्ग निर्वाण संपदा का कारण है। इसको प्राप्त करके ही पुरुष निर्वाण को प्राप्त होता है। ऐसे परमआत्मावों को हमारा बारंबार नमस्कार हो।
योगिभक्ति―हे योगिराज ! तुम्हारी पवित्रता को निरखकर अब लोक में अन्यत्र कहीं मन नहीं लगता है। रागद्वेष,मोह,कषायवान पुरुषों के संग में रहने में ज्ञानी पुरुषों का चित्त नहीं चाहता है। ये योगीजन स्ववश हैं, इनका आत्मा अडिग है। ये किसी भी विषय आदिक परतत्त्वों में बंधन मानने वाले नहीं हैं। ऐसे योगी सुभटों में भी जो श्रेष्ठ हैं, जिनके अब कनक और कामिनी की स्पृहा नहीं रही है, जो केवल इस शुद्ध ज्ञानप्रकाशरूप ही निरंतर वर्तना चाहते हैं ऐसे हे योगिराज ! तुम ही हमारे लिए शरणभूत हो। भक्तजन उन योगियों के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित कर रहे हैं।
शरणभूत योगिराज―गृहस्थजन उन योगियों के इस वीतरागतागुण को निरखकर, आनंदमग्न होकर अपने आपको सौंप रहे हैं। हम लोग विषयरूप, कायरूप, कषायरूप शिकारी के बाणों से छिदे हुए हैं, निरंतर वेदना से आर्त हैं, ऐसे हम लोगों को शरण हे योगिराज ! आप ही हो। इस लोक में एक यह विषय कषाय की वेदना ही विपदा है, अन्य कुछ विपदा नहीं है। संपदा कम हो गयी तो यह कौनसी विपदा है, किसी दिन तो सारा ही छोड़कर जाना है, फिर उसके कुछ कम होने का यहाँ क्या खेद करना? यदि कुछ थोड़ा बहुत कम हो रहा है तो कोई विपदा नहीं है। विपदा तो यह है कि संपदा कम होते देखकर उसके प्रति विकल्प बनाते हैं। ये विकल्प ही विपदा हैं। हे योगिराज ! आप बाह्य परिग्रहों से विरक्त हुए हैं और अंतरंग में भी किसी प्रकार की वांछा न होने से परिग्रह से पूर्ण विरक्त हैं, आपकी शांति, आपका संतोष आपके ब्रह्म की मग्नता―ये अलौकिक वैभव हैं। इस मायामयी जगजालों में रुलने को अब जी नहीं चाहता है। किससे बोलना, किसमें रमना, ऐसे ही तो सब हैं। हे नाथ ! हे योगिराज ! हमारे तो तुम ही शरण हो।
अंतस्तत्त्व की झांकी का संतोष―कुछ मुनिजन जो बाह्यक्रियाकांडों का निर्दोष पालन कर रहे हैं, जो 28 मूल गुणों का निरतिचार पालन कर रहे हैं, बहुत काल तक व्रत और दुर्धर तप की साधना करने पर भी जिन्हें संतोष नहीं मिला है, एक ब्रह्मस्वरूप के परिचय बिना जो इधरउधर आत्मा के अंदर ही उपयोग को भ्रमा रहे हैं ऐसे साधुजन जब परमआवश्यक के अधिकारी परमनिष्पृह योगिराजों के अंत:मर्म पर दृष्टि देते हैं और जब कदाचित् इन श्रमणों के भी ज्ञानप्रकाश जगता है तो वे आनंदमग्न होकर यह कह बैठते हैं―ओह ! इस अनशन आदिक दुर्धर तपश्चरण से क्या फल है? वे अपनी ही तपस्या के प्रति कह रहे हैं, जनरल नहीं कह रहे हैं। तपश्चरण भी एक कर्तव्य है, किंतु स्वयं को संतोष न होने पर और अब संतोष का मूल कारण जो स्वरूपपरिचय है उसके निकट आने पर स्वरूपभक्ति में मग्न होकर कह बैठते हैं कि इन दुर्धर तपश्चरण का फल केवल शरीर का शोषण है, अन्य कुछ नहीं है। ओहो ! मेरा जन्म तो सफल हुआ। हे योगिराज ! हे वीतराग संयमी पुरुषों ! हे वीतराग ज्ञानमय साधु ! तुम्हारे चरणकमल का जब मैंने ध्यान लगाया, तुम्हारे अंतरंग ज्ञानदर्शन पादों का जब मैंने मर्म जान पाया तब समझा कि मेरा जन्म सफल है।
योगभक्ति―हे स्ववश योगिराज ! तुम्हारा स्वरूप जिसके हृदय में विराजता है वह पुरुष धन्य है। संसार के संकटों से वह शीघ्र ही पार होगा। यह सब है योगभक्ति। योग का अर्थ है इस निर्दोष आत्मस्वरूप में अपने उपयोग को जोड़ देना। धन्य है वह पुरुष जिसका उपयोग इस शुद्ध आत्मतत्त्च में जुड़ने लगता है और जुड़ जाता है। वह पुरुष जयवंत हो, जिसके यह सहज तेज प्रकट हुआ है, जिसका उपयोग इस सहज तेज में ही मग्न हो गया है, जो केवल इस लोक का ज्ञाताद्रष्टा ही रहता है, अपने से भिन्न किसी भी अणु की अणुमात्र भी जिसके स्पृहा नहीं होती है। इन्होंने अपने इस ज्ञानरस के विस्तार द्वारा पापों को धो डाला है। पाप है मोह, पाप है राग और द्वेष। जिसने इस मोहादिक कलंकों को निर्मूल नष्ट किया है ऐसा योगराज इस लोक में जयवंत प्रवर्ते तो जगत का भी कल्याण है।
स्ववशता और समता का जयवाद―ये संत पुरुष समतारस से भरपूर हैं। इनके सद्वचन पुरुषों के हित के ही करने वाले हैं। इनके वचन पवित्र हैं। इन योगिराजों के चित्त में किसी भी जीव के प्रति रंच भी द्वेष नहीं है, और द्वेष तो होंगे ही क्या? किसी भी जीव के प्रति रंच राग भी नहीं है। कैसा यह निर्मल योगी पुरुष है, कदाचित् इसे करुणावश उपदेश भी करना पड़ता है, फिर भी रागद्वेष भाव से रहित निर्मल निज ज्ञायकस्वरूप का भान कर लेने से यह राग और द्वेष से रहित निर्मल ही बने रहते हैं। ऐसे योगियों की पूजा करने में हमारी कहां सामर्थ्य है? वास्तविक पूजा तो उन जैसा आचरण करने में ही बन सकेगी। ये मुनिराज सदा स्ववश हैं, इनका मन आत्म में ही जुड़ रहा है। अज्ञानीजन ही मन के वशीभूत होते हैं, कर्तव्य अकर्तव्य का कुछ भी ज्ञान नहीं कर पाते हैं और कल्पनावश जिसे हितकारी,सुखकारी माना उसकी ओर बढ़ जाते हैं। किंतु इन योगिराजों का मन शुद्ध तुला है। जैसे बालभर भी वजन शुद्ध तुला में छुपता नहीं है ऐसे ही ये परम विवेक के तराजू रूप मन वाले योगी संत हैं, ये शुद्ध हैं, सहज सिद्ध हैं, अपने आपके स्वरूप से ही जो निरंतर पुष्ट हैं, ऐसे योगिराज सदा जयवंत हों, ऐसा मेरे उपयोग में उनके गुण समाये रहें। जिससे यह मैं भी निष्पाप रहा करूँ और अपने शुद्धस्वरूप के अभ्युदय से अपने को कृतार्थ करूँ।
योगिराजों की जिनराज की निकटता―ओह ! ये योगिराज और 4 घातियाकर्मों को नष्ट करने वाले समस्त लोकों के जाननहार ये जिनराज,ये दोनों मेरे सामने रहो और जो ऊपरी अंतर है, योगिराजों के केवलज्ञान नहीं हुआ अथवा यह देह साधारण औदारिक है, वह देह परमनिर्दोष औदारिक है, इन सब परिणतियों की दृष्टि का भेद मत आये। ये योगिराज भी एक जिनराज ही हैं, इनसे मेरे में भेद करने वाली दृष्टि मत जगो। यह बात भक्त की निकल रही है अंतर्मर्म के स्पर्श में। मुझे भेद से क्या प्रयोजन है? जो अपना काम चाहते हैं, मोक्ष का मार्ग चाहते हैं उनकी दृष्टि से यह कहा जा रहा है। जो जड़ है अर्थात् इस शुद्ध ज्ञायकस्वरूप को अपनी रुचि में न लेने के कारणबाहरी दृष्टियों में अपना विस्तार बनाते हैं इसलिए उनके इसमें भेद आता है कि कैसे भेद नहीं है इनमें? ये अरहंत हैं, ये साधु हैं, ये घातिया कर्मों से दूर हैं, परमात्मा हैं, और अभी ये महात्मा हैं। ठीक है, भेद है, इसका मना नहीं किया जा रहा है, किंतु जिन्हें गुणों में रुचि जगी है और गुण विकास में उत्सुकता जगी है वे इन स्ववश योगियों की अंतर्दृष्टि की पहिचान कर उन योगिराजों की भक्ति में निरत यह योगी योगभक्ति कर रहा है।
अंतस्तत्त्वप्रकाश―यह स्ववश महामुनि ही एक धन्य हैं। यह शरीर मुनि नहीं है, किंतु यह ज्ञानपुंज वह ज्ञाताद्रष्टा रहने वाला आत्मा मुनि है। यहाँ मुनि को निरखा जा रहा है, देह को नहीं निरखा जा रहा है, फिर व्यवहार से देह को भी यदि निरखें तो इस देह देवालय में विराजमान जो यह महात्मा है, देव है,इसमें जो विशुद्धि जगी है, यह विशुद्धि फूटकर निकलकर इस देह में मुखमुद्रा पर,शरीरमुद्रा पर झलक उठी है और अब यह देह भी पवित्र हो गया है। रत्नत्रयधारी आत्मा के संवास के कारण इन साधुराज का देह भी पवित्र है। इस जन्म में ऐसा तो महामुनित्व है वह श्रेष्ठ है और धन्य है। जो समस्त कर्मों से बाहर ही ठहरता है, अंतस्तत्त्व का रुचिया रहता है, जिसका उपयोग, जिसका ज्ञान एक इस शुद्ध ज्ञानप्रकाश को ग्रहण करता है, मन, वचन, काय की चेष्टा को ग्रहण नहीं करता है, केवल एक निज भाव को ग्रहण कर रहा है, ऐसा यह मुनि स्ववश है, अपने आत्मा के ही अधीन है। इसकी बुद्धि अब किसी अन्य तत्त्व में नहीं टिक रही है।
आवश्यक और अनावश्यक के पात्र―इस योगिराज ने समस्त परपदार्थों को अथवा परपदार्थों के गुणों को अथवा परपदार्थों के परिणमन को और परपदार्थों का आश्रय पाकर कार्माण द्रव्य का निमित्त पाकर उत्पन्न होने वाले परभावों को त्याग दिया है और इस परमत्याग के फल में उनका ध्यान निर्मल स्वभाव में लग गया है। जो पुरुष समस्त परभावों का परित्याग करके निज निर्मल स्वभाव का ध्यान करता है वह पुरुष ही आत्मवश होता है, और उसके आवश्यक कर्म होता है। जो पुरुष आत्मवश नहीं हैं, राग के विषयभूत परपदार्थों के अधीन हैं, उन परपदार्थों का संयोग न मिले तो खेदखिन्न रहते हैं उन परपदार्थों से ही अपना सुख मानते हैं, वे पुरुष अनावश्यक हैं और उनका कार्य भी अनावश्यक है।
दुर्लभ अवसर के लाभ का अनुरोध―इस लोक में अनादि से भ्रमण करते-करते आज श्रेष्ठ मनुष्यजन्म पाया, श्रेष्ठ कुल पाया, धर्म का संयोग पाया, इतना दुर्लभ समागम मिल जाने पर भी यदि इस निज ब्रह्मस्वरूप का आदर न किया और विषयकषाय,जगजाल,विषयसाधनों का आदर रक्खा तो वही गति होगी जो गति अब से पहिले होती चली आयी है। कल्याण कर सकने का श्रेष्ठ अवसर इस मनुष्यजन्म में मिला है। मोह को ढीला करें, ममता को ढीला करें, परिजन से उपेक्षा करें, देह से भी निराले अपने आत्मतत्त्व की सुध लें, इसमें ही वास्तविक कल्याण है।ऐसा कल्याण प्राप्त करने के लिए ही हमारा उद्यम रहे, इस बात को न भूलें।